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दांव पर बिहार का भविष्य़ः उठ रहा सबसे बड़ा सवाल, युवा शक्ति हुई फेल
विधानसभा चुनाव ने बता दिया है कि बिहार में ज्यादातर पुराने नेताओं का सियासी दौर या तो खत्म हो गया है या फिर ढलान पर आ चुका है।
मनीष श्रीवास्तव
पटना: बिहार विधानसभा चुनावों के सियासी घमासान अब थम चुका है और सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन एक बार फिर सत्ता में वापसी कर चुका है। बीती पहली अक्टूबर को चुनाव की अधिसूचना जारी होने से बीती 10 नवंबर को चुनावी नतीजे आने तक बिहार में चुनावी रोमांच का उतार-चढ़ाव तमाम बालीवुड फिल्मों को भी पीछे छोड़ गया। इस विधानसभा चुनाव ने अगले पांच सालों के लिए सरकार बनाने का फैसला तो दे ही दिया और साथ ही यह भी साफ कर दिया कि अब बिहार की भविष्य की राजनीति का खाका भी खींच दिया है।
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बिहार के सियासी दिग्गजों में जहां रामविलास पासवान का निधन हो चुका है
इस विधानसभा चुनाव ने बता दिया है कि बिहार में ज्यादातर पुराने नेताओं का सियासी दौर या तो खत्म हो गया है या फिर ढलान पर आ चुका है। बिहार के सियासी दिग्गजों में जहां रामविलास पासवान का निधन हो चुका है और नीतीश कुमार की सियासी नैया भी ड़ावाड़ोल है तो लालू यादव, शरद यादव, जीतन राम मांझी, पप्पू यादव जैसे नेताओं के लिए युवा मतदाताओं में कोई खास आकर्षण नहीं रह गया है। कुल मिला कर बिहार की राजनीति में युवा शक्ति ने अब दस्तक दे दी है। इसमे कुछ युवा विरासत संभालने आये तो कुछ विरासत बनाने। बिहार विधानसभा चुनाव के जरिये बिहार की राजनीति में नई पीढ़ी ने अपनी सियासी पारी का आगाज कर दिया है। यह चुनाव इन नए चेहरों की क्षमता का आकलन करने वाला साबित हुआ कि सियासत की बिसात पर अपनी बाजी खेलने में कितने माहिर है।
आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा अपनी नई सियासी पहचान बनाने मैदान में उतरे
इन नए चेहरों में राजद मुखिया लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव, राम विलास पासवान की लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान, पूर्व जदयू नेता विनोद चैधरी की बेटी प्लूरल्स पार्टी की पुष्पम प्रिया चैधरी और फिल्म अभिनेता शत्रुघन सिन्हा के बेटे लव सिन्हा जहां विरासत की थाती लेकर सियासी समर में कूदे तो वहीं, वीआईपी पार्टी के मुकेश साहनी और आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा अपनी नई सियासी पहचान बनाने मैदान में उतरे।
अपने इस प्रयास में उन्हे आंशिक सफलता ही मिल सकी
चुनाव के दौरान विरासत की राजनीति कर रहे इन नई पीढ़ी के नेताओं में महागठबंधन का नेतृत्व कर रहे लालू के पुत्र तेजस्वी के संबंध में बिहार में यह आम धारणा रही कि उनका पूरा रिमोट लालू के हाथ में ही रहना है। हालांकि तेजस्वी ने इस इमेज को तोड़ने की भरसक कोशिश की और इसके लिए राजद के पोस्टरों तक से लालू यादव को गायब कर दिया। लेकिन नतीजे बता रहे है कि अपने इस प्रयास में उन्हे आंशिक सफलता ही मिल सकी। हालांकि तेजस्वी यादव ने अपने दल राजद को सबसे ज्यादा सीटे दिलवा कर यह भी साबित कर दिया कि भले ही इस बार कुछ सियासी अनुभव की कमी से उन्हे जीत न मिल पाई हो लेकिन बिहार की भावी राजनीति में एक अहम किरदार निभाने के लिए उनके पास क्षमता है।
इसी तरह राम विलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान को उनके पिता के निधन से सहानुभूति तो मिली लेकिन पूरे चुनाव में भाजपा का समर्थन और जदयू का विरोध करने से वह एक वोटकटवा पार्टी से ज्यादा की छवि नहीं बना सकें। यहीं कारण रहा कि 135 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद वह केवल एक ही सीट जीत सकें।
एक नाम जदयू के नेता व एमएलसी रहे विनोद चैधरी की बेटी पुष्पम प्रिया का है
इसी क्रम में एक नाम जदयू के नेता व एमएलसी रहे विनोद चैधरी की बेटी पुष्पम प्रिया का है। पुष्पम ने अपनी नई प्लूरल्स पार्टी का गठन किया और बिहार के प्रमुख हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में फुल पेज विज्ञापन देकर खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था। विदेश में उच्चशिक्षा प्राप्त करने वाली पुष्पम ने जाति की राजनीति का दांव खेला और दावा किया कि वह अगले 05 वर्षों में बिहार को देश का सबसे विकासशील राज्य तथा 10 सालों में यूरोप के कई देशों के बराबर ला कर खड़ा कर देंगी।
लेकिन बिहार की जनता ने उनके विदेशी तौर-तरीकों को तरजीह नहीं दी, नतीजा दो विधानसभाओं से चुनाव लड़ रही पुष्पम दोनो ही जगह बुरी तरह हार गई। जबकि फिल्म अभिनेता शत्रुघन सिन्हा के बेटे लव सिन्हा ने भी कांग्रेस के टिकट पर अपने सियासत में अपने हाथ आजमाने की कोशिश की लेकिन उनका हाल भी वहीं हुआ जो अभी पिछले लोकसभा चुनाव में उनके माता-पिता का हुआ था।
बिहार की राजनीति में कुछ ऐसे युवाओं ने भी दस्तक दी है
इनके अलावा बिहार की राजनीति में कुछ ऐसे युवाओं ने भी दस्तक दी है जिनके पास विरासत तो नहीं है लेकिन बावजूद इसके अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए। ऐसा ही एक नाम विकासशील इनसान पार्टी के मुकेश साहनी का है। निषाद समुदाय के वोटों पर नजर रखने वाले मुकेश वैसे तो मुंबई में कारोबार करते है लेकिन वर्ष 2018 में अपनी पार्टी का गठन करके राजनीति में सक्रिय हो गए। मुकेश पहले एनडीए के साथ थे लेकिन उन्होंने पिछला लोकसभा चुनाव महागठबंधन के साथ लड़ा था। मौजूदा बिहार चुनाव में वह फिर एनडीए के साथ है और भाजपा ने उनकी पार्टी को अपने कोटे में से 11 सीटें दी थी और वह अपने 04 प्रत्याशियों को विधानसभा भेजने में कामयाब रहे।
बेगुसराय से चुनाव लड़े थे लेकिन यहां उन्हे सफलता नहीं मिल पाई थी
इसी क्रम में छात्र राजनीति तथा मोदी विरोध की राजनीति कर चर्चित हुए सीपीआई नेता कन्हैया कुमार ने पिछले लोकसभा चुनाव से अपनी चुनावी राजनीति की शुरूआत की थी और बेगुसराय से चुनाव लड़े थे लेकिन यहां उन्हे सफलता नहीं मिल पाई थी। कन्हैया एक बहुत अच्छे वक्ता है लेकिन अभी सियासी तौर पर अनुभवी नहीं हो पाए है। बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने तेजस्वी यादव की राजद के साथ गठबंधन कर कुल 06 सीटों पर चुनाव लड़ा और 02 सीटे जीतने में कामयाब रहे। चुनाव नतीजों ने बता दिया कि बिहार की भावी राजनीति में पैठ बनाने के लिए कन्हैया कुमार को सियासी बयानबाजी के साथ ही सियासी गुणा-गणित का अनुभव भी हासिल करना होगा। उनकी पार्टी को से पहले ही कन्हैया का सियासी रूतबा तेजस्वी से कम कर दिया है।
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रालोसपा के उपेन्द्र कुशवाहा भी अपने सजातीय वोटों के कारण काफी असर वाले नेता माने जा रहे थे
बिहार की राजनीति में रालोसपा के उपेन्द्र कुशवाहा भी अपने सजातीय वोटों के कारण काफी असर वाले नेता माने जा रहे थे। मायावती की बसपा, औवैसी की एआईएमआईएम और ओमप्रकाश राजभर की भासपा जैसी छह पार्टियों को साथ लेकर उपेन्द्र ने ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्यूलर फ्रंट नाम से गठबंधन बना कर महागठबंधन और एनडीए को टक्कर देने उतरे थे और उपेन्द्र स्वयं इस फ्रंट के मुख्यमंत्री पद का चेहरा थे लेकिन छह दल वाला उनका फ्रंट कुछ खास नहीं कर सका। हालांकि इस फ्रंट में शामिल ओवैसी के एआईएमआईएम ने पांच और बसपा ने एक सीट जीती लेकिन यह इन दलों और उनके प्रत्याशियों का अपना प्रदर्शन ही माना जा रहा है। जबकि 104 सीटों पर लड़ी रालोसपा को कोई भी सीट नहीं मिली।
रिपोर्ट- मनीष श्रीवास्तव
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