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'बैल'..

वह ऐसा ही था। सुबह से शाम तक काम में लगा रहता। न किसी के पास बैठता, न अधिक बोलता... यहाँ तक कि गाँव में होने वाले किसी राग-रंग में भी भाग नहीं लेता।

suman
Published on: 13 April 2020 5:26 PM GMT
बैल..
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रूपसिंह चंदेल

वह ऐसा ही था। सुबह से शाम तक काम में लगा रहता। न किसी के पास बैठता, न अधिक बोलता... यहाँ तक कि गाँव में होने वाले किसी राग-रंग में भी भाग नहीं लेता। होली में समूचा गाँव फाग के रंग में रंगा होता, लेकिन वह अपनी चैपाल में पड़ा होता या खेतों में काम कर रहा होता। उसके संगी-साथी टोकते, ‘बिसराम किसके लिए खट रहा है तू... भाई-भौजाई-भतीजों के लिए... दिन रात एक किए रहता है... जवानी ख्वार किए दे रहा है।’

वह उनकी ओर एक उचटती दृष्टि डालता और कोई उत्तर नहीं देता।

‘बिसराम जैसा लक्ष्मण भाई भगवान सबको दे।’ गाँव के कुछ लोग कहते, ‘अपने रास्ते आना-जाना... किसी लड़की की ओर नज़र उठाकर भी न देखना...’

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पंडित बृजमोहन मिश्र जिन्हें गाँव वाले बृजमोहन मिसिर कहते और जो गाँव में दूसरों के घर तोड़ने-फोड़ने के लिए प्रसिद्ध थे, प्रायः उसे छेड़ते, ‘तू रँड़ुवा ही मर जाएगा रे बिसराम... नाहक जिन्दगी अकारथ किए दे रहा है।’

बिसराम उनकी बात इस कान से सुनता, दूसरे कान से निकालता और अपने रास्ते चला जाता। मिसिर दाँत भींच लेते।

एक दिन मिसिर ने खेतों की ओर जाते हुए उसे घेर लिया, ‘बिसराम, तूने हाई स्कूल तक पढ़ाई की... नौकरी करने के बजाए तू भाई-भाभी की गुलामी कर रहा है और उन्हें तेरे विवाह की परवाह ही नहीं या तू...?’

पहली बार बिसराम ने पलटकर पूछा, ‘चाचा ‘तू’ से आपका मतलब?’

‘तू... तू... से मतलब तू समझ... अट्ठाइस साल की उमिर हुई... अब कौन करेगा तुझसे शादी! तू मूरख है... समझता क्यों नहीं कि तेरा भाई नहीं चाहता कि तेरा विवाह हो। उसने तो तभी शादी कर ली थी जब वह चौबीस का था... उसने कभी भी तुझसे तेरी शादी की चर्चा की? जब भी कोई तेरे विवाह के लिए आया तुझे मिलवाया उससे? पता नहीं क्या कह देता रहा कि रिश्ते वाले तुझसे बिना मिले पलटकर दरवाजे नहीं आए और अब वह कहते घूम रहा है कि शादी में तेरी रुचि ही नहीं है। तू निपट मूरख है... समझ यह सब... तेरी शादी होगी तो बच्चे भी होंगे... कभी न कभी पुश्तैनी जमीन बँटेगी... शादी नहीं होगी तो सब कुछ उसका... उसके बच्चों का...’

उसने अन्यमनस्क भाव से बृजमोहन मिसिर की बात सुनी थी। उत्तर नहीं दिया था।

‘तू सच ही मूरख है... कोल्हू का बैल है... दस जमात पढ़ाई की... सरकारी नौकरी मिल जाती... बाबू बना घूमता। सैकड़ों लड़की वाले तेरे आगे-पीछे घूमते... लेकिन तेरे भाई सुखराम ने ऐसा नहीं चाहा। सारा गाँव कहता है कि तब उसकी गुलामी कौन करता! उससे भी बड़ी बात... जायदाद...’

