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अब जन-दक्षेस का मौका है
यह नवंबर का महिना भी क्या महिना था। इस महिने में छह शिखर सम्मेलन हुए, जिनमें चीन, रुस, जापान, दक्षिण अफ्रीका और पाकिस्तान समेत आग्नेय और मध्य एशिया के देशों के नेताओं के साथ भारत के प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति ने भी सीधा संवाद किया।
यह नवंबर का महिना भी क्या महिना था। इस महिने में छह शिखर सम्मेलन हुए, जिनमें चीन, रुस, जापान, दक्षिण अफ्रीका और पाकिस्तान समेत आग्नेय और मध्य एशिया के देशों के नेताओं के साथ भारत के प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति ने भी सीधा संवाद किया। उसे संवाद कैसे कहें ? सभी नेता जूम या इन्टरनेट पर भाषण झाड़ते रहे। सबने अपनी-अपनी बीन बजाई। सब कोरोना की महामारी पर बोले। सब ने अपने-अपने युद्ध-कौशल का जिक्र किया।
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संवाद के लिए दक्षेस का निर्माण हुआ
सब ने वे ही घिसी-पिटी बातें दोहराईं, जो ऐसे सम्मेलनों में प्रायः वे बोलते रहते हैं। उन्होंने अपने विरोधी राष्ट्रों को भी घुमा-फिराकर आड़े हाथों लिया। असली प्रश्न यह है कि इन शिखर सम्मेलनों की सार्थकता क्या रही ? बेहतर तो यह होता कि भारत अपने पड़ौसी देशों से सीधा संवाद करता। इस संवाद के लिए दक्षेस (सार्क) का निर्माण हुआ था। अब से लगभग 40 साल पहले जब इसके बनने की तैयारी हो रही थी तो हम आशा कर रहे थे कि भारत और उसके पड़ौसी देश मिलकर यूरोपीय संघ की तरह एक साझा बाजार, साझा संसद, साझा सरकार और साझा महासंघ खड़ा कर लेंगे लेकिन यह सपना भारत-पाक तनाव का शिकार हो गया।
मनमुटाव के कारण दक्षेस सम्मेलन कई बार टला
इन दोनों देशों के वेबनाव और मनमुटाव के कारण दक्षेस सम्मेलन कई बार होते-होते टल गया। जब हुआ तो भी कोई बड़े फैसले नहीं हो पाए। दक्षेस सम्मेलनों में होता क्या है ? इन देशों के प्रधानमंत्री वगैरह भाग लेते हैं। वे अपने रस्मी भाषण देकर बरी हो जाते हैं और बाद में उनके अफसर उन्हीं भाषणों के आधार पर सहयोग के छोटे-मोटे रास्ते निकालते रहते हैं। सरकारें आपसी सहयोग करते वक्त इतने असमंजस में डूबी रहती हैं कि कोई बड़ा फैसला कारगर ही नहीं हो पाता। तब क्या किया जाए ?
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मेरी राय है कि दक्षेस तो चलता रहे लेकिन एक जन-दक्षेस (पीपल्स सार्क) भी कायम किया जाए, जिसमें दक्षेस के आठों देशों के कुछ प्रमुख लोग तो हों ही, उनके अलावा म्यामांर, ईरान, मोरिशस, सेशेल्स और मध्य एशिया के पांच गणतंत्रों के लोगों को भी जोड़ा जाए। मैं इन लगभग सभी देशों में रह चुका हूं और वहां इनमें अपनेपन का दर्शन कर चुका हूं। यदि इन 17 देशों के जन-प्रतिनिधियों का एक संगठन खड़ा किया जा सके तो अगले पांच वर्षों में 10 करोड़ नए रोजगार पैदा किए जा सकते हैं, एशिया का यह क्षेत्र यूरोप से अधिक समृद्ध हो सकता है और तिब्बत, कश्मीर, तालिबान आदि मामले भी अपने आप सुलझ सकते हैं। यह सैकड़ों साल से चले आ रहे बृहद् आर्य-परिवार का पुनर्जन्म होगा।