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राकेश टिकैत के आंसुओं का कमाल, रुठे दिलों को मिलाया, किसान आंदोलन किया बुलंद
28 जनवरी की रात राकेश टिकैत की आंखों से आंसू क्या निकले। किसानों के आंदोलन का केंद्र पंजाब और हरियाणा से खिसक कर पश्चिम उत्तर प्रदेश आ गया। अब बात धान और चावल की नहीं, गन्ने की होने लगी है। राकेश टिकैत किसान आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन गए।
मेरठ: 28 जनवरी की रात भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की आंखों से आंसू क्या निकले। किसानों के आंदोलन का केंद्र पंजाब और हरियाणा से खिसक कर पश्चिम उत्तर प्रदेश आ गया। अब बात धान और चावल की नहीं, गन्ने की होने लगी है। राकेश टिकैत किसान आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन गए।
भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें खीच दीं
अब वे अपने भाइयों के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की रैलियों में जाकर भाषण दे रहे हैं। यही नहीं राज्य में खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार के खिलाफ ही किसानों का ध्रुवीकरण जिस तजी से हुआ है और गहराता जा रहा है, उसने एक तरफ जहां भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें खीच दी हैं। वहीं पस्त विपक्ष के लिए संजीवनी का काम किया है। राकेश टिकैत की आंसुओं से लबरेज भावुक अपील का सबसे अहम और दिलचस्प पहलू यह है कि मीडिया को पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों और मुसलमानों में एक नई एकता दिख रही है। यही नही भारतीय किसान यूनियन से दूरी बनाकर चल रहे राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह भी इसके साथ आ गए।
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दरअसल, भाजपा के लिए क्षेत्र का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हमेशा फायदेमन्द रहा है। वर्ष 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे से धार्मिक ध्रुवीकरण का वह माहौल बना जिसने 2014 और 2019 के लोकसभा तथा 2017 के विधानसभा चुनाव में में भाजपा को स्पष्ट बहुमत लायक सीटें दिला दीं। बीते सात वर्षों में इस सूबे में भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में कोई भी सियासी दल नहीं आया और भाजपा मोदी के नेतृत्व में यूपी के बूते केंद्र की सत्ता के लिए आश्वस्त रही।
Photo-Social Media
सामाजिक ताने-बाने को एक बार फिर मिला दिया
लेकिन, टिकैत के आंसुओं ने मानों क्षेत्र के टूटे सामाजिक ताने-बाने को एक बार फिर से आपस में मिला दिया है। खासकर जाटों और मुसलमानों को,जो कि 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से एक-दूसरे से अलग हो गये थे। यही भाजपा के लिए चिंता का सबब है। इस इलाके की बदलती राजनीति के गवाह रहे 85 साल के मुस्लिम खाप नेता गुलाम जौला का मानना है कि राकेश टिकैत के आंसुओं ने किसान आंदोलन को नई जिंदगी दे दी। इसने मुस्लिम और जाट किसानों को एक साथ खड़ा कर दिया।
राकेश टिकैत की भावुक अपील के बाद 29 जनवरी, 2021 नरेश टिकैत ने मुज़फ़्फ़रनगर में एक और महापंचायत बुलाई। इसमें गुलाम जौला भी बुलाए गए थे। पिछले आठ साल से जौला टिकैत बंधुओं से दूरी बनाए हुए थे। जौला ने महेंद्र सिंह टिकैत के साथ 27 साल तक काम किया था। जौला राकेश और नरेश टिकैत के पिता और मशहूर किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के लंबे समय तक सहयोगी रहे थे। इस महापंचायत में नरेश टिकैत ने जाटों द्वारा 2019 के चुनाव में राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख अजित सिंह के ख़िलाफ़ वोट देने के लिए तो माफी मांगी ही मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में मुसलमानों पर हमला करके उन्हें नीचा दिखाने को लेकर भी माफी मांगी। जौला इस इलाके में ऊंची जाति के मुसलमान राजपूत बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं।
पश्चिम उत्तर प्रदेश में एक-तिहाई मुसलमान
पश्चिम उत्तर प्रदेश एक-तिहाई आबादी मुसलमानों की है। सात फीसदी जाट हैं। मजदूर किसान मंच से जुड़े महेश सिंह कहते हैं कि अब एक नए वर्ग का उदय हुआ है और यह किसानों का वर्ग है. यह जाति और धर्म की दीवार को ध्वस्त कर देगा। किसान एक वर्ग के तौर पर संगठित होंगे। वे कहते हैं, " आज आंदोलन के दौरान मुस्लिम और हिंदू एक ही थाली में खाना खा रहे हैं। बागपत के किसान नेता चौधरी जगदेवसिंह कहते हैं,आठ साल पहले तीन मौतों और एक महापंचायत ने ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया, जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। गंगा-जमुनी तहजीब और हिन्दू-मुस्लिम एकता को तार-तार करते हुए मुजफ्फरनगर में तीन सप्ताह तक दंगे हुए। इन दंगों ने सांप्रदायिक बंटवारे को और गहरा बना दिया। अब किसान आंदोलन ने बंटवारे की खाई को खत्म करने की कवायद की है।
गुलाम मोहम्मद जोला ने कहा, 'आठ साल बीत चुके हैं। जाट और मुसलमान दोनों ने नुकसान देखा है। जो राजनीतिक और अन्य रूप से अलग-थलग पड़ गए। अब हम एक साथ हैं। मुजफ्फरनगर महापंचायत इसकी शुरुआत थी। मुझे उम्मीद है कि यह गठजोड़ लोगों के बीच पैदा हुई खाई को पाटने के लिए एक पुल की तरह काम करेगा और लोगों को आपस में जोड़ेगा।'
पहली बार विपक्ष की एकता दिखी
यही नही इसके बहाने पहली बार विपक्ष की एकता दिख रही है और विपक्षी पार्टियां साझा तौर पर सरकार को घेर रही हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के कमजोर होने के बाद से यूपