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सोशल मीडिया द्वारा स्व-नियमन का सही समय

Shivakant Shukla
Published on: 25 March 2019 3:47 PM IST
सोशल मीडिया द्वारा स्व-नियमन का सही समय
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लेखक एन के सिंह वरिष्ठ पत्रकार

ईमानदारी और सहजभाव के प्रतिमूर्ति के रूप में पहचान बनाने वाले गोवा के मुख्यमंत्री व देश के पूर्व रक्षा-मंत्री मनोहर पर्रीकर के निधन की खबर सबसे पहले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के शोक-सन्देश से मिली।

मायावती से लेकर ममता बनर्जी, अमिताभ बच्चन से लेकर सामान्य आदमी ने ट्वीट और सोशल मीडिया के जरिये अपनी संवेदना व्यक्त की। अख़बारों, चैनलों और अन्य वेब मीडिया ने भी इसे तत्काल प्रसारित किया। खासबात यह थी कि इन नए माध्यम के जरिये सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर “साधुओं के स्नान” तक की खबर पर आमोख़ास अपनी प्रतिक्रिया देने लगा है और अन्य लोगो उसे देखने लगे हैं। जन-विमर्श के लिए जन-भागेदारी का इतने व्यापक स्तर पर विस्तार प्रजातन्त्र के लिए अच्छा भी है लेकिन इसके खतरे भी हैं।

वर्तमान चुनाव में सोशल मीडिया की एक बड़ी भूमिका होगी। जो इसके इस्तेमाल से अभी भी अछूते हैं इन्हें भी अनौपचारिक पारस्परिक विमर्श के जरिये यह प्रभावित करेगा। चूंकि भारतीय समाज भावनात्मक अतिरेक में जीता है और चूंकि सोशल मीडिया के अनौपचारिक होने के कारण व्यावहारिकरूप से सामान्य कानूनों के नियंत्रण से भी बच सकता है लिहाज़ा अफ़वाह व कुतर्क से जनमत पर प्रभाव पड़ सकता है।

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यही वजह है कि चुनाव आयोग ने इस बार सोशल मीडिया या अन्य प्लेटफार्मों पर नज़र रखने की अलग से व्यवस्था की है और गूगल, ट्वीटर और फेसबुक के प्रतिनिधियों से बात भी किया है। यहाँ तक सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने भी पिछले कुछ समय से सोशल मीडिया में अपनी पैठ बढ़ा ली है। ख़तरा प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा चलाये जा रहे वेब प्लेटफार्म से नहीं बल्कि अनाम, छिटपुट व रातोंरात पैदा हुए साइटों से है या उनसे जो उपरोक्त तीनों वेब सेवाओं के जरिये अफवाहों को सार्वजानिक करते हैं।

चुनाव आयोग ने इस खतरे का इस चुनाव में संज्ञान तो लिया पर काफी देर से। लेकिन जिन चार इन्टरनेट प्लेटफार्म के प्रतिनिधियों को अचार संहिता बना कर फेक न्यूज़ या अन्य खतरों को रोकने की ताकीद की वह अमल में लाना शायद फिलहाल संभव नहीं। ऐसे में अगर सोशल मीडिया पर सरकारी सख्ती से बचना है तो इस स्वयं को नियंत्रित करना होगा।

भारत के संविधान में अनुच्छेद १९(१) में हर नागरिक को “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” है। ध्यान रखें कि “हर नागरिक को” के दो मतलब है --- पहला , किसी विदेशी को यह अधिकार नहीं है और दूसरा मीडिया को अलग से कोई अधिकार नहीं हैं बल्कि वही हैं जो सामान्य नागरिक को। यहीं पर भारत का संविधान अमरीकी संविधान से अलग है जहाँ संविधान के पहले संशोधन के जरिये हीं मीडिया की आजादी को भविष्य के लिए भी अक्षुण्ण कर दिया गया।

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प्रिंट या टीवी औपचारिक और मूर्त माध्यम है--याने एक संगठन होता है, एक दफ्तर होता है जिसके पते पर संगठन का रजिस्ट्रेशन होता है, संगठन का अपना एक जाना-माना संपादक और प्रिंटर होता है और एक मालिक होता है। ये दोनों माध्यम संविधान के अनुच्छेद १९(२) में वर्णित आठ “युक्तियुक्त निर्बंध” (रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन) और उनके तहत बनाये गये तीन दर्जन से अधिक कानूनों से बंधे होते हैं। लिहाज़ा हर नागरिक अखबार या टीवी तो चला सकता है लेकिन हर नागरिक की बात जरूरी नहीं कि अख़बार या चैनल में जाये या जैसी वह चाहे वैसी जाये. इन दोनों माध्यमों में क्रमशः स्थान या समय की सीमा होती है लिहाज़ा कई बार सुदूर क्षेत्रों की खबरें संज्ञान में नहीं आ पातीं या अगर आयीं भी तो स्थानीय संस्करण में या क्षेत्रीय चैनल में। दिल्ली या मुंबई में बारिश से सड़क जाम गोपालगंज, बुलंदशहर या सतारा के किसी गाँव के बलात्कार की घटना या आलू के भाव जमीन पर आने से उत्तर प्रदेश के कायमगंज में किसान द्वारा की गयी आत्महत्या पर भारी पड़ने लगा।

