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स्पेशल है पिंक बॉल: आखिर क्यों चुना गया गुलाबी रंग, जानें इसकी खासियत

अब क्रिकेट जगत में गुलाबी गेंद का रंग छा गया है। भारत में पहली बार गुलाबी गेंद का इस्तेमाल भारत - बांग्लादेश के बीच खेले गए मैच में किया गया।

Roshni Khan
Published on: 20 Nov 2019 8:18 AM GMT
स्पेशल है पिंक बॉल: आखिर क्यों चुना गया गुलाबी रंग, जानें इसकी खासियत
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लखनऊ: अब क्रिकेट जगत में गुलाबी गेंद का रंग छा गया है। भारत में पहली बार गुलाबी गेंद का इस्तेमाल भारत - बांग्लादेश के बीच खेले गए मैच में किया गया। ये गेंद स्पेशल होती भी है और इसे तैयार करने में 7-8 दिन लगते हैं। गेंद बनाने वाली एसजी कंपनी के अनुसार, लाल गेंद में चमड़े को रंगने की सामान्य प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन पिंक बॉल पर गुलाबी रंग की कई परत चढ़ाई जाती हैं, इसलिए इसे बनाने में एक हफ्ता लगता है। इस गेंद के साथ जो पहला मैच हुआ था वो 2009 में ऑस्ट्रेलिया बनाम इंग्लैंड की महिला टीमों के बीच खेला गया था। लेकिन पुरुष क्रिकेट में इसे आने में छह साल और लग गए। ऑस्ट्रेलिया टीम भी इस गेंद से टेस्ट मैच खेल चुकी है।

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फिलहाल, बीसीसीआई को 124 गेंदें सौंप दी हैं। यूं तो गुलाबी गेंद टेस्ट मैच के लिए इस्तेमाल की जाती है, लेकिन डे-नाइट टेस्ट के लिए इस्तेमाल होने वाली गुलाबी गेंद लाल गेंद से बिल्कुल अलग होती है। एसजी कंपनी का कहना है कि गुलाबी गेंद की सबसे बड़ी समस्या उसके रंग और शेप को लेकर है जो बरकरार रखना मुश्किल साबित होता है जिसके चलते रिवर्स स्विंग कराना दूर की कौड़ी साबित होती है। कंपनी के अनुसार लाल गेंद का रंग गहरा होता है, जिसके चलते खिलाडिय़ों को गेंद चमकाने और पूरे दिन स्विंग हासिल करने में मदद मिलती है।

स्पेशल है पिंक बॉल

टीम इंडिया इन दिनों बांग्लादेश के साथ दो टेस्ट मैचों की सीरीज खेल रही है। यह टेस्ट सीरीज इन दिनों काफी चर्चा में है क्योंकि इसी सीरीज में भारत में डे-नाइट टेस्ट की शुरुआत हो रही है। टीम इंडिया पहला टेस्ट मैच जीतकर सीरीज में 1-0 से आगे है, जबकि दूसरा टेस्ट मैच ऐतिहासिक होने जा रहा है। कोलकाता के ईडन गार्डन्स मैदान पर खेला जाने वाला यह टेस्ट मैच देश में पहला डे-नाइट मैच है।

डे-नाइट टेस्ट में सबसे ज्यादा चर्चा पिंक बॉल को लेकर है। दोनों टीमों ने मैच शुरू होने से पहले पिंक बॉल से खेलकर जमकर अभ्यास किया है। ऐसे में डे-नाइट मैच की शुरुआत और पिंक बॉल के बारे में जानना दिलचस्प है क्योंकि डे-नाइट मैच पिंक बॉल से ही खेला जाता है। क्रिकेट के खेल में सबसे महत्वपूर्ण चीज गेंद ही होती है। मैच के दौरान सारे खिलाड़ी गेंद के पीछे ही भागते दिखते हैं। कैमरों के लेंस भी उसी गेंद को कैद करने को आतुर रहते हैं। टेस्ट क्रिकेट की शुरुआत 1877 में हुई थी और तब से टेस्ट क्रिकेट लाल गेंद से ही खेला जाता है। लेकिन डे-नाइट मैचों में लाल की जगह पिंक गेंदों का इस्तेमाल होता है। भारत में पिंक बॉल एसजी कंपनी बनाती है।

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पहला डे-नाइट टेस्ट मैच

टेस्ट क्रिकेट के इतिहास में पहला डे-नाइट मुकाबला ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच खेला गया था। इस डे-नाइट टेस्ट की शुरुआत 27 नवंबर 2015 को हुई थी। एडीलेड की दूधिया रोशनी में खेले गए इस मैच को क्रिकेट प्रेमियों ने काफी पसंद किया था। भारत-बांग्लादेश के अलावा टेस्ट क्रिकेट खेलने वाले सभी प्रमुख देश डे-नाइट टेस्ट मैच खेल चुके हैं।