बिसराम चुप ही रहा था। उसके बाद वह बृजमोहन मिसिर के सामने आने से बचने लगा था।

लेकिन एक दिन जब किसना ने भी कुछ वैसा ही कहा तब वह अपने को रोक नहीं पाया। गाँव में किसना एकमात्र उसका अच्छा मित्र था। दोनों ने साथ ही पहली से हाई स्कूल तक की पढ़ाई की थी। किसना ने सरकारी नौकरी के लिए कई वर्ष हाथ-पैर मारे और असफल होकर खेती की ओर रुख किया था। लेकिन उसने पहले ही सोच लिया था कि वह नौकरी नहीं खेती करेगा। उसके पिता बड़ा कर्ज दोनों भाइयों के सिर छोड़ गए थे, जो उन्होंने अपनी दो बेटियों के विवाह में दहेज देने के लिए लिया था।

‘हाई स्कूल पास को यदि नौकरी मिली भी तो उससे अपना खर्च पूरा करने वाला वेतन भी नहीं मिलने वाला। छोटी नौकरी से वह पिता द्वारा लिया गया कर्ज चुकता नहीं कर पाएगा।’ उसने सोचा था, ‘यदि भाई के साथ खेतों में मिलकर काम करूँगा तो बिगड़े हालात जल्दी ही सुधारे जा सकते हैं।’

और उसने भाई के साथ खेतों का काम सँभाल लिया था। हालात सुधरने लगे थे।

‘किसना’ वह बोला था, ‘तुम भी पंडित बृजमोहन की भाषा बोलने लगे।’

‘मुझे गलत मत समझो बिसराम... लेकिन इतना ध्यान रखो कि हर बात का समय होता है। यह मत भूलो कि तुम गाँव में रहते हो... जितने मुँह... उतनी ही बातें। शहर की बात और है... लेकिन...’

बिसराम चुप रहा तो किसना ने आगे कुछ नहीं कहा था।

उस दिन बिसराम खेतों में खाद फेंक रहा था। बैलगाड़ी खेत के मेड़ के पास खड़ी थी। बृजमोहन मिसिर कब बैलगाड़ी के पास आ खड़े हुए उसने नहीं देखा। जब खेत में टोकरा पलटकर वह लौटा, गाड़ी के पास मिसिर को मुस्कराते पाया। उसने पाँयलगी की तो आसीसते बृजमोहन ने आशीर्वाद दिया।

बिसराम का कुर्ता पसीने से तर-बतर होकर उसके शरीर से चिपका हुआ था। उस पर खाद और मिट्टी पड़ी हुई थी। उसके पसीने की बदबू मिसिर को परेशान कर रही थी, लेकिन वे कुछ कहने के लिए बिसराम के पास खड़े थे इसलिए बदबू को बर्दाश्त कर रहे थे।

एक गिलहरा गिलहरी के पीछे दौड़ता हुआ पास खड़े नीम के पेड़ पर चढ़ गया था। गिलहरी चीं...चीं करती हुई एक डाल से दूसरी डाल पर उछल रही थी और गिलहरा उतनी ही फुर्ती से उछलता उसके पीछे दौड़ रहा था।

‘बिसराम तू देख रहा है इस गिलहरी और गिलहरे को... कैसी केलि कर रहे हैं!’

बिसराम को गिलहरी-गिलहरे के खेल में कोई रुचि न थी। उसने उत्तर नहीं दिया। मिसिर का वहाँ होना उसे अखर रहा था। वह चाहता था कि सूरज चढ़ने से पहले कम से कम दो खेप वह और लगा ले।

‘मैंने सुना कि तूने शादी से इंकार कर दिया है?’ बृजमोहन हाथ के बेंत से बैलगाड़ी में खट-खट करते हुए बोल रहे थे। ‘तेरा भाई इस बात से बहुत परेशान है।’

‘आपको ही मालूम होगा।’ बिसराम अपने को रोक नहीं सका। उसके निजी जीवन में मिसिर का इस प्रकार दखल देना उसे पसंद नहीं आ रहा था। उलट उत्तर देने का स्वभाव नहीं था, लेकिन ‘बर्दाश्त की भी हद होती है।’ उसने सोचा।

‘मुझे मालूम है... तुझे नहीं?’

