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न जानें कब टूटेगी सालों से चल आ रही परम्परा, कब खत्म होगी जातिवाद राजनीति
तीन दशक से जातिवाद में लिपटी रही यूपी की राजनीति एक बार फिर करवट बदल रही है। पिछले दो लोकसभा चुनाव व एक विधानसभा चुनाव में जातिवाद की जंजीरों से पीछा छुड़ा चुका उत्तर प्रदेश फिर से उसी रास्ते पर जाता दिख रहा है।
श्रीधर अग्निहोत्री
लखनऊ: पिछले तीन दशक से जातिवाद में लिपटी रही यूपी की राजनीति एक बार फिर करवट बदल रही है। पिछले दो लोकसभा चुनाव व एक विधानसभा चुनाव में जातिवाद की जंजीरों से पीछा छुड़ा चुका उत्तर प्रदेश फिर से उसी रास्ते पर जाता दिख रहा है। साफ होने लगा है कि अगला विधानसभा चुनाव फिर से जातिवाद के आधार पर ही होने जा रहा है। यह बात अलग है कि अलग-अलग समय पर इसका उपयोग अलग-अलग तरह से होता रहा है। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह खेल अब मैदान के बजाय मंच पर परदे के पीछे से खेला जा रहा है।
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अतीत पर गौर करें तो उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने जातीय रैलियों व सम्मेलनों पर रोक लगाकर सियासत व जातिवाद के गठजोड़ को तोड़ने की कोशिश जरूर की थी। पर प्रदेश के बदले माहौल को देखकर नहीं लगता कि उत्तर प्रदेश कभी इससे मुक्त हो पाएगा।
यूपी में जातिवाद की राजनीति कभी भी खत्म नहीं होगी
राजनीतिक विश्लेषकों का दावा है कि यूपी में जातिवाद की राजनीति कभी भी खत्म नहीं होगी। भले ही कितनी भी कोशिशें कर ली जाएं। उनका कहना है कि समय बीतने के साथ इसके उपयोग के तरीके और नेता जरूर बदले लेकिन जाति का राजनीतिक रूप से इस्तेमाल जारी रहा।
राजनेताओं व राजनीति पर नजर डालें तो उक्त निष्कर्ष शत-प्रतिशत कसौटी पर खरे उतरते दिख रहे हैं
आज के राजनेताओं व राजनीति पर नजर डालें तो उक्त निष्कर्ष शत-प्रतिशत कसौटी पर खरे उतरते दिख रहे हैं। पार्टी कोई भी हो और नेता कोई भी हो। सभी नेता अपनी तरह से जाति के तत्व को अपनी ताकत बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। फिर चाहे वह सत्ता में हो अथवा विपक्ष में।
परम्परा को उनके पुत्र राजीव गांधी और सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी ने बढ़ाया
जातिवादी राजनीति की शुरूआत सबसे पहले कांग्रेस के जमाने में हुई जब उसकी केन्द्र के अलावा राज्यों में सरकारे हुआ करती थी। पं नेहरू के बाद उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने ब्राह्मण, दलित व मुस्लिम गठजोड़ के सहारे ही लंबे समय तक इस देश में राज किया। इसके बाद इस परम्परा को उनके पुत्र राजीव गांधी और सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी ने बढ़ाया।
cm-yogi (social media)
जातिवादी राजनीति का काम वर्ष 1986 तक यह पार्टियां परदे के पीछे करती रही
जातिवादी राजनीति का काम वर्ष 1986 तक यह पार्टियां परदे के पीछे करती रही लेकिन 1990 में मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद जातिवाद की राजनीति ने अपनी गति और तेज कर दी। इसकी अगुवाकार पार्टियां जनता दल समाजवादी पार्टी और बसपा को कहा गया पर कांग्रेस और भाजपा भी इससे अछूती ही रही।
उत्तर प्रदेश की राजनीति के अतीत को देखे तो पता चलता है कि बसपा संस्थापक स्व कांशीराम ने बामसेफ के जरिये दलित उभार की कोशिश की थी। पर, अकले दलित उभार के राजनीतिक इस्तेमाल के प्रयोग के बावजूद जब बसपा का उत्तर प्रदेश विधानसभा में सीटों का आंकड़ा 60-65 से ऊपर नहीं पहुंच पाया तो उन्होंने कांग्रेस की राह पर आगे बढ़ते हुए 1993 के चुनाव में पहली बार कुछ ब्राह्मणों को भी उम्मीदवार बनाया।
स्व. कांशीराम के इस प्रयोग को मायावती ने आगे बढ़ाया
स्व. कांशीराम के इस प्रयोग को मायावती ने आगे बढ़ाया और 2007 के चुनाव से पहले उन्होंने बसपा के बैनर तले जातियों के सम्मेलन शुरू किए। इससे पहले राजनीतिक दल पार्टियों के नाम पर तो जातियों की जुटान करते थे लेकिन जातियों के नाम पर राजनीतिक जुटान का कोई उदाहरण नहीं याद आता। इसकी शुरुआत बसपा व मायावती के खाते में ही जाती है।
सिर्फ कांशीराम ही नहीं, राममंदिर आंदोलन के कारण 1990 में जब जनता दल व भाजपा का गठजोड़ टूटा और जनता दल में नेतृत्व का संघर्ष शुरू हुआ तो मुलायम सिंह यादव ने भी अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाने के लिए मुस्लिम हितैषी के साथ-साथ यादव नेता के रंग को भी अपने ऊपर चढ़ाने की कोशिश की। वर्ष 1993 में अलग-अलग जातियों के समीकरण से मुलायम व कांशीराम की विधानसभा चुनाव मैदान में सफलता हासिल करना और मिलकर यूपी की सत्ता पर कब्जा करना भी जातीय राजनीति की ताकत की पुष्टि करता है।
अखिलेश यादव ब्राह्मण, यादव व मुस्लिम के गठजोड़ को मजबूत बनाने की कोशिश में जुटे हैं
समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर कांटे से कांटे निकालने की रणनीति पर चलते हुए 2012 में ब्राह्मण, यादव व मुस्लिम वोटों के गठजोड़ को आगे बढ़ाया। जिससे उसे भी बहुमत की सत्ता मिल गई। अब यूपी में एक बार फिर विधानसभा चुनाव के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने के लिए अखिलेश यादव ब्राह्मण, यादव व मुस्लिम के गठजोड़ को मजबूत बनाने की कोशिश में जुटे हैं।
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पिछले लोकसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी ने जातीय सम्मेलनों का सहारा लिया उसे देखकर प्रदेष की जनता में बेहद हैरानी हुई। भाजपा ने तक लोधी किसान भुर्जी समाज निषाद, कश्यप, बिंद (मल्लाह) समाज के सम्मेलनों के अलावा मोदनवाल (हलवाई) जाट समाज, कुर्मी, पटेल, वर्मा, गंगवार गिरी गोस्वामी चौरसिया समाज सम्मेलन के सम्मेलन कराए गए। इसके अलावा तेली, साहू समाज, नाई, राठौर, विश्वकर्मा समाज सहित बघेल-पाल समाज के सम्मेलनों में इस जाति को लोगों को भाजपा में जोड़ने का आहवान किया गया।
अब विपक्ष ने भी कहना शुरू कर दिया है कि सत्ताधारी भाजपा बात भले ही विकास की करती है लेकिन जातिवाद और साम्प्रदायिकता की संकीर्ण राजनीति अपनाने में वह सदैव आगे रहती है।
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