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फिर आरक्षण का अंधा कानून
संसद ने कल सर्वानुमति से आरक्षण विधेयक पारित कर दिया। सदन में उपस्थित 352 सदस्यों में से एक की भी हिम्मत नहीं हुई कि इस आरक्षण का विरोध करे।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद ने कल सर्वानुमति से आरक्षण विधेयक पारित कर दिया। सदन में उपस्थित 352 सदस्यों में से एक की भी हिम्मत नहीं हुई कि इस आरक्षण का विरोध करे। अब 10 साल के लिए नौकरशाही के पैर में बेड़ियां फिर से डाल दी गई है। 70 साल से चल रहे इस आरक्षण का मेरे जैसे लोगों ने 40-50 साल पहले तक डटकर समर्थन किया था। जब प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रतापसिंह ने पिछड़ों को आरक्षण दिया, तब तक हम यह नारा लगाते रहे कि ''हम सबने बांधी गांठ। पिछड़े पावे सौ में साठ''।
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यानि सरकारी नौकरियों में अनुसूचितों और पिछड़ों को जमकर आरक्षण दिया जाए ताकि उन पर सदियों से चलते रहे अत्याचार की हम कुछ हद तक भरपाई कर सकें। कई पार्टियों द्वारा आयोजित विशाल जन-सभाओं को भी मैं उन दिनों संबोधित करता रहा लेकिन अब मैं यह अनुभव करता हूं कि सरकारी नौकरियों में से आरक्षण एक दम खत्म किया जाना चाहिए। संसद के सभी सदस्यों द्वारा चली गई यह भेड़चाल बताती है कि हमारे सांसदों को कोई भी कानून बनाते समय जितनी अक्ल लगानी चाहिए, वे नहीं लगाते। यदि कुछ सांसद इस आरक्षण का विरोध करते तो क्या उन्हें संसद से निकाल दिया जाता ? मैं तो समझता हूं कि आरक्षित सीटों से जीते हुए सांसदों को इस आरक्षण का सबसे पहले विरोध करना चाहिए, क्योंकि यह आरक्षण उनके वर्ग में ‘मलाईदार परते’ तैयार कर रहा है।
अनुसूचितों और पिछड़ों का यह मलाईदार वर्ग मुश्किल से 10 प्रतिशत भी नहीं है
अनुसूचितों और पिछड़ों का यह मलाईदार वर्ग मुश्किल से 10 प्रतिशत भी नहीं है। इस वर्ग के लोग आरक्षित पदों पर पीढ़ी दर पीढ़ी कब्जा करते चले जा रहे हैं। जो सचमुच गरीब हैं, वंचित हैं, पिछड़े हैं, असहाय हैं, निरुपाय हैं, वे अब भी वैसे ही हैं, जैसे सदियों पहले थे। उनके बच्चों को न पढ़ने की सुविधा है, न ही उनकी सेहत की ठीक देखभाल हो पाती है और न ही समाज में उनकी समुचित प्रतिष्ठा है। वे जो शारीरिक श्रम करते हैं, उसकी कीमत भी आज बहुत कम है। इसीलिए समतामूलक समाज बनाने के लिए सबसे ज्यादा जरुरी यह है कि शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम की कीमतों में जो खाई है, उसको पाटा जाए। यदि ऐसा हम कर सके तो लोग सफेदपोश नौकरियों में जाकर दुम हिलाने की बजाय अपनी मेहनत-मजदूरी से आत्म-सम्मान की जिंदगी क्यों नहीं जिएंगे ?
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इसके अलावा जातिगत भेदभाव के बिना शिक्षा और चिकित्सा हर गरीब और वंचित परिवार को न्यूनतम कीमत पर उपलब्ध करवाई जाए तो ये ही लोग आरक्षण की भीख से मिलनेवाले पदों पर थूक देंगे। क्या उनका अपना स्वाभिमान नहीं है ? अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अनुसूचितों और पिछड़ों को खुद आगे आना चाहिए। हमारे सारे नेता मजबूर हैं। वे वोट और नोट के गुलाम हैं। वे अनंतकाल तक जातिगत आरक्षण का समर्थन करते रहेंगे।