बिसराम के मन में आया कि वह पूछे कि उसके विवाह को लेकर वह क्यों परशान हैं लेकिन वह चुप रहा।

‘तू सच ही कोल्हू का बैल है। तूने शादी से इंकार किया तो कुछ बात तो होगी ही।’ बृजमोहन ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ा दी।

‘क्या बात होगी?’ बिसराम का चेहरा तमतमा उठा।

‘भई, मैं ही नहीं... अब तो पूरा गाँव कहने लगा है।’

‘क्या कहने लगा है मिसिर जी?’ बिसराम ने तल्ख स्वर में पूछा।

‘सही जगह उँगली रखी मैंने... यही बात है।’ बृजमोहन मिसिर यह सोचकर मगन हो रहे थे।

‘तू खुद सोच... छोटा नहीं है। कई देखुवा लौट गये। कुछ दिनों में ही जवानी उतार पर आ जाएगी... बात साफ है।’

‘क्या बात साफ है?’

‘यही... यही... कि तू शादी लायक है ही नहीं...’ बृजमोहन मिसिर ने व्यंग्यभरी मुस्कान के साथ कहा और सड़क की ओर मुड़ गए।

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बिसराम ने टोकरा उठाया और गाड़ी से खाद भरने लगा लेकिन उसे लगा कि हाथ बेजान हो रहे हैं। सिर पर टोकरा रख फेंकते जाते समय उसे पैर डगमगाते-से प्रतीत होने लगे थे। गाड़ी खाली कर वह दोबारा घूर की ओर नहीं गया। घेर में बैलों को बाँध वहीं चारपाई पर लेट गया और शाम तक लेटे सोचता रहा। पूरे समय बृजमोहन मिसिर का वाक्य उसके कानों में गूँजता रहा था।

बिसराम में हुए परिवर्तन ने सभी का ध्यान खींचा। उसकी भाभी ने पति से कहा, ‘आजकल बिसराम का मन काम मा न लागि रहा। बरसात नजदीक है अउर अबै तलक खेतन मा खाद नहीं पहुँची। तुमका अपने धंधे से फुर्सत नहीं...’

‘मैं भी देख रहा हूँ;’ सुखराम ने कहा, ‘लेकिन, अनाज मंडी नहीं पहुँचाऊँगा तो काम नहीं चलेगा। पाँच साल से बिसराम खेत सँभाल रहा है... उसी की सलाह पर मैंने अनाज खरीदकर शहर की मंडी में बेचने का काम शुरू किया था। इससे कुछ बरक्कत भी हुई... वर्ना बप्पा के लिए कर्ज से छुटकारा नहीं मिलता। कर्ज निबट आया है... उसकी सिर्फ पूँछ ही बची है। इस साल के आखिर तक वह भी खत्म हो लेगी।’

‘वो तो ठीक है, पर तुम शहर की मंडी मा अनाज बेचैं जात हौ तो दुइ दिन का काम चार दिन मा करिकै लौटत हौ।’

‘तुम कहना क्या चाहती हो?’ सुखराम ने आँखें टेढ़ी करके पूछा।

‘यहै कि दुइ दिन का काम चार दिन...’

‘मूलगंज जाता हूँ... सरौता बाई के कोठे पर...’

‘हाय राम... हमार यो मतलब तो न था। मुला खेती की तरफ आपौ का ध्यान दें का चाही। पता नहीं का बात है... कई दिनन से बिसराम कुछ करि नहीं रहे।’

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