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रैदास जी की बानी ही है काम आनी
बीते माघ पूर्णिमा के अवसर पर वाराणसी राजनीतिक हलचलों का केंद्र रहा।
बीते माघ पूर्णिमा के अवसर पर वाराणसी राजनीतिक हलचलों का केंद्र रहा। सभी दलों के नेताओं ने रविदास जयंती पर वाराणसी की ओर रूख किया। मोदी सरकार का प्रतिनिधि बन व उनका संदेश लेकर पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान पहुँचे। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य ने भी मंदिर पहुँच आशीर्वाद लिया। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत करने में जुटी प्रियंका गांधी भी पहुँचीं। उन्होंने रविदासियों के धर्मगुरू निरंजन दास के सामीप्य में लंगर चखा। वह लगातार दूसरी बार यहां पहुंची। सपा अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी रविदास मंदिर के दर्शन किये। उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति के उभरते चेहरे चंद्रशेखर आज़ाद रावण भी यह मौक़ा नहीं चूके। बसपा सुप्रीमो अपनी आदत के हिसाब से कहीं नहीं जातीं, ऐसे में उन्होंने बनारस न जाकर सोशल मीडिया के मार्फ़त रविदास जयंती पर अपनी उपस्थिति दर्ज करायी।
हलाँकि वाराणसी में हर साल रविदास जयंती पर तीन दिन का मेला लगता है। पर इससे पहले राजनेताओं की ऐसी भीड़ कभी नहीं दिखी। वर्ष 2019 के चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यहाँ माथा टेका था। प्रधानमंत्री ने रविदासियों के लिए टूरिस्ट सेंटर के साथ ही सीर गोवर्धनपुर गाँव के सुंदरीकरण का वादा किया था। यहाँ संत रविदास की भव्य मूर्ति लगनी थी। यहाँ का समूचा काम मई, 2021 में पूरा होना था। पर यह वायदा पूरा होने के बहुत दूर है। 1965 में रविदासियों ने यहां उनका भव्य मंदिर बनाया। जो दलित श्रद्धा के केंद्र के रूप में उभरा। मंदिर देखने में गुरुद्वारे जैसा है। इसका प्रबंधन पंजाब का डेरा बल्लां सचखंड करता है। रविदास जी का पुश्तैनी काम चमड़े का था, इसलिए चमड़े का काम करने वाला समुदाय प्रायः रविदास धर्म को अपनाता है।
संत कुलभूषण कवि संत शिरोमणि रविदास (रैदास) का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1433 को हुआ था। उनके जन्म के बारे में एक दोहा प्रचलित है- "चौदह से तैंतीस कि माघ सुदीपन्दरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।" उनकी माता का नाम कर्मा देवी तथा पिता का नाम संतोख दास था। उनकी पत्नी का नाम लोना बताया जाता है। संत रविदास जी ने स्वामी रामानंद जी को कबीर साहेब जी के कहने पर अपना गुरु बनाया था, जबकि उनके वास्तविक आध्यात्मिक गुरु कबीर साहेब जी ही थे।
संत रविदास बचपन से ही परोपकारी और दयालु स्वभाव के थे। दूसरों की सहायता करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। खास कर साधु-संतों की सेवा और प्रभु स्मरण में वे विशेष ध्यान लगाते थे। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंटकर दिया करते थे।
रैदास जी ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। उनकी समयानुपालन की प्रकृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे। पर उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से भगा दिया। रविदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग कुटिया बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे।चर्मकार कुल से होने के कारण जूते बनाने का अपना पैतृक व्यवसाय उन्होंने ह्रदय से अपनाया था। वे पूरी लगन तथा परिश्रम से अपना कार्य करते थे।
एक दिन संत रैदास (रविदास) अपनी कुटिया में बैठे प्रभु का स्मरण करते हुए कार्य कर रहे थे, तभी एक ब्राह्मण रैदासजी की कुटिया पर आया। उन्हें सादर वंदन करके बोला कि मैं गंगाजी स्नान करने जा रहा था, सो रास्ते में आपके दर्शन करने चला आया।
रैदासजी ने कहा कि आप गंगा स्नान करने जा रहे हैं, यह एक मुद्रा है, इसे मेरी तरफ से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण जब गंगाजी पहुंचा और स्नान करके जैसे रुपया गंगा में डालने को उद्यत हुआ तो गंगा नदी में से गंगा मैया ने जल में से अपना हाथ निकालकर वह रुपया ब्राह्मण से ले लिया।उसके बदले ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे दिया।
ब्राह्मण जब गंगा मैया का दिया कंगन लेकर लौट रहा था तो वह नगर के राजा से मिलने चला गया। ब्राह्मण को विचार आया कि यदि यह कंगन राजा को दे दिया जाए तो राजा बहुत प्रसन्न होगा। उसने वह कंगन राजा को भेंट कर दिया। राजा ने बहुत-सी मुद्राएं देकर उसकी झोली भर दी।
ब्राह्मण अपने घर चला गया। इधर राजा ने वह कंगन अपनी महारानी के हाथ में बहुत प्रेम से पहनाया तो महारानी बहुत खुश हुई। राजा से बोली कि कंगन तो बहुत सुंदर है, परंतु यह क्या एक ही कंगन, क्या आप बिल्कुल ऐसा ही एक और कंगन नहीं मंगा सकते हैं।
राजा ने कहा- प्रिये ऐसा ही एक और कंगन मैं तुम्हें शीघ्र मंगवा दूंगा। राजा ने उसी ब्राह्मण को खबर भिजवाई कि जैसा कंगन मुझे भेंट किया था वैसा ही एक और कंगन मुझे तीन दिन में लाकर दो वरना राजा के दंड का पात्र बनना पड़ेगा। खबर सुनते ही ब्राह्मण के होश उड़ गए। वह पछताने लगा कि मैं व्यर्थ ही राजा के पास गया, दूसरा कंगन कहां से लाऊं?