पहली पिंक बॉल

ऑस्ट्रेलिया की बॉल मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी कूकाबूरा दुनिया भर में प्रसिद्ध है और इसी कंपनी ने पहली पिंक बॉल का निर्माण किया था। कूकाबूरा ने कई साल तक इस नई पिंक बॉल को लेकर परीक्षण किया। कई साल की मेहनत के बाद एक बेहतरीन गुलाबी गेंद बन पाई। पहली पिंक बॉल तो 10 साल पहले बन गई थी मगर इसकी टेस्टिंग करते-करते पांच-छह साल और लग गए। आखिरकार 2015 में एडिलेड की दूधिया रोशनी में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच खेले गए पहले डे-नाइट टेस्ट में पिंक बॉल का इस्तेमाल किया गया। तब से पिंक बॉल लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गई।

क्यों चुना गया गुलाबी रंग

अब यह जानना जरूरी है कि डे-नाइट मैचों के लिए पिंक कलर को क्यों तरजीह दी गई। यह बात सारे क्रिकेट प्रेमियों को पता है कि टेस्ट क्रिकेट में खिलाडिय़ों के कपड़े का रंग सफेद होता है और यही कारण है कि उसमें लाल रंग की गेंद का इस्तेमाल होता है ताकि खिलाडिय़ों को गेंद आसानी से नजर आए। उसी तरह वन-डे मैच में खिलाड़ी रंगीन कपड़ों में मैदान में उतरते हैं। इन मैचों में इसी कारण सफेद गेंद का इस्तेमाल होता है।

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अब डे-नाइट टेस्ट में गुलाबी रंग की गेंद का इस्तेमाल क्यों होता है, इसका जवाब दिया है कूकाबूरा कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर ब्रेट एलियट ने। एलियट के मुताबिक शुरुआत में हमने कई तरह के रंगों का इस्तेमाल किया। हमने येलो और ऑरेंज का भी इस्तेमाल किया मगर इन रंगों की गेंदों में सबसे बड़ी समस्या थी कि यह कैमरा फ्रेंडली नहीं थी। दरअसल मैच कवर कर रहे कैमरामैनों ने अपनी परेशानी बताई कि ऑरेंज कलर को कैमरा के लिए कैप्चर कर पाना काफी मुश्किल होता है। इसका कारण यह है कि यह गेंद दिखाई नहीं देती। इसके बाद गेंद को लेकर पुनर्विचार शुरू हो गया और इस बाबत सबकी राय ली गई। सबकी सहमति पिंक कलर पर बनी और फिर इस कलर को ही फाइनल कर दिया गया।

16 पिंक शेड्स का परीक्षण

डे-नाइट मैच के लिए गुलाबी रंग फाइनल होने के बाद अब चुनौती यह खड़ी हुई कि पिंक में भी कैसा पिंक कलर होगा। इसके लिए पिंक के करीब 16 शेड्स का परीक्षण किया गया। एलियट ने बताया कि हमने पिंक के 16 शेड्स की टेस्टिंग की। परीक्षण के दौरान हर बार उसमें बदलाव दिखा। आखिरकार एक आयडल शेड को फाइनल किया गया और इस शेड की गेंद अब डे-नाइट टेस्ट मैच में इस्तेमाल होती है।

पिंक बॉल का धागा

पिंक कलर और शेड पर मुहर लग जाने के बाद सवाल यह खड़ा हुआ कि इस गेंद की सिलाई किस रंग के धागे से की जाए। इसके लिए भी तमाम प्रयोग किए गए। कूकाबूरा कंपनी ने पिंक बॉल की सिलाई सबसे पहले काले रंग के धागे से की थी। इसके बाद हरा रंग इस्तेमाल हुआ, फिर सफेद कलर के धागे का प्रयोग हुआ। अंत में हरे रंग की सिलाई पर सबकी सहमति बनी, लेकिन टीम इंडिया के एसजी कंपनी ने काले रंग के धागे से बनी पिंक बॉल बनाई है।

