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जानिए कौन थे केशवानंद भारती, संविधान बचाने में क्या थी इनकी भूमिका...
केशवानंद भारती (79) ने रविवार को केरल के कासरगोड जिले में स्थित अपने आश्रम में अंतिम सांस ली। केशवानंद भारती इस मठ के प्रमुख थे।
नीलमणि लाल
नई दिल्ली: भारत के न्यायिक इतिहास में केशवानंद भारती का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। केशवानंद भारती न तो जज थे, न वकील और न ही विधि विशेषज्ञ लेकिन 24 अप्रैल, 1973 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ के मामले में दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले के चलते भारत की ज्यूडिशियरी में वे अमर हो गए। उनकी ख्याति का कारण तो बतौर मुवक्किल सरकार द्वारा अपनी संपत्ति के अधिग्रहण को अदालत में चुनौती देने से जुड़ा रहा है।
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केशवानंद भारती (79) ने रविवार को केरल के कासरगोड जिले में स्थित अपने आश्रम में अंतिम सांस ली। केशवानंद भारती इस मठ के प्रमुख थे।
केरल के शंकराचार्य
केरल के कासरगोड जिले के एडनीर में करीब 1200 साल पुराना एक शैव मठ है। यह मठ नवीं सदी के महान संत और अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता आदिगुरु शंकराचार्य से जुड़ा हुआ है। शंकराचार्य के चार शुरुआती शिष्यों में से एक तोतकाचार्य थे जिनकी परंपरा में यह मठ स्थापित हुआ था। शंकराचार्य की क्षेत्रीय पीठ का दर्जा प्राप्त होने के चलते इस मठ के प्रमुख को ‘केरल के शंकराचार्य’ का दर्जा दिया जाता है। इसीलिए स्वामी केशवानंद भारती केरल के मौजूदा शंकराचार्य कहे जाते थे। उन्होंने 19 साल की उम्र में संन्यास ले लिया था। कुछ ही साल बाद अपने गुरू के निधन की वजह से वे एडनीर मठ के मुखिया बन गए। 20 से कुछ ही ज्यादा की उम्र में यह जिम्मा उठाने वाले स्वामी केशवानंद छह दशक तक इस पद पर रहे।
मठ का योगदान
साठ-सत्तर के दशक में कासरगोड में इस मठ के पास हजारों एकड़ जमीन भी थी। जब ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार भूमि सुधार के लिए काफी प्रयास कर रही थी तब राज्य सरकार ने कई कानून बनाकर जमींदारों और मठों के पास मौजूद हजारों एकड़ की जमीन अधिगृहीत कर ली। इस चपेट में एडनीर मठ की संपत्ति भी आ गई। ऐसे में एडनीर मठ के युवा प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी।
कोर्ट केस
केरल हाईकोर्ट के समक्ष 1970 में दायर एक याचिका में केशवानंद भारती ने अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए मांग की थी कि उन्हें अपनी धार्मिक संपदा का प्रबंधन करने का मूल अधिकार दिलाया जाए। उन्होंने संविधान संशोधन के जरिए अनुच्छेद 31 में प्रदत्त संपत्ति के मूल अधिकार पर पाबंदी लगाने वाले केंद्र सरकार के 24वें, 25वें और 29वें संविधान संशोधनों को चुनौती दी थी। इसके अलावा केरल और केंद्र सरकार के भूमि सुधार कानूनों को भी उन्होंने चुनौती दी।
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केरल हाईकोर्ट में मठ को कामयाबी नहीं मिली जिसके बाद यह मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट चला गया। शीर्ष अदालत के सामने सबसे बड़ा सवाल यही था कि क्या देश की संसद के पास संविधान संशोधन के जरिए मौलिक अधिकारों सहित किसी भी अन्य हिस्से में असीमित संशोधन का अधिकार है। मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत दिया और यह फैसला शीर्ष अदालत की अब तक सबसे बड़ी पीठ ने दिया था, जिसमें 13 न्यायाधीश शामिल थे।
68 दिन तक हुई सुनवाई
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले पर 68 दिन तक सुनवाई हुई थी। इस मामले की सुनवाई 31 अक्टूबर 1972 को शुरू हुई और 23 मार्च 1973 को सुनवाई पूरी हुई। 7-6 के बहुमत से दिए गए फैसले में 13 जजों की पीठ ने कहा था कि संसद के पास संविधान में संशोधन की शक्ति है, लेकिन वह संविधान के मूलभूत ढांचे को नहीं बदल सकती है। इसके बाद से मूलभूत संरचना सिद्धांत भारतीय संवैधानिक कानून के एक सिद्धांत के रूप में माना जाता है।
न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर तो सकती है, लेकिन ऐसा कोई संशोधन वह नहीं कर सकती जिससे संविधान के मूलभूत ढांचे में कोई परिवर्तन होता हो या उसका मूल स्वरूप बदलता हो।
संविधान सबसे ऊपर
केशवानंद भारती मामले में आए इस फैसले से स्थापित हो गया कि देश में संविधान से ऊपर कोई भी नहीं है, संसद भी नहीं। यह भी माना जाता है कि अगर इस मामले में सात जज यह फैसला नहीं देते और संसद को संविधान से किसी भी हद तक संशोधन के अधिकार मिल गए होते तो शायद देश में गणतांत्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित नहीं रह पाती।
इस फैसले के दो साल बाद इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया और संविधान को पूरी तरह से बदल दिया गया।लेकिन आपातकाल के बाद केशवानंद भारती मामले की कसौटी पर कसकर संविधान को उसके मूल स्वरूप में वापस लाया गया। कहा जा सकता है कि हारकर भी स्वामी केशवानंद भारती भारत के संविधानिक इतिहास के रखवाले बन गए। साल 2018 में केशवानंद भारती को जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर अवार्ड से नवाजा।
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