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अंग्रेजों को डराने लगी थी 'खूनी बैसाखी'

देश के सपूतों के रक्त से सिंचित जलियांवाला बाग की दीवरों पर लगे गोलियों के निशान देखने वालों के मन में सिहरन सी पैदा करते हैं। ये दरकती हुई दीवारों के सीने में धंसी गोलियां सौ साल बाद भी ब्रिटिश हुक्मरानों की दमनकारी शासन की याद दिलाती हैं। 

SK Gautam
Published on: 13 April 2020 4:48 PM IST
अंग्रेजों को डराने लगी थी खूनी बैसाखी
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दुर्गेश पार्थसारथी

अमृतसर: बेशक जलियांवाला बाग हत्याकांड को आज 101 साल हो चुके हैं। लेकिन इसकी यादें आज भी ताजा है। देश के सपूतों के रक्त से सिंचित जलियांवाला बाग की दीवरों पर लगे गोलियों के निशान देखने वालों के मन में सिहरन सी पैदा करते हैं। ये दरकती हुई दीवारों के सीने में धंसी गोलियां सौ साल बाद भी ब्रिटिश हुक्मरानों की दमनकारी शासन की याद दिलाती हैं।

अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था "खूनी बैसाखी"

जलियांवाला बाग नरसंहार में जिंदा बचे 22 वर्ष के नानक सिंह ने 1920 में खिली थी खूनी बैसाखी नाम से कविता, अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था ।

ये चंद पंक्तियां जलियांवाला बाग की हत्याकांड की बर्बता बताने के लिए काफी हैं।

'सोलह सौ पचास गोलियां, चली हमारे सीने पर।

पैरों में बेड़ी डाल, बंदिशें लगी हमारे जीने पर।

रक्तपात करुणा क्रदन, बस चारों होर यही था।

पत्नी के कंधे लाश पति की, जड़ चेतन में मातम था।

इंकलाब का ऊंचा स्वर, इस पर भी यारों दबा नहीं।

भारत कां का जयकारा, बंदूकों से डरा नहीं।'

जलियांवाला बाग हत्या कांड में कितने लोग मारे गए। इसका सही आंकड़ा आज भी नहीं मिलता। अलग-अलग अभिलेखों में अलग-अलग संख्या दर्ज है। लेकिन इस घटना ने गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर को भी हिला कर रख दिया था। यही नहीं जनरल डायर की इस क्रूरता को करीब महसू करने वाले दो लोग ऐसे थे जो लाशों की ढेर में जिंदा बच गए थे। उनमें से एक थे उधम सिंह और दूसरा नानक सिंह। इन दोनों ही लोगों ने अपने-अपने ढंग से आजादी की जंग लड़ी।

कहा जाता है कि 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी वाले दिन रॉलेट ऐक्ट के विरोध में स्थानीय नेता जलियां वाले बाग में अपनी-अपनी तकरीर दे रहे थे उस समय किशोर उम्र के उधम सिंह मजलिस में बैठे लोगों को पानी पिला रहे थे। जबकि 22 वर्ष के युवा नानक सिंह लोगों की तकरीर सुन रहे थे। जबकि सआदत हसन अपने अब्बू के गोद में बैठे जलूस देख रहे थे। उस समय उनकी उम्र 7 वर्ष थी।

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नानक सिंह ने लिखी 'खूनी बैसाखी'

जलियांवाला हत्याकांड के करीब एक वर्ष बाद नानक सिंह ने खूनी बैसाखी नाम से 1920 में एक लंबी कविता लिखी। यह कविता उन्होंने पंजाबी में लिखी थी। यह कविता क्रांतिकारियों को अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन को बल दे रही थी। इस कविता के प्रकाशन के कुछ समय बाद अंग्रेजों ने इसे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मानते हुए 'खूनी बैसाखी' पर पाबंदी लगाते हुए इसकी मूल प्रति जब्त कर ली थी।

मंटो ने लिखा 'तमाशा'

जलियांवाला बाग की इस घटना ने बालक मंटों के मन पर इतना आघात किया कि युवा होने पर उन्‍होंने इस पर 'तमाशा' नाम की एक कहानी लिखी। ऊर्दू के प्रसिद्ध लेखकों में सुमार सआदत हसन मंटों ने 'तमाशा' नाम से लिखी इस कहानी में उन्‍होंने जलियावाला बाग की उस घटना जिक्र किया है जिसे उन्‍होंने बालपन में देखा और महसूस किया था। इस कहानी में वे पूछते हैं- -' अब्‍बा आप मुझे स्‍कूल क्‍यों नहीं जाने देते '' मास्‍टर साहिब ने तो हमें बताया नहीं था कि आज छुट्टी है । जलियांवाला बाग में चल रही गोलियों की आवाज सुन कर बच्‍चा कहता है अब्‍बा- उठो! चलो, पठाखे फूट रहे हैं, तमाशा शुरू हो गया है। '' कुछ इसी तरह के मार्मिक दृश्‍यों को उन्‍होंने अपनी इस 'तमाशा' नाम की कहानी में लिखा है, जिसे उन्‍होंने उस समय महसूस किया था। शायद मंटो की यह पहली कहानी थी।

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कई लेखकों ने लिखी किताबें

बहरहाल काल के कपाल पर कभी न भरने वाले इस जख्म के बारे में सहादत के इन सौ सालों में नानक सिंह से लेकर सल्मान रुसदी से होते हुए अब तक कई उपन्यासकारों ने किताबें लिखी हैं। इनमें प्रसिद्ध किताबें हैं-सागा ऑफ द फ्रिडम मुवमेंट एंड जलियांवाला बाग मैसकेयर, गाडन ऑफ बुलेट्स, किम एक मैग्‍नर अमृतसर 1919, द जलियावाला बाग मैसकेयर 1919, आई विटनेस ऐट अमृतसर, जलियावाला बाग द रियल स्‍टोरी और 1981 में सलमान रुशदी की मिडनाइट चिल्‍ड्रन सहित दर्जनों किताबें हिंदी और अंग्रेजी में लिखी गई। यही नहीं इस घटना पर आधारित कई फिल्‍में भी बन चुकी हैं। हैं।

नानक सिंह पर जारी हो चुका डाक टिकट

ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खूनी बैसाखी में खुल कर लिखने वाले नानक सिंह के सम्मान में भारत सरकार ने वर्ष 1998 में दो रुपये का डाक टिकट भी जारी किया था। यही नहीं, उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।

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दोबारा रीलिज हुई खूनी बैसाखी

जलियांवाला बाग हत्याकांड के सौ बरस पूरे होने पर नानक सिंह की पुस्तक 'खूनी बैसाखी' का विमोचन किया गया। यह जहां एक तरफ शहीदों को श्रद्धांजलि है, वहीं दूसरी ओर इस पुस्तक के भी 99 वर्ष पूरे हो गए। बताया जा रहा है कि देश विभाजन के दौरान इसकी मूल प्रति कहीं खो गई थी, जिसे अब ढूंढ लिया गया है। गुरुमुखी में लिखी इस कविता का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है। इस कविता में जस्टिन रॉलेक्ट के लेख भी शामिल हैं। जस्टिन रॉलेक्ट के पड़दादा सर ऑर्थर रॉलेक्ट ने ही रॉलेक्ट कमेटी का नेतृत्व कर रॉलेक्ट एक्ट ड्राप्ट किया था। जिसके विरोध में जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था।



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