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घेराबंदी में फंसे ट्रम्पः क्या वर्तमान हालात से उबर कर चुनाव जीते सकते हैं

अश्वेत नागरिक फ्लॉयड की मौत ने अमेरिकी जनता के गुस्से के लिये एक चिंगारी का काम किया तो वहीं राष्ट्रपति ट्रंप की भड़काऊ भाषा ने इन प्रदर्शनों को हिंसक रूप दे दिया। अमेरिकी इतिहास में वर्ष 1968 और वर्ष 2020 के बीच काफी समानताएँ हैं।

Rahul Joy
Published on: 5 Jun 2020 10:37 AM GMT
घेराबंदी में फंसे ट्रम्पः क्या वर्तमान हालात से उबर कर चुनाव जीते सकते हैं
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donald trump

--- डॉo सत्यवान सौरभ,रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, दिल्ली यूनिवर्सिटी,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका में एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन संयुक्त राज्य अमेरिका सहित विश्व भर के कई अन्य देशों में भी देखने को मिले हैं। दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का डंका पीटने वाला संयुक्त राज्य अमेरिका अपने ही आंगन में गोरे पुलिसकर्मी के घुटने तले दम घुटने से अफ्रीकी अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद समता, सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकारों की रक्षा में नाकामी के कारण कठघरे में है।

क्षेत्रफल के हिसाब से महादेश कहलाने वाले तमाम जनसंस्कृतियों से युक्त इस देश के आधे से ज्यादा राज्य आजकल नस्लीय नफरत के विरोध की आग में जल रहे हैं। इस विरोध प्रदर्शन को अलग-थलग करने के लिये अमेरिकी सरकार ने भीड़ के ऊपर आँसू गैस के गोले, रबड़ की गोलियों का इस्तेमाल किया और अमेरिकी राष्ट्रपति ने प्रदर्शनकारियों को ‘ठग’ कहा एवं उन्हें गोली मारने और उनके खिलाफ सेना के इस्तेमाल करने की धमकी दी।

यदि यही विरोध प्रदर्शन किसी गैर-पश्चिमी राष्ट्र में हो रहे होते और वहाँ का राष्ट्रपति ऐसी भाषा का प्रयोग करता तो अमेरिकी विदेश विभाग, ब्रिटिश, फ्राॅन्स और जर्मनी के विदेश कार्यालय तुरंत वहाँ की सरकार की निंदा करते और मानवाधिकारों का सम्मान करने का आह्वान करते तथा अमेरिकी काॅन्ग्रेस भी उस राष्ट्र के 'क्रूर' शासन के खिलाफ कानून बना देती या उस पर प्रतिबंध लगा देती।

अमेरिकी ढोंग-

किंतु इस बार हिंसक विरोध प्रदर्शन, पुलिस की बर्बरता और राष्ट्रपति की धमकी का गवाह बनने वाला देश स्वयं संयुक्त राज्य अमेरिका है। ताज्जुब ये है कि पुलिसकर्मियों ने समझा-बुझा कर परिस्थिति संभालने के बजाय प्रदर्शनकारियों पर सबसे मारक हथियारों के प्रयोग की धमकी दे डाली। ऐसा करके उन्होंने अफ्रीकी अमेरिकियों के दशकों लंबे चले बराबरी के संघर्ष ही नहीं बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों अब्राहम लिंकन, जॉन एफ. कैनेडी तथा महात्मा गांधी के अनुयायी व अश्वेत नेता डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर की शहादत का भी अपमान किया है।

यह विरोध प्रदर्शन अमेरिका के लगभग सभी बड़े शहरों में फैल चुका है जो अप्रैल 1968 में डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों की याद दिलाते हैं। विश्लेषक बताते है कि अमेरिका में हो रहे ये विरोध प्रदर्शन सिर्फ अश्वेत नागरिक की हत्या का कारण नहीं है बल्कि ‘दंगों’ के माध्यम से जो हालात सामने आए हैं वह हज़ारों अमेरिकियों का गुस्सा है जो एक ही समय में कई बाधाओं से लड़ रहे हैं।

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इतिहास के झरोखे-

वर्ष 1968 आधुनिक अमेरिकी इतिहास में सबसे अधिक उतार-चढाव वाले वर्षों में से एक था। उल्लेखनीय है कि वियतनाम युद्ध के खिलाफ अमेरिका में विरोध-प्रदर्शन पहले से ही हो रहा था कि 4 अप्रैल, 1968 को टेनेसी राज्य के मेम्फिस के एक मोटल (एक प्रकार का होटल) में डॉ. मार्टिन लूथर किंग की हत्या कर दी गई। वहीं दो महीने के बाद राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रॉबर्ट एफ. केनेडी की लॉस एंजिल्स में गोली मारकर हत्या कर दी गई।

डॉ. किंग की हत्या के कारण अमेरिकी शहरों में हिंसक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया जिसे ‘पवित्र सप्ताह विद्रोह’कहा जाता है।यह हिंसक विद्रोह संयुक्त राज्य अमेरिका के वाशिंगटन डीसी, शिकागो, बाल्टीमोर, कंसास सिटी सहित सभी जगहों पर अधिकतर अश्वेत युवाओं द्वारा किया गया जिसने अमेरिकी गृहयुद्ध की याद को ताज़ा किया था।

