×

स्‍वागत ऋतुराज बंसत का

बागों में बौराये आमों की मंजरी की भीनी-भीनी सुगंध, कोयल की कूक, फूलों की अलमस्त खुशबू, कलियों की चटक वृक्ष- लताओं में उन्माद, पक्षियों में कलरव ऊपर से मदमस्त बयार का मंद-मंद झोंका कि मन बरबस ही उल्लासित हो कर उन्मादित हो जाए।

Roshni Khan
Published on: 25 Jan 2020 10:31 AM IST
स्‍वागत ऋतुराज बंसत का
X

दुर्गेश पार्थ सारथी, अमृतसर

बागों में बौराये आमों की मंजरी की भीनी-भीनी सुगंध, कोयल की कूक, फूलों की अलमस्त खुशबू, कलियों की चटक वृक्ष- लताओं में उन्माद, पक्षियों में कलरव ऊपर से मदमस्त बयार का मंद-मंद झोंका कि मन बरबस ही उल्लासित हो कर उन्मादित हो जाए।

जी हां! यही तो है पहचान उस ऋतु की पहचान जिसको हमारे भारीय समाज में नाम मिला है 'बसंत' का।

ये भी पढ़ें:चल रही ताबड़तोड़ गोलियां: आतंकियों को सेना ने घेरा, 26 जनवरी से पहले बड़ी कार्रवाई

ऋतुराज, मधुमास, मदनमास आदि नामों से विभूषित इस अप्रतिम ऋतु का आगमन जल, थल, नभ सर्वत्र ऐसी छटाएं विखेरता है कि जीव-जंतु को कौन कहे पेड़ पौधे और पत्थर भी खुशी से झूम उठते हैं। हलांकि यह मधुमाति ऋतु चैत्र वैषाख मास में आती है, मगर इसके आगमन का आभास माघ मास से ही शुरू होता है और इसी मास के शुक्लपंचमी को इसके स्वागतार्थ बसंतोत्सव के रूप में बसंत पंचमी का पर्व मनाया जाता है।

बसंत भारीय जनमानस में आनंद, उल्लास और उत्कर्स का पर्याय है। कुसुमित पल्लवित जीवन का प्रतीक भी है। प्राचनी काल से ही इसे मदनोत्सव के रूप में मनाए जाने की परंपरा रही है। इसे काम देव का मित्र भी माना जाता है। इस ऋतु में प्रकृति धरती पर अपनी सीम, अपरिमित प्यार उड़ेल देती है। जहां खेत, बागों, बनों में सरसों, अलसी, मटर, कचनार, गुड़हल, गुलाब, सेमर, पलास आदि अपने विविध रंगों व गंधों से मदहोशी का आलम पैदा करते हुए धरती का शृंगार करते हैं, वहीं मानव मन उमंग-तरंग, राग-रंग से अभिभूत हो उठता है। युवतियों की काया की कमनीयता तथा कपोलों की अकल्पनीय कांति भी निखर उठती है। खंजन पक्षी के नेत्र सदृष्य बांकी चितवन और गुलाब की पंखुड़ियों वाले अधरों की मुस्कान देखते ही बनती है।

धरती का कोना-कोना कुस्‍कराता है बसंत में

हेमंत और शिशिर ऋतुओं द्वारा पेड़ पौधें के फूल-पत्ते झाड़ लिए जाते हैं तब बसंत आ कर उनपर नई कपोलें व कलियां निखार देता है, सारी की सारी बीरानगी-सूनापन-सूखापन सरसता में बदल जाता है। धरती का कण-कण, कोना-कोना, बासंती धानी चुनर ओढ़कर मुस्कराने लगता है। यह पर्व अर्थात बसंतोत्सव प्रकृति से जुड़ा होने के साथ-साथ ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि में देश प्रेम, समाज तथा मानवता व प्रकृति की रक्षा की भी प्रेरणा देता है और हमें जागृत करता है- सुजलाम, सुफलाम सस्यष्यामलाम के प्रति। तभी तो एक भारतीय बीर सेनानी कहता है- 'मेरा रंग दे बसंती चोला'।

बसंत अनादि काल से भारीय जीवन षैली में रचा-बसा है। आयुर्वेद के आयार्यों ने भी स्वीकार किया है कि इस ऋतु में षरीर में नवनी रक्त का संचार होता है। इसकी विशिष्‍टता के कारण ही हर समय काल में कवियों-लेखकों ने इसको प्रेम-प्यार, विरह-विछोह, टीस, मिलन उत्साह, उल्लास और उत्कर्स जैसी मानवीय संवेदनाओं के रूप में निरूपित किया है।

ये भी पढ़ें:STF ने किया बड़ी लूट का पर्दाफाश: 15 साल में राजस्‍व को लगाया करोड़ों का चूना

महाकवि काली दास के ऋतुसंहार में बसंत का उल्‍लेख

स्वयं महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में इसका वर्णन करते हुए लिखते हैं -देखो प्यारी, बसंत के ओ ही सब वृक्ष फूलों से लद गए हैं, जल में कमल खिल गए हैं, स्त्रियां मतवाली हो गई है, वायु में सुगंध आने लगी है, सांझे सुहानी हो चली हैं और दिन लुभावने हो गए हैं। सचमुच सुंदर बसंत में सकुछ ही सुहाना लगने लगता है-