दिल्ली में निर्भया काण्ड समाज पर एक बदनुमा धब्बा हो गया लेकिन बिहार में सरेआम मोटरसाइकिल से किसी की पत्नी को उठाकर गुंडों द्वारा बगल के खेत में घंटों बलात्कार प्राइम बुलेटिन में जगह न पा सकी लिहाजा बड़े राष्ट्रव्यापी जन-विमर्श का कारण नहीं बन सकी। राष्ट्रीय चैनलों के एंकर-संपादकों ने, जो मंदिर के मुद्दे पर किसी दाढी वाले मुल्ला और किसी तिलकधारी महामंडलेश्वर के बीच हाथापाई कराने की स्थिति पैदा करने में मशगूल थे, इस खबर को खबर हीं नहीं समझा। संपादकों की अशिक्षा और तज्जनित अविवेक सरकारों को भी खूब भाती रही।

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लिहाज़ा नयी तकनीकि के विकास के साथ वेब मीडिया का प्रादुर्भाव अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का “पूर्ण समाजीकरण” कहा जा सकता है। एक सामान्य सा व्यक्ति भी सोशल मीडिया पर अपनी बात अपलोड कर सकता है जो कई बार समाज में स्वस्थ सामूहिक आक्रोश का कारण भी बनता है। लेकिन इसके खतरे भी बढ गए हैं। दुबई में बैठा एक आईएसआई का एजेंट भारत में दंगे करा सकता है।

फर्जी पोर्टल या प्लेटफार्म विकसित कर वह फर्जी विजुअल्स साइट पर डाल कर भारत में साम्प्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ सकता है क्योंकि सोशल मीडिया पर क्या अपलोड हो और किन संगठनों द्वारा या कौन सा व्यक्ति यह किया जा सकता है, इसकी पहचान सरकार द्वारा असम्भव हीं नहीं अव्यावहारिक भी है। चूंकि ज्ञान अब संस्थाओं के भव्य प्रसाद में कुछ हीं लोगों तक महदूद न हो कर सबके लिए “गूगल बाबा” ने सुलभ कर दिया है इसलिए सोशल मीडिया पर रोक लगाने की बात सोचना भी बचकाना है. चीन जैसा देश जिसके राज्य तंतु बेहद मजबूत हैं, वह भी इसमें असफल रहा।

लिहाज़ा खबरों को इस नए माध्यम के जरिये जन-जन तक विश्वसनीयता के साथ पहुँचना वेब न्यूज से जुड़े लोगों के लिए आज अस्तित्व का प्रश्न है? लेकिन यह तभी संभव है जब निहायत सदाशयता, नैतिक और प्रोफेशनल प्रतिबद्धता, और आत्मोत्थान के रूप में इस पवित्र पेशे में आयें और आत्म-नियमन के हर पायदान पर अपने को खरा उतारें। समाज आपका खैरमकदम करेगा , अच्छी सरकार आप को अपना मित्र मानेगी. हाँ, अगर वेब मीडिया इन मानदंडों से गिरता है और सरकार द्वारा बनाई गयी कोई संस्था, कलक्टर इसे नियंत्रित करने का अधिकार पा जाता है तो वह स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए बेहद खतरनाक स्थिति होगी।

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वर्तमान चुनाव एक कसौटी होने जा रहा है सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों की समझ, सदाशयता और परिपक्वता का और साथ हीं सामाज की तर्क-शक्ति के बुद्धिमतापूर्ण उपयोग का. अगर गूगल, फेसबुक या ट्विटर का प्रबंधन सोशल मीडिया साइट या माध्यम के प्रयोग या विषय -वस्तु पर नियंत्रण कर सकता है तो इसका इस्तेमाल करने वाले स्वयं क्यों हैं?

स्व-नियमन का उल्लंघन न हो इसके लिए स्वयं हीं समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के लोगों व अपने बीच के संत-तुल्य लोगों का प्राधिकरण बनाना होगा जिसके आदेश की वही मान्यता होगी जो किसी बड़ी से बड़ी अदालत की होती है और वह भी स्वेच्छा से। जनता की तार्किक सोच और भावनात्मक अतिरेक से बचने की कोशिश इस प्रयास में बेहद सार्थक भूमिका निभा सकती है। दूसरी ओर तार्किकता और वैज्ञानिक सोच के अभाव में समाज को यह माध्यम भंवर में फंसे तिनके की तरह बहा सकती है।

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