भारत में एसजी कंपनी ने बनाई पिंक बॉल

देश में खेले जाने वाले पहले डे-नाइट टेस्ट मैच के लिए मेरठ की संसपैरेल्स ग्रीनलैंड्स यानी एसजी कंपनी ने पिंक बॉल बनाई है। कंपनी ने बीसीसीआई को 120 पिंक बॉल उपलब्ध कराई हैं। इन्हीं गेंदों में से कुछ गेंदें इंदौर में नेट प्रैक्टिस के लिए भी इस्तेमाल की गई थी। एसजी कंपनी के मुताबिक पिछले तीन साल के दौरान इस गेंद को लेकर काफी शोध किए गए हैं और इसके बाद हम इस बात को पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि हमारी गेंदें अंतरराष्ट्रीय स्तर की है।

बनाने में लगते हैं आठ दिन

एसजी के माकेटिंग डायरेक्टर पारस आनंद ने कहा कि एक पिंक गेंद को तैयार करने में सात से आठ दिन का समय लगता है। जब बीसीसीआई ने महीने भर पहले हमसे पिंक गेंद की मांग की तो हम इसे बनाने में पूरी तरह से जुट गए। हमने बोर्ड को जानकारी दे दी है कि ये गेंदें अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। हमने इस गेंद को पूरी तरह से टेस्ट करने के बाद ही बीसीसीआई को सौंपा है।

सबसे बड़ी चुनौती

डे-नाइट टेस्ट के लिए बनी पिंक बॉल को लेकर सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि एक गेंद पूरे दिन 90 ओवर तक चले। एसजी कंपनी ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि खेल के दौरान पूरे दिन में गेंद का रंग ना जाए। एसजी कंपनी के अनुसार लाल गेंद में चमड़े को रंगने की सामान्य प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन पिंक बॉल पर गुलाबी रंग की कई परत चढ़ाई जाती हैं, इसलिए इसे बनाने में एक हफ्ता लगता है। महीने भर पहले जब बीसीसीआई ने डे-नाइट टेस्ट के लिए इस गेंद की मांग की तभी से हमें इसे बनाने में जुट गए।

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अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर खरी है गेंद

एसजी कंपनी ने बीसीसीआई को बताया है कि हमारी गेंदें विश्व स्तर की हैं। हमने काफी समय इन गेंदों के परीक्षण पर खर्च किया है और हम कह सकते हैं कि हमारी गेंदें इंटरनेशनल क्रिकेट की मांग पर पूरी तरह खरी उतरी हैं। एसजी कंपनी का कहना है कि गुलाबी गेंद की सबसे बड़ी समस्या उसके रंग और शेप को लेकर है जो बरकरार रखना मुश्किल साबित होता है जिसके चलते रिवर्स स्विंग कराना दूर की कौड़ी साबित होती है। कंपनी के अनुसार लाल गेंद का रंग गहरा होता है, जिसके चलते खिलाडिय़ों को गेंद चमकाने और पूरे दिन स्विंग हासिल करने में मदद मिलती है।

बाउंस व हार्डनेस में अंतर नहीं

रेड और पिंक बॉल की निर्माण प्रक्रिया में कोई बड़ा अंतर नहीं है। अंदर से यह दोनों गेंदें एक तरह की होती है। दोनों में अंतर सिर्फ कलर कोटिंग का है। वैसे बाउंस, हार्डनेस और परफॉर्मेंस के लिहाज से यह दोनों गेंद एक जैसी हैं। रेड बॉल में लेदर को लाल रंग से रंग कर उसकी घिसाई की जाती है जबकि गुलाबी गेंद में गुलाबी। वैसे फिनिशिंग के दौरान पिंक बॉल पर रंग की एक और परत चढ़ाई जाती है। इसकी वजह से गेंद का रंग अधिक समय तक चमकीला बना रहा है यानी गेंद की शाइन बरकरार रहती है।

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कूकाबूरा और एसजी की गेंदों में फर्क

एसजी गेंदों में एक व्यापक सीम होती है क्योंकि उन्हें बनाने के लिए टिकर धागे का उपयोग किया जाता है। यहां तक कि अब गेंदें हस्तनिर्मित हैं और उनके पास सीम है जो खेल के एक दिन बाद भी अच्छी स्थिति में रहती है। ये गेंदें व्यापक सीम के कारण स्पिनरों के लिए मददगार होती हैं। चमक खत्म होने के बाद यह गेंदबाज को 40 ओवर तक रिवर्स स्विंग कराने में मदद करता है। जहां तक कूकाबूरा की गेंदों का सवाल है तो यह गेंद कम सीम प्रदान करती है, लेकिन गेंद को 30 ओवर तक स्विंग करने में मदद करती है। स्पिन गेंदबाजों को इन गेंदों से ज्यादा मदद नहीं मिलती। इसके साथ ही गेंद के पुरानी होने पर बल्लेबाज के लिए बिना मुश्किल के शॉट खेलना आसान हो जाता है।

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