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कौन थे गोकुल सिंह जाट, जिन्होंने गुरु गोविंद सिंह से भी पहले लड़ी थी हिंदुओं की लड़ाई
हिन्दू अस्मिता व आन-बान के लिए औरंगजेब से लडऩे वाले गोकुल सिंह जाट के बलिदान दिवस को तब से आज तक देश का एक बड़ा वर्ग हिन्दू क्रांति दिवस के तौर पर मनाता आ रहा है।
अखिलेश तिवारी
लखनऊ: औरंगजेब ने कहा - जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो. रसूल के बताये रास्ते पर चलो. बोलो क्या कहते हो इस्लाम या मौत?
रस्सियों में जकड़े गोकुल सिंह जाट ने कहा - बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना.
सुना दिया टुकड़े -टुकड़े करने का फरमान
गोकुल जाट के इस जवाब से भडक़े औरंगजेब ने सरेआम गोकुल के टुकड़े -टुकड़े करने का फरमान सुना दिया। वह दिन वर्ष 1670 का पहला दिन यानी पहली जनवरी का था। हिन्दू अस्मिता व आन-बान के लिए औरंगजेब से लडऩे वाले गोकुल सिंह जाट के बलिदान दिवस को तब से आज तक देश का एक बड़ा वर्ग हिन्दू क्रांति दिवस के तौर पर मनाता आ रहा है।
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हिन्दू क्रांति दिवस मनाने वालों को नहीं मिला समर्थन
आंगल नव वर्ष के पहले दिन को उत्सव की तरह मनाने की रवायत भारत में पिछले दो तीन दशक के दौरान ही मजबूत हुई है लेकिन हिन्दू क्रांति दिवस मनाने वालों को बाजार का समर्थन नहीं मिला। गोकुल सिंह जाट का फोटो नहीं था तो ग्रीटिंग कार्ड नहीं बने। बलिदान दिवस था इसलिए उत्सव का माहौल नहीं बन पाया और अंग्रेजी नववर्ष का बाजार लोगों पर हावी होता चला गया। हिन्दू स्वाभिमान रक्षक गोकुल सिंह जाट हैं जो मथुरा के तिलपत गांव के सरदार हुआ करते थे। हिन्दू स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब की सत्ता को चुनौती दी और बलिदान देकर अमर हो गए।
सिख धर्म के नवें गुरु तेगबहादुर के बलिदान से पहले गोकुल सिंह जाट ने औरंगजेब के साम्राज्य के खिलाफ बगावत की थी। औरंगजेब की मुस्लिम कट्टरता और हिन्दू विरोधी मानसिकता के खिलाफ गोकुल सिंह ने 1660 के आस-पास ही विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना के बीच तिलपत में लड़ाई हुई। इस लड़ाई में जाटों की विजय हुई। लड़ाई की वजह बना था मुगल शासन का इस्लाम को बढ़ावा देने वाला नया कानून।
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किसानों पर तमाम नए कर थोप दिए
जिसमें हिन्दू धर्मावलंबियों, किसानों पर मुगल शासन ने तमाम नए कर थोप दिए थे जबकि इस्लाम ग्रहण करने वालों को इनाम दिया जाता था। इसके विरोध में गोकुल सिंह जाट ने किसानों को संगठित किया और अन्यायपूर्ण कर चुकाने से मना कर दिया। औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जजिया कर भी थोप रखा था।
डॉ दशरथ शर्मा के संपादन में तैयार पुस्तक दलपत विलास के लेखक दलपत सिंह ने बताया है कि असहिष्णु, धार्मिक, नीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ। आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे। शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया और विद्रोह का झंडा फहराया। इसके बाद वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह और गोकुलसिंह ने संभाला।
UP के जाट को मुगल सम्राट की हिन्दू विरोधी नीतियों का होने लगा था आभास
इतिहासकारों का कहना है कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट समुदाय को मुगल सम्राट की हिन्दू विरोधी नीतियों का आभास होने लगा था। मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता का नेता तब गोकु ल सिंह बनने लगे थे और उनका तिलपत गांव मुगल शासन के विरोध के केंद्र में था। गोकुल सिंह की वीरता के आगे जब कोई भी मुगल सेनापति नहीं टिक पाया तो औरंगजेब को खुद एक बड़ी सेना लेकर गोकुल के खिलाफ अभियान का नेतृत्व करना पड़ा।
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इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं...
- मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं। दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारण, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है। वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। सन 1678 के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला. अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष, गोकुलसिंह के पास एक नई छावनी स्थापित की थी। सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था। गोकुलसिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया. मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए. बस संघर्ष शुरू हो गया।
गुरुकुल और मन्दिर गिराने का फरमान
इतिहासकारों के अनुसार विद्रोह को दबाने के लिए औरंगजेब का नया फरमान 9 अप्रैल 1669 आया जिसमें काफिरों के शिक्षण संस्थान यानी गुरुकुल और मन्दिर गिराने को कहा गया। ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया। कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गई। गोकुल सिंह पर लिखी पुस्तकों में बताया गया है कि मई महीने में अब्दुन्नवी ने सिहोरा गांव को घेरा। गोकुल सिंह भी इसके पास थे। वह सामने जा पहुंचे।
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मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी
मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी. फौजदार गोली प्रहार से मारा गया। बचे खुचे मुग़ल भाग गए। गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद की छावनी को लूटकर आग लगा दी। इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं। इसके बाद पाँच माह तक भयंकर युद्ध होते रहे। मुग़लों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए. क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह का वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ गया। अंत में सितंबर मास में, बिल्कुल निराश होकर, शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा कि-
1. बादशाह उनको क्षमादान देने के लिए तैयार हैं।
2. वे लूटा हुआ सभी सामन लौटा दें।
3. वचन दें कि भविष्य में विद्रोह नहीं करेंगे।
गोकुलसिंह ने पूछा मेरा अपराध क्या है, जो मैं बादशाह से क्षमा मांगूगा ? तुम्हारे बादशाह को मुझसे क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि उसने अकारण ही मेरे धर्म का बहुत अपमान किया है, बहुत हानि की है। दूसरे उसके क्षमा दान और मिन्नत का भरोसा इस संसार में कौन करता है?
तिलपत युद्ध दिसंबर 1669
दिसंबर 1669 के अन्तिम सप्ताह में तिलपत से 20 मील दूर, गोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना किया। जाटों ने मुग़ल सेना पर एक दृढ़ निश्चय और भयंकर क्रोध से आक्रमण किया। इसके बारे में एक इतिहासकार का कहना है कि जाटों का आक्रमण इतना प्रबल था कि शाही सेना के पैर उखड़ ही गए थे, परन्तु तभी हसन अली खाँ के नेतृत्व में एक नई ताजादम मुग़ल सेना आ गयी। इस सेना ने गोकुलसिंह की विजय को पराजय में बदल दिया। बादशाह आलमगीर की इज्जत बच गयी।
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जाटों के पैर तो उखड़ गए फिर भी अपने घरों को नहीं भागे. उनका गंतव्य बनी तिलपत की गढ़ी जो युद्ध क्षेत्र से बीस मील दूर थी। तीसरे दिन से यहाँ भी भीषण युद्ध छिड़ गया और तीन दिन तक चलता रहा। भारी तोपों के बीच तिलपत की गढ़ी भी इसके आगे टिक नहीं सकी और उसका पतन हो गया। इसके बाद गोकुल सिंह व उनके ताऊ उदयसिंह का पूरा परिवार और सात हजार साथियों को पकडक़र औरंगजेब के सामने लाया गया।
जहां औरंगजेब ने इस्लाम कुबूल करने का प्रस्ताव रखा। इसके बाद पहली जनवरी को गोकुलसिंह और उदयसिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गया। हजारों लोगों के सामने शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए लेकिन हिन्दू रक्षा के लिए गोकुल सिंह अमर हो गए। हिन्दू क्रांति दिवस के प्रतीक बन गए और अब तक हजारों -लाखों हिन्दुओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।