द्रमा सपुष्‍पा: सलिलं सपद्मं, स्त्रियः सकामाः पवनः सुगंधिः।

सुखाः प्रदोसा दिवमाष्च रम्याः सर्व प्रिये चारूतरं संते।।

यही नहीं अपितु कविकुल शिरोमणि ने आगे ने आगे युवतियों पर बसंत के प्रभाव की भी बखूबी परख है कि बसंत में कामदेव ने नई सुंदरी के अंग-अंग में प्रेवश कर लिया है। कामदेव ने सुंदरी की मदिरा सी अलसायी आंखों में चंचलता बनकर कपोलों में पीलापन बनकर, कूचों में कठोरता बनकर, कमर में पतलापन बनकर, जांघों में पीनता या पुस्टा बनकर प्रवेश कर लिया है, तभी तो कविवर घनानंद कहते हैं-

वैसे की निकाई सेाई सुखदायी तामें तरुणाई उलह, मदन मयंत है।

षोकित सुजान, घन आनंद, सुहाग करै, तेरेतन, वन सदा बसत बसंत है।।

रसिक कवि विहारी को भी भाया बसंत

ऋतुराज बसंत के आगमन से धरा पर चहुंदिष मनाहारी छटा विखेर कर सबको मदमस्त करदेती है। ऐसे में रसिक कवि विहारी लिखते हैं-

बेलिन बसंत के आगमन से धरा पर चहुंदिश मनोहारी छटा विखेर कर सको मदमस्त कर देती है। ऐसे में रसिक कवि विहारी लिखते हैं--

बेलिन बसंत ज्यों नवेलिन बसंत, बन गान, रंग रागन बसंत

कुंजन बसंत दिग्पुंजन बसंत, अभिगुंजन बसंत, चहुंओरु बसंत है।

छैलन बसंत, अरु फैलन बसंत, वंग सैलन संत, बहु गैलन बसंत

रसिक बिहारी नैन, सैनन में बैनन में जिते अवलोको तितै बरसे बसंत है।।

ये भी पढ़ें:National Voters’ Day: जागरूकता फैलाने और एक वोट की ताकत समझाने का दिन

प्रकृति का अपरिमित प्रेम है बसंत

बसंत में प्राकृतिक छंटा अवर्णनीय व अतुलनिय होती है। नर-नारियों में प्रेमांकुर स्फुटित होने लगता है। कामदेव के नाजुक वाण-तरकस से निकलने लगते हैं। ऐसे रसभरे मौसम में प्रियतमाएं अपने प्रियतम को अबीर गुलाल मलती हैं। इसे कवि भूषण वर्णित करते हुए कुछ इस तरह लिखते हैं-

आ गए दिन बसंत के नी के सुखदायक सबही के,

भासन लगे रूप रासन पै सोसन भूसन ती के।

रंग गए जरद पटंबर अंबर भूमंडल सबही के,

मलै अबीर अगराजा अंबर अपने -अपने पी के।।

चूंकि बसंत प्रेम-प्यार, मिलने और उछाह का पर्व है सो प्रियतमा अपने प्रियतम का इंतजार कर हरी है। आखिर बिरहिण की लालसा पूरी हो हैं। उसका परदेशी घर वापस आ ही जाता है-

परदेशी गृह आए, भयी बिरहन सुख्तंत अन भावन मन भावन भये येरी हमें बसंत।

बिरहिन लगी बसंत मनावन, गृह आये मन भावन,

लागी सजन अभूसन, बसन सुगंध बसावन मिलके पिया आज भयी पूरी, अबरंग धूर उड़ावन।।

ऋतुराज का साम्राज्य मिलन का महा पर्व है; बांसंती मन बासंती रातें, बासंती बातें, गोरी के रसीले गात पर घात करने के लिए प्रियतम को बाध्य कर देती है।

झूठि ही रुठि रहे छतियां छुवे ओंठ न ऐठि छुआववति दांते,

केलि इकंत, नवेली के कंत हवे संत बितौत बसंत की रातें।।

मधु ऋतु बसंत का मस्ती भरा माहौल बडे़ ही सुख-विलास का समय है। आनंद का समय बड़र मुष्किल से आता है। अतः इसका सगत पलक पावड़े बिछा कर करना चाहिए।

पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के शब्दों में -

वासंती निशा थी;

विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़

किसी दूर देश में था पवन

जिसे कहते हैं मलयानिल।

आई याद बिछुड़ने से मिलन की वह मधुर बात,

आई याद चांदनी की धुली हुई आधी रात,

आई याद कांता की कम्पित कमनीय गात,

ये भी पढ़ें:ब्लास्ट से दहली मुंबई: मचा हड़कंप, रेस्क्यू में लगा पुलिस और दमकल विभाग

महाकवि विद्यापति कहते हैं-

मलय पवन बह, बसंत विजय कह, भ्रमर करई रोल, परिमल नहि ओल।

ऋतुपति रंग हेला, हृदय रभस मेला। अनंक मंगल मेलि, कामिनि करथु केलि।

तरुन तरुनि संड्गे, रहनि खपनि रंड्गे।

पलाश, गुलाब, अनार और कचनार फूल रहे हैं। खेतों में पीली सरसों भी नहीं फूली समा रही है। बन-उपवन में कोयलें कूक रही हैं। चारों ओर काम के नगाड़े बज रहे हैं किंतु प्रियतम परदेश में बसे हैं। दुष्ट बसंत सिर पर आ पहुंचा है। अब बेचारी विरहिणी किसका सहारा ले।

Roshni Khan

Roshni Khan

Next Story