इसी ऊहापोह में डूबते-उतरते वह रैदासजी की कुटिया पर पहुंचा। उन्हें पूरा वृत्तांत बताया कि गंगाजी ने आपकी दी हुई मुद्रा स्वीकार करके मुझे एक सोने का कंगन दिया था, वह मैंने राजा को भेंट करदिया। अब राजा ने मुझसे वैसा ही कंगन मांगा है, यदि मैंने तीन दिन में दूसरा कंगन नहीं दिया तो राजा मुझे कठोर दंड देगा ।.रैदास जी बोले कि तुमने मुझे बताए बगैर राजा को कंगन भेंट कर दिया। इसका पछतावा मत करो। यदि कंगन तुम भी रख लेते तो मैं नाराज नहीं होता, न ही मैं अब तुमसे नाराज हूं।
रही दूसरे कंगन की बात तो मैं गंगा मैया से प्रार्थना करता हूं कि इस ब्राह्मण का मान-सम्मान तुम्हारे हाथ है। इसकी लाज रख देना। ऐसा कहने के उपरांत रैदासजी ने अपनी वह कठौती उठाई जिसमें वे चर्म गलाते थे। उसमें जल भरा हुआ था।
उन्होंने गंगा मैया का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का तब गंगा मैया प्रकट हुईं। रैदास जी के आग्रह पर उन्होंने एक और कड़ा ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया। रैदासजी ने अपने बड़प्पन का जरा भी अहसास ब्राह्मण को नहीं होने दिया। ऐसे थे महान संत रविदास।
एक अन्य प्रसंग के अनुसार एक बार एक पर्व के अवसर पर उनके पड़ोस के लोग गंगा जी में स्नान के लिए जा रहे थे। रविदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी गंगा स्नान के लिए चलने का आग्रह किया। उन्होंने उत्तर दिया- गंगा स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किंतु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का वचन मैंने दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो मेरा वचन भंग होगा। ऐसे में गंगास्नान के लिए जाने पर मन यहां लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा?
मन जो काम करने के लिए अंत:करण से तैयार हो, वही काम करना उचित है। अगर मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। माना जाता है कि इस प्रकार के उनके व्यवहार के बाद से ही यह कहावत प्रचलित हो गई कि- 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।'
संत रविदास की रचनाएं
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग-अंग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा,
जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती,
जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा,
जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम तुम स्वामी हम दासा,
ऐसी भक्ति करै रैदासा।
पूजा कहा चढ़ाऊं...
राम मैं पूजा कहा चढ़ाऊं।
फल अरु फूल अनूप न पाऊं॥टेक॥
थन तर दूध जो बछरू जुठारी ।
पुहुप भंवर जल मीन बिगारी ॥1॥
मलयागिर बेधियो भुअंगा ।
विष अमृत दोउ एक संगा ॥2॥
मन ही पूजा मन ही धूप।
मन ही सेऊं सहज सरूप ॥3॥
पूजा अरचा न जानूं तेरी।
वर्तमान में देश की स्थिति नाजुक होती जा रही है। कुछ राष्ट्रविरोधी ताकतों के इशारे पर असामाजिक तत्वों द्वारा दलित समाज को उकसाया जा रहा है कि तुम हिन्दू नहीं हो। तुम बुद्धिस्ट हो। हमारे संत रविदास थे। वो भी हिन्दू नही थे। मुसलमान और दलित भाई-भाई हैं। हिन्दू हमारे दुश्मन हैं, आदि, आदि।
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रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया। सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनकाविश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
चारो वेद के करे खंडौती। जन रैदास करे दंडौती।।
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। तजि अभिमान मेटि आपापर, पिपिलक हवै चुनि खावै।
उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है। जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत है। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से प्रभावित हो उनकी शिष्या बन गयी थीं।
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वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहि जासु की। सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।
आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला। रैदास जी के 40 पद गुरु ग्रन्थ साहब में मिलतेहैं। जिसका सम्पादन गुरु अर्जुन सिंह देव ने 16वीं सदी में किया था।
अब कै 'रैदासा'॥
मन चंगा तो कठौती में गंगा||
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
सब कुछ साफ-साफ देखने-समझने के लिए ज़रूरी है कि मन एकदम खाली हो।पर राजनेताओें का मन साफ़ तो होता नहीं है। उनके हर काम में कहीं पर निगाहें व कहीं पर निशाना पढ़ा जा सकता है। जब भी कोई व्यक्ति, महापुरूष, प्रेरक पुरुष, धर्म पुरुष राजनेताओें के एजेंडे में आता है तो मैं डर जाता हूँ। उसके बंटने को लेकर। उसके खंड खंड होने को लेकर। राजनेताओें के पाखंड की बलि चढ़ने को लेकर। उसके मरने व मारे जाने को लेकर। इस बार सभी राजनेताओें ने समवेत रैदास जी की ओर मुँह किया। प्रस्थान करके वहाँ पहुँचे। ऐसे में मेरे जैसे तमाम लोगों के मन में भय व आशंका के उमड़ने घुमड़ने के लिए जगह बन जाना स्वाभाविक है। हमें यही प्रार्थना करनी चाहिए-हे भगवान! संत रैदास जी को इनके कुटिल चालों व हाथों से बचाना है आपका काम। क्योंकि रैदास जी की बानी है हम सबके अभी बहुत काम आनी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)