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पनियरा से विधायक ज्ञानेंद्र सिंहः सियासी हवा देखकर बदलने लगती है ब्यूरोक्रेसी

गांव की प्रधानी से सियासी सफर शुरू करने वाले ज्ञानेन्द्र सिंह ने राजनीति का ककहरा देवरिया से सांसद और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डॉ.रमापति राम त्रिपाठी से सीखा है। वह साफगोई से स्वीकारते हैं, संषर्घ करना और लोगों के बीच रहने का फन अपने प्रतिद्वंद्वी रहे पूर्व मंत्री स्व.जनार्दन ओझा से सीखा है।

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Published on: 22 Aug 2020 5:18 PM IST
पनियरा से विधायक ज्ञानेंद्र सिंहः सियासी हवा देखकर बदलने लगती है ब्यूरोक्रेसी
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महराजगंज जिले की पनियरा विधानसभा से चौथी बार विधायक ज्ञानेन्द्र सिंह अपनी सादगी, निष्ठा और साफगोई के लिए जाने जाते हैं। वे योगी सरकार में मंत्री पद के प्रवल दावेदार थे।

ऐन मौके पर नाम 'गायब' होने के बाद भी उन्हें किसी प्रकार का मलाल नहीं है। कहते हैं, मरते दम तक भाजपा में रहेंगे। सामान्य किसान परिवार के ज्ञानेन्द्र सिंह ने संघर्ष के बल पर मुकाम हासिल किया है।

गांव की प्रधानी से सियासी सफर शुरू करने वाले ज्ञानेन्द्र सिंह ने राजनीति का ककहरा देवरिया से सांसद और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डॉ.रमापति राम त्रिपाठी से सीखा है। वह साफगोई से स्वीकारते हैं, संषर्घ करना और लोगों के बीच रहने का फन अपने प्रतिद्वंद्वी रहे पूर्व मंत्री स्व.जनार्दन ओझा से सीखा है।

पनियरा से विधायक ज्ञानेंद्र सिंहः सियासी हवा देखकर बदलने लगती है ब्यूरोक्रेसी

जिले के सबसे पुराने विधायक होने के नाते महराजगंज के पिछड़ेपन के लिए उनकी जवाबदेही भी सुनिश्चित की जाती है। उनका दावा है कि वर्तमान काल में सर्वाधिक सड़कों का निर्माण हुआ है।

स्वास्थ्य सेवा को बेहतर बनाने के लिए वह लगातार प्रयासरत हैं। लेकिन सड़कों की बदहाली उन्हें सवालों के कटघरे में खड़ी करती है।

पनियरा से भाजपा विधायक ज्ञानेंद्र सिंह से लंबी बातचीत

राजनीतिक सफर में उनके अनुभवों और वर्तमान में जिले में सड़क, सेहत और पेयजल आदि के मुद्दों पर गोरखपुर की अपना भारत/न्यूजट्रैक संवाददाता पूर्णिमा श्रीवास्तव ने पनियरा से भाजपा विधायक ज्ञानेंद्र सिंह से लंबी बात की। ज्ञानेन्द्र सिंह ने भी सवालों का बेबाकी से जवाब दिया। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश-

अपने लंबे राजनीतिक सफर को कैसे देखते हैं। नब्बे के दशक की राजनीति में और आज की राजनीति में क्या फर्क देखते हैं?

-राजनीति में वर्ष 1988 से हैं। तब पहली बार गांव का प्रधान चुना गया था। इसके बाद 1991 में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।

अतीत और वर्तमान की राजनीति में जमीन आसमान का फर्क है। पहले निष्ठावान कार्यकर्ताओं की संख्या काफी अधिक होती थी। अब स्थितियां काफी बदल गई हैं।

पहले राजनीतिक कार्यकर्ता कम थे, अब तो शायद ही कोई परिवार हो, जिसके एक-दो सदस्य किसी न किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े हों। सड़क छाप नेता भी बढ़े हैं। जिससे राजनेताओं की छवि पर असर पड़ा है।

आपने 32 साल का राजनीतिक सफर तय किया है। चौथी बार एक ही पार्टी से विधायक हैं। चुनाव लड़ने के लिए आज जिसप्रकार के धन-बल की आवश्यकता है, क्या पूर्व में भी था। आपका अनुभव?

