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ये हैं बादशाह खान : टुकड़े गैंग के विरोध में खड़ा रहा आजादी का परवाना

बादशाह खान का जन्म 6 फरवरी 1890 को गुलाम भारत के पेशावर में एक समृद्धशाली पख्तून परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बहरम खान था जो कि एक जमीदार थे। बाशा खान की स्कूली शिक्षा मिशनरी स्कूल में हुई। वह पढ़ने में तेज थे।

राम केवी
Published on: 6 Feb 2020 5:32 PM IST
ये हैं बादशाह खान : टुकड़े गैंग के विरोध में खड़ा रहा आजादी का परवाना
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रामकृष्ण वाजपेयी

खान अब्दुल गफ्फार खान । बादशाह खान । बाशा खान। फकर ए अफगान। सरहदी गांधी। सीमांत गांधी। ये सारे नाम कई अलग अलग शख्सियतों के नहीं, एक इंसान के नाम हैं। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ महात्मा गांधी के अहिंसा के सशक्त हथियार को लेकर देश को टुकड़े करने नहीं, जोड़ने के लिए, आजाद कराने के लिए लड़ने वाले उनके परम अनुयायी इस खान की लोकप्रियता का कोई सानी नहीं।

खान अब्दुल गफ्फार खान की 130वीं जयंती पर यह सवाल उठता है कि क्या आज के युवा इस खान को जानते हैं। कौन था यह खान जिसने उन पठानों को अहिंसा का पाठ पढ़ाया जहां खून का बदला खून का कानून चलता था। जो स्वभाव से ही लड़ाका कहे जाते थे।

कौन थे बादशाह खान

बादशाह खान का जन्म 6 फरवरी 1890 को गुलाम भारत के पेशावर में एक समृद्धशाली पख्तून परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बहरम खान था जो कि एक जमीदार थे। बाशा खान की स्कूली शिक्षा मिशनरी स्कूल में हुई। वह पढ़ने में तेज थे।

मां के कहने पर नहीं गए लंदन

हाईस्कूल पास करने के बाद उन्हें ब्रिटिश इंडियन आर्मी में गाइड आफीसर बनने का प्रस्ताव आया लेकिन यह अहसास होने पर कि ये आफीसर भी अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। उन्होंने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। इस बीच उन्हें लंदन जाकर पढ़ने का प्रस्ताव आया लेकिन उनकी मां अपने इस बेटे को बाहर नहीं भेजना चाहती थीं इसलिए बाशा खान ने मां का कहना बिना ज्यादा सोचे मान लिया कि वह अपने जीवन में क्या कर सकते हैं।

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पठानों के बीच सुधार कार्य

बादशाह खान ने 20 साल की उम्र में पेशावर के उटमंजई में एक स्कूल खोला और अगले साल ही आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए। हालांकि 1915 में उनके स्कूल पर प्रतिबंध लग गया। विद्रोह की बार बार की विफलता से बादशाह खान ने यह सबक सीखा कि पख्तून के लिए सामाजिक सुधार और जागृति अधिक जरूरी है। इसके बाद उन्होंने अफगान रिफार्म सोसाइटी बनाई। फिर युवा आंदोलन के लिए पख्तून जिरगा का गठन किया।

ऐसे नाम हुआ बादशाह खान

1928 में हज करके लौटने के बाद खुदाई खिदमतगार मूवमेंट चलाया। बिरतानिया हुकूमत ने इस आंदोलन और इसके समर्थकों को कुचलने के अनेक प्रयास किये। उन्हें इस दौरान कई झटके लगे। गफ्फार खान अपनी शिक्षा तो पूरी नहीं कर पाए थे लेकिन उन्होंने पठानों के बीच शिक्षा का प्रचार प्रसार किया। उन्होंने पठानों के बीच आपसी समझ को बढ़ाने का प्रयास किया। उन्होंने पठानों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए करीब 500 गांवों का दौरा किया। इसके बाद वह बादशाह खान के नाम से मशहूर हुए।

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सत्याग्रहियों की विशाल सेना

खुदाई खिदमतगार का गठन गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा से प्रभावित होकर किया गया था। जिसकी वह इस संगठन से जुड़ने वाले प्रत्येक साथी को शपथ दिलाते थे। इसमें करीब एक लाख कार्यकर्ता थे। ये कार्यकर्ता एक मिसाल थे जो कि ब्रिटिश पुलिस और सेना के हाथों मरने के लिए तैयार रहते थे। खुदाई खिदमतगार की राजनीतिक शाखा का नेतृत्व बाशा खान के भाई ने किया और वह 1937 से 1947 तक इस प्रांत के मुख्यमंत्री रहे।

मुस्कुरा कर खाईं सीने पर गोलियां

23 अप्रैल 1930 को नमक सत्याग्रह के लिए प्रदर्शन के दौरान बाशा खान को गिरफ्तार किया गया। पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में जब भीड़ जमा थी। बिरतानिया हुकूमत ने गोली चलाने का आदेश दे दिया जिसमें दो सौ से ढाई सौ लोग मारे गए। लेकिन कार्यकर्ताओं ने अहिंसा का दामन नहीं छोड़ा वह गोली खाते रहे।

विरोध होने पर दिया था कांग्रेस से इस्तीफा

खुदाई खिदमतगार ने कांग्रेस के साथ भी काम किया। बाशा खान एक वरिष्ठ और सम्मानित नेता रहे। जब कांग्रेस गांधी की नीतियों से असहमत भी होती थी उस समय भी बाशा खान गांधी की नीतियों के पक्ष में खड़े रहते थे। उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनने को कहा गया लेकिन उन्होंने मना कर दिया। पार्टी की युद्ध नीति के विरोध में उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा भी दिया लेकिन युद्ध नीति में संशोधन होने पर वह वापस आ गए। गांधी के इस परम भक्त को सीमांत गांधी भी कहा जाता है।

बंटवारे का विरोध किया

सीमांत गांधी ने कठोरता के साथ देश के बंटवारे का विरोध किया था। उन पर मुस्लिम विरोधी होने के आरोप लगे। उन पर हमला हुआ लेकिन वह नहीं डिगे। गांधी से उनके आखिरी शब्द यही थे कि आपने हमें भेड़ियों के मुंह में फेंक दिया। 1947 में उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत जनमत संग्रह का भी उन्होंने विरोध किया। सीमांत गांधी एक ऐसे नेता थे जो पाकिस्तान में रहने के बावजूद दिल से भारत के साथ थे। उनकी आत्मा यहीं बसती थी। इसीलिए 1987 में बाशा खान को पहली किसी गैर भारतीय के रूप में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

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