1968 और 2020 का राजनैतिक कनेक्शन-

कोविड-19 महामारी से अश्वेत समुदाय को काफी दिक्कत हुई जिसमें अब तक 100,000 से अधिक अमेरिकी नागरिकों की मौत हो चुकी है। जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु से पूर्व संयुक्त राज्य अमेरिका पहले से ही बड़े पैमाने पर आर्थिक एवं स्वास्थ्य संबंधी संकटों से जूझ रहा था। वर्ष 1929 की महामंदी के बाद से अमेरिका में सबसे बड़ी आर्थिक मंदी देखी जा रही है। अश्वेत नागरिक फ्लॉयड की मौत ने अमेरिकी जनता के गुस्से के लिये एक चिंगारी का काम किया तो वहीं राष्ट्रपति ट्रंप की भड़काऊ भाषा ने इन प्रदर्शनों को हिंसक रूप दे दिया। अमेरिकी इतिहास में वर्ष 1968 और वर्ष 2020 के बीच काफी समानताएँ हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका ने अतीत में कई बार नस्लीय हिंसा देखी है जिनमें अधिकतर विरोध प्रदर्शन स्थानीय स्तर के ही होते थे। किंतु वर्तमान में हो रहे विरोध प्रदर्शन वर्ष 1968 के विरोध प्रदर्शनों जैसे हैं। जिसे न्यू यॉर्कर के संपादक ‘डेविड रेमनिक’ ने इसे ‘एक अमेरिकी विद्रोह’ कहा था। इस विद्रोह का कारण अमूर्त रूप से विभाजित देश है जो एक घातक संक्रमण (कोविद-19), बेरोज़गारी और बिगड़ते नस्ल संबंधों की ट्रिपल चुनौतियों का सामना करने के लिये संघर्ष कर रहा है।

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'ट्रम्प की नई चुनावी चाल-

वर्ष 1968 में अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन ने विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिये नेशनल गार्ड की तैनाती की था किंतु उन्होंने डॉ. लूथर किंग की हत्या के अगले दिन अमेरिकी काॅन्ग्रेस को लिखे एक पत्र में कहा था कि निष्पक्ष नागरिक अधिकारों के हीरो (डॉ. मार्टिन लूथर किंग) की स्थायी माँगों में से एक ‘फेयर हाउसिंग एक्ट’ पारित करना था।परिणामतः पाँच दिनों के भीतर वर्ष 1968 का नागरिक अधिकार अधिनियम, शीर्षक VIII, जिसे ‘फेयर हाउसिंग एक्ट’ के रूप में जाना जाता है, को प्रतिनिधि सभा ने एक बड़े अंतर से पारित किया।

वहीं वर्तमान में जिस तरह से राष्ट्रपति ट्रंप स्थिति को संभाल रहे हैं उससे लगता है कि उनकी तीव्र प्रतिक्रिया सैन्यवादी है जिसने अब तक प्रदर्शनकारियों को उकसाया है और अमेरिकी समाज में विभाजन को गहरा किया है। जानकर बताते हैं कि आगामी राष्ट्रपति पद के लिये होने वाले चुनाव के कारण राष्ट्रपति ट्रंप स्पष्ट रूप से पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की बनाई रेखा का अनुसरण कर रहे हैं। वर्ष 1968 में हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद रिचर्ड निक्सन ने अपने चुनावी अभियान में 'लॉ एंड ऑर्डर' का आह्वान किया। यह एक नस्लीय संदेश था जिसने अश्वेत नागरिकों द्वारा की गई हिंसा के समक्ष श्वेत नागरिकों के वोटों के ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया।

‘लॉ एंड ऑर्डर’ अभियान ने निक्सन के राजनीतिक भाग्य में एक नई जान फूंक दी, जिसे लिंडन बी. जॉनसन ने कभी ‘जीर्ण प्रचारक’ कहा था। निक्सन ने उस वर्ष राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता था।इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि आगामी चुनाव में ट्रंप फिर से अर्थव्यवस्था पर दाँव नहीं लगा सकते क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अत्यंत नाज़ुक स्थिति में है। बढ़ती हिंसा और नागरिक अशांति के बीच यह स्पष्ट है कि ट्रंप का चुनावी अभियान निक्सन के चुनावी अभियान की ही एक धुरी है।

क्या जीतेंगे ट्रम्प-

ये पहला मौका नहीं है जब अमेरिका में हजारों की संख्या में लोग सड़क पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं और हालात यहां तक खराब हो चुके हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को बंकर में छिपना पड़ा हो। अमेरिका में बीते 60 सालों से नस्लीय हिंसा हो रही है। यहां काले-गोरे का भेद अब तक खत्म नहीं हो सका है। हर बार जब इस तरह की चीजें होती हैं तो अमेरिका की सड़कों पर ताड़व देखने को मिलता है उसके बाद भी बीते 60 सालों में इस पर रोक नहीं लग पाई है।

क्योंकि व्हाइट हाउस के प्रवक्ता ने 'कानून एवं व्यवस्था' बनाए रखने का आह्वान किया किंतु कुछ ही घंटों के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सेना का उपयोग करने की धमकी देते हुए कहा कि ‘मैं आपकी कानून एवं व्यवस्था का राष्ट्रपति हूँ’। किंतु वर्तमान एवं अतीत की स्थिति में एक बड़ा अंतर है। जब निक्सन ने प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाते हुए अभियान शुरू किया था तो वह राष्ट्रपति नहीं थे। किंतु वर्तमान में ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति हैं और अमेरिकी शहर उनकी निगरानी में हिंसक प्रदर्शनों के गवाह बन रहे हैं। अब देखना ये है कि क्या वर्तमान हालातों से निपटकर ट्रम्प दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बन पाएंगे।

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