-पहली बार चुनाव लड़ा तो सिर्फ 1.63 लाख रुपये खर्च हुए थे, वो भी समर्थकों के सहयोग से। लोगों ने 200 से 300 रुपये का सहयोग किया था। तमाम समर्थकों के पास रुपये नहीं होते थे, तो वे गाड़ी-ट्रैक्टर लेकर ही क्षेत्र में चलने को तैयार होते थे।

माता-पिता अशिक्षित थे, किसान थे। काफी सामान्य परिवार से था। कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी। लेकिन जिस सहजता और सहयोग से चुनाव जीता वह आज के दौर में संभव नहीं है। गांव में इमानदारी से काम किया।

पनियरा से विधायक ज्ञानेंद्र सिंहः सियासी हवा देखकर बदलने लगती है ब्यूरोक्रेसी

तीन साल प्रधान था, लेकिन तीन रुपये के भी लेनदेन का आरोप नहीं है। चार बार से विधायक हूं, लेकिन कोई आर्थिक कदाचार का आरोप नहीं लगा सकता है।

यह भी कहने में संकोच नहीं है, राजनीति में राजा हरीशचन्द्र भी नहीं हूं। देखिए, चुनाव महंगा हुआ है। चुनाव आयोग सुधार को लेकर प्रयास तो कर रहा है, लेकिन बहुत खास फर्क नहीं पड़ा है।

चुनाव आयोग को धन-बल पर प्रभावी रोक लगाना चाहिए। मतदाताओं को लालच दिया जाता है। इस पर प्रभावी रोक लगाने की आवश्यकता है।

चौथी बार भाजपा से विधायक हैं। लेकिन तमाम ऐसे लोग हैं, जो राजनीति में खूब उछल कूद कर रहे हैं। दलबदल आज की राजनीति की पहचान बन गई है। ऐसे लोगों को आप कैसे देखते हैं?

-पिछले 32 साल से भारतीय जनता पार्टी का सक्रिय सदस्य हूं। कभी दूसरे दर पर जाने की सोच भी नहीं सकता। ताउम्र भाजपा में ही रहूंगा। किसी दूसरी पार्टी से विचार मेल नहीं खाता है। राष्ट्रवादी सोच हमेशा बीजेपी में रहने को विवश करती है।

दलबदल करने वालों की पहचान जनता को करनी होगी। जनता ही ऐसे लोगों को सबक सिखा सकती है। जनता इसे गम्भीरता से नहीं लेती है, इसीलिए दलबदल करने वालों का मनोबल बढ़ता है। जनता उचित निर्णय लेती तो ऐसे लोग नेपथ्य में होते।

मुश्किल यह है कि जनता धनबल, बाहुबल वालों के पीछे चली जाती है। शाम को दूसरी पार्टी में सोने वाले सुबह दूसरी पार्टी में दिखते हैं। जनता ऐसे लोगों को महत्व दे देती है। ऐसे लोग विधानसभा पहुंच जाते हैं। जनता ही दलबदल करने वाले नेताओं को प्रश्रय देने के लिए जिम्मेदार है।

कई बार ऐसा होता है कि लोग पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होने की बात कहते हुए दलबदल कर लेते हैं। असहमति पर पार्टी में बदलाव गलत कैसे है?

-असहमति पर पार्टी फोरम पर बात कहने का अधिकार है ही। चुनाव जीतने के बाद दलबदल करना पाप है। पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र में अंतर आया है, इसको कौन इंकार कर सकता हैं। लेकिन मेरा व्यक्तिगत अनुभव काफी अच्छा है। मेरी कभी पार्टी से असहमति नहीं हुई। यहाँ अपनी बात खुलकर कहने की आजादी है।

पनियरा से विधायक ज्ञानेंद्र सिंहः सियासी हवा देखकर बदलने लगती है ब्यूरोक्रेसी

पार्टी में लोकतंत्र को इसी से समझ सकते हैं कि पहली बार जब विधायक का चुनाव लड़ा तो टिकट के लिए गोरखपुर तक की दौड़ नहीं लगानी पड़ी। राजनीतिक गुरु डॉ.रमापति राम त्रिपाठी की देखरेख में काम करने वाले संतराज यादव के आवास तक ही गया। वहां से चुनाव तैयारी करने का निर्देश मिल गया था।

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पहले ही चुनाव में जीत से सभी का भरोसा भी मुझपर हुआ। चुनाव में जीता और हारा भी। पैसा लेकर टिकट देने की बात भाजपा में नहीं है। सड़क छाप नेता इधर-उधर की बात नहीं करे तो पार्टी में ऊपर से नीचे तक आंतरिक लोकतंत्र काफी मजबूत है। इसी वजह से एक ही विधानसभा से सात बार चुनाव लड़ चुका हूं।

विधायक निधि को लेकर लोगों की अलग-अलग राय है। आप इसे कैसे देखते हैं?

-विधायकों को निधि न मिले तो जनता को देने के लिए उसके पास कुछ बचेगा नहीं। गांव में जाने पर जनता सड़क, खड़ंजा, हैंडपंप की मांग करती है। यदि विधायक निधि नहीं हो तो विधायक इस मांग को कैसे पूरा कर सकता है।

जनता की मानसिकता यदि बदल जाए कि वे विधायक से गांव के विकास के लिए मांग नहीं करेंगे तो विधायक निधि खत्म हो जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता है। जनता की अपेक्षा तो पहले खत्म हो।

खड़ंजा, नाली, पुल, सड़क हालचाल पूछने से तो बनेगा नहीं। जनता की अपेक्षा के लिए विधायक निधि जरूरी है। जनता की अपेक्षा यदि शासन-प्रशासन से पूरी हो जाए तो मेरा व्यक्तिगत मानना है कि विधायक निधि को खत्म करने में कोई हर्ज नहीं है।

जनता की अपेक्षा और उन्हें संतुष्ट करने के लिए विधायक निधि जरूरी है। विधायक यदि ईमानदार है तो उसे इतना भत्ता मिलता है, कि उसकी रोजी-रोटी चल जाती है। निधि में भ्रष्टाचार करने वाले राजनीति में कलंक की तरह हैं।

नौकशाही के साथ काम करना आसान हुआ है या मुश्किल?

-फिलहाल मैं इंस्टीमेट कमेटी का सभापति हूं। ऐसे में मेरा काम नौकरशाहों से अधिक पड़ता है, नेताओं और जनप्रतिनिधि से कम। योगी आदित्याथ की सरकार में नौकशाहों पर पूरी तरह लगाम है। लेकिन अनुभव से कह सकता हूं कि ब्यूरोक्रेसी सत्ता के साथ बदलती है।

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चुनाव में सियासी हवा देखकर अधिकारियों की निष्ठा बदल जाती है। किसी एक पार्टी का हवा-पानी बन जाए तो ब्यूरोक्रेसी उसी के साथ होती दिखती है। नये प्रशासनिक अधिकारियों में ईमानदारी दिखती है। लेकिन धीरे-धीरे उनमें बदलाव आ जाता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

आप सत्ताधारी दल के विधायक हैं। वर्तमान कार्यकाल में संतुष्ट हैं या नहीं?

-मुख्यमंत्री खुद वर्चुअल मीटिंग कर विकास कार्यों की समीक्षा करते हैं। पिछले दिनों बाढ़ की समीक्षा को लेकर 16 जिलों के विधायकों से बात हो सकी।

मुख्यमंत्री ने भरोसा दिया, फिर जल्द बात करेंगे। महराजगंज जिले में काम अच्छा हुआ है। खासकर सड़कों को लेकर बेहतर काम हुआ है।

वैश्विक कोरोना विकास को प्रभावित कर रहा है, इसके बाद भी मोदी और योगी सरकार में विकास के काम हो रहे हैं। किसानों, महिलाओं की मदद की जा रही है। कोरोना महामारी नहीं होती तो विकास कार्य और तेजी से होता।

आप विधायक नहीं होते तो क्या करते?

-मेरा ईट का भट्ठा है। वर्ष 1980 से इस धंधे में हूं। भट्ठे पर काम करने वाले मजदूरों के चलते राजनीति में प्रवेश आसान हुआ। खेती-बारी बहुत नहीं है, भट्ठा ही रोजगार का साधन है। समाजसेवा के साथ रोजी-रोटी का यह अहम जरिया है।

पनियरा से विधायक ज्ञानेंद्र सिंहः सियासी हवा देखकर बदलने लगती है ब्यूरोक्रेसी

आपके लिए खुशी का वह पल, जो हमेशा याद रहता है।

-छोटे किसान का बेटा हूं। 1991 में चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचा तो दोनों आंखों से आंसू गिर रहे थे। वे खुशी के आंसू थे। ये सोचकर यकीन करना मुश्किल था कि मेरे जैसे किसान परिवार का बेटा भी लोकतंत्र के मंदिर में पहुंच सकता है।

1991 के चुनाव में छह बार के विधायक जर्नादन ओझा को हराकर विधानसभा में पहुंचा था। तब वे प्रदेश सरकार में श्रम मंत्री थे। प्रदेश के कद्दावर नेता थे।

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जर्नादन ओझा जी अब दुनिया में नहीं है। वे आपके मजबूत प्रतिद्वंद्वी थे। आपने भले ही विरोध में चुनाव लड़ा लेकिन क्या उनसे कुछ सीखने को भी मिला?

-जर्नादन ओझा जी से मैने संघर्ष करना सीखा। वे राजनीति में थे, समाज के प्रति उनकी चिंता हमें हमेशा सीख देती है। हमेशा प्रयास करता हूं कि ओझा जी की तरह जनता के बीच रहूं। उनके सुख-दुख का सहभागी बनूं। इसका जनता लाभ भी देती है।

महराजगंज में सड़क की बदहाली बड़ा मुद्दा है। कुछ सड़कें बनी हैं, लेकिन बदहाल सड़कों की लंबी फेहरिस्त है।

-इंदरपुर-परतावल-महराजगंज सड़क बनी है। 10 मीटर चौड़ी टू-लेन सड़क जल्द ही फोरलेन होगी। परतावल से पनियरा-भौराबारी सात मीटर चौड़ी सड़क बन रही है। मैं इसे 10 मीटर चौड़ा बनवाना चाहता था। साल-दो साल में यह 10 मीटर चौड़ी बनेगी। मेरा प्रयास है कि बस्ती से आने वाली गाड़ियां इसी मार्ग से होकर बिहार को निकल जाएं। वाहनों का लोड बढ़ेगा तो यह सड़क भी फोरलेन बदल जाएगी।

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महराजगंज नेपाल को जोड़ने वाला बार्डर का जिला है। लेकिन यहां मेडिकल की सुविधाएं बेहद खराब है। अभी भी लोगों की निर्भरता गोरखपुर पर है। आपके आसपास के जिलों में मेडिकल कॉलेज बन रहे हैं। महराजगंज में यह पिछड़ापन क्यो?

-महराजगंज के आसपास के जिलों में मेडिकल कॉलेज की नींव पड़ी है। ऐसे में मुख्यमंत्री से लेकर विधानसभा में मेडिकल कॉलेज और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली का मुद्दा उठाया है। नेपाल के लोगों की भी निर्भरता महराजगंज पर है। मुख्यमंत्री जी भी मेडिकल कॉलेज की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं। सकारात्मक संकेत मुख्यमंत्री की तरफ से मिला है।

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