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रे मगध ! कहां मेरा रश्मिरथी ?
उनका शैशव विपन्नता में बीता। स्कूल जाते थे नदी पार कर, बिना जूतों के। फिर भारत ने उन्हें उठाकर अपने ललाट पर सजाया। वे आसमान चीरकर निकले थे, मार्तंड थे।
के विक्रम राव
मरुभूमि में कई अनगिनत, अनदेखे फूल खिलते हैं, महकते हैं, फिर अनजाने ही मुरझा जाते हैं। इस भाव को अपने शोकगीत “एलेजी” में थॉमस ग्रे (1751) ने निरुपित किया था। गुमनाम कवियों का हश्र आज भी कोई बेहतर नहीं है। संयोग हुआ तो लोग संजो लेते हैं। मगर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (कल जयंती थी) अमर हैं, साकार, दिव्य, गौरव विराट हैं। यह कैसी त्रासदी है ?
आसमान चीरकर निकल, मार्तंड थे दिनकर
उनका शैशव विपन्नता में बीता। स्कूल जाते थे नदी पार कर, बिना जूतों के। फिर भारत ने उन्हें उठाकर अपने ललाट पर सजाया। वे आसमान चीरकर निकले थे, मार्तंड थे। कौन बदली उन्हें रोक पाती ? कौन चट्टान बाधित कर पाती ? वे रश्मिरथी थे। वही बात जो साहिर ने लिखी थी, “किसके रोके रुका है सबेरा ?” दिनकर जी की स्मृति को मैं मई 1953 से संजोये हूँ। कॉलेज के ग्रीष्मावकाश पर पिताजी मुझे दिल्ली ले गए।
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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (फाइल फोटो)
प्रथम राज्यसभा में उनके साथी थे दिनकर जी। बिहार प्रदेश से दिनकर जी और अविभाजित मद्रास राज्य से मेरे पिता (सम्पादक स्व. के. रामा राव) निर्वाचित थे। हालांकि दोनों पटना से ही मित्र रहे। तब दैनिक ‘सर्चलाइट’ (आज ‘दिन्दुस्तान टाइम्स’) के संपादक (1949) पिताजी थे। विधायक पुण्यदेव शर्मा के बोरिंग कैनाल रोड वाले मकान में हम लोग किरायेदार थे। शर्माजी दिनकर जी के सम्बन्धी थे। मैं गर्दनीबाग (पटना हाई स्कूल) में पढ़ता था।
दिनकर जी को सामने देख कर नेत्र विस्फारित रह गए
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (फाइल फोटो)
नई दिल्ली के 105, नार्थ एवेन्यू, में पिताजी का सांसद आवास था। तबतक मैं दिनकर जी को भली-भांति पढ़ चुका था। पिताजी से आग्रह किया कि मैं अपने ईष्टकवि का दर्शन करना चाहता हूँ। उन्होंने मुझे बस में बैठाकर सांसद अतिथि गृह के लिए रवाना किया। पहले तो नेत्र विस्फारित रह गए। किताब में पढ़ा था। दिनकर जी किशोर-सुलभ कौतूहल को समझ गए। पूछा कौन सा रस पसंद है? वीर रस की प्रतिमूर्ति सामने साक्षात् हो तो फिर सभी विरस लगेंगे। फिर पूछा कौन सा कवि प्रिय है ? मैंने भूषण बता दिया।
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भूषण की पंक्ति सुनाने को कहा। मैंने सुना दिया : “इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व ज्यौं अंभ पर।” और दूसरा : “दिल्लिय दलन निवारि कर” जब मुग़ल सूरत लूटने छत्रपति चले थे। फिर दिनकर जी ने स्वयं : “इंद्र निज हेरत फिरत गज इंद्र” सुनाया, अर्थ भी समझाया। यश का रंग सफेद होता है। शिवाजी के यश की धवलता में दुनिया डूब गयी है। देवराज इंद्र अपने श्वेत ऐरावत को तथा भगवान विष्णु अपने क्षीर सागर को खोज रहे हैं। सब सुनकर तब मैं बस बीन पर मुंडी डुला रहा था। मुझे तो वहां धोती-कुर्ता पहने साक्षात् भूषण दिख रहे थे।
दिनकर जी को भी जातिवादियों ने बख्शा नहीं
फिर मशहूर किस्सा चर्चित हुआ। दाल में नमक मांगने पर भाभी ने निठल्ले देवर भूषण को झिड़क दिया था कि “कमा कर लाओ।” अगर ऐसी घटना न होती तो फिर हिंदी पट्टी में शिवराय और छत्रसाल को कौन जानता? हमारे घर पहुंचने पर दिनकर जी ने पिता जी से कहा, “रामा राव जी हिंदी के प्रति आपके ज्ञान के अभाव को आपकी संतान दूर कर देगी।” लेकिन दिनकर जी को भी जातिवादियों ने बख्शा नहीं। अपनी पोती के लिए वे वर खोज रहे थे।
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तभी उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। दूल्हे राजा की नीलामी लगाने वालों की नजर एक लाख रूपये पर लगी थी। राष्ट्रकवि से नाता जुड़ना ही अहोभाग्य होता है। उधर प्रकाशकों द्वारा भी रायल्टी में आदतन हेराफेरी की गयी। यह तो अमूमन होता है। पर कोई बाज नहीं आया। दिनकर जी का अंतिम समय लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सान्निध्य में बीता। तब तक भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान शुरू हो गया था।
अपने अंतिम समय में ऐसे थे दिनकर जी
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (फाइल फोटो)
मशहूर पत्रकार सुरेन्द्र किशोर द्वारा उपलब्ध करायी गयी साप्ताहिक “दिनमान” (5 मई 1974) में छपी रपट प्रस्तुत है : ‘रामधारी सिंह दिनकर का 24 अप्रैल की रात को मद्रास के एक अस्पताल में देहांत हो गया। थोड़ी देर पहले तक वह समुद्र तट पर मित्रों के सामने कविता पाठ कर रहे थे। स्वस्थ और प्रसन्न थे। उसके भी पहले वेल्लूर जाने को मद्रास में ठहरे जयप्रकाश नारायण से वह मिल रहे थे और उन्हें एक लंबी कविता सुना रहे थे जो उन्हीं पर लिखी थी।
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एक दिन पूर्व तिरुपति मंदिर में देवमूर्ति को भी उन्होंने तीन बार कविताएं सुनाई थीं। तीनों बार नयी रचना करके दर्शन किया था। समुद्र तट से लौटे तो सीने में दर्द उठा। घरेलू उपचार कारगर न होने पर मित्र रामनाथ गोयनका और गंगा शरण सिंह उन्हें तुरंत अस्पताल ले गये। पर तब तक आधे घंटे का ही जीवन शेष रह गया था।” राष्ट्रकवि दिनकर से लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संबंध बेहद अंतरंग और घनिष्ठ थे।
दिनकर जी के बारे में बोल ही नहीं पाए जयप्रकाश
जय प्रकाश नारायण (फाइल फोटो)
बात है साल 1977-78 की। दिनकर जी की स्मृति में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ। जयप्रकाश जी को बतौर मुख्य वक्ता कार्यक्रम में बुलाया गया। जब जयप्रकाश जी से बोलने के लिए कहा गया तो तीन बार कोशिश करने के बावजूद उनके मुंह से स्वर न फूट पाए।
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हर बार वे बोलने को आते और फफक-फफक कर रोने लगते। जब काफी देर बाद वो संयत हुए तो बताया कि कैसे एक बार तिरूपति में दिनकर जी ने ईश्वर से यह कामना की थी कि “हे भगवान ! मेरी उम्र जयप्रकाश जी को लग जाए।”
दूसरी आजादी के प्रणेता लोकनायक पर डॉ. धर्मवीर भारती की ऐतिहासिक पंक्तियाँ भी उधृत हैं :
“खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का…
हर खासोआम को आगाह किया जाता है
खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से
कुंडी चढ़ाकर बंद कर लें
गिरा लें खिड़कियों के पर्दे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि एक बहत्तर साल का बूढ़ा आदमी
अपनी कांपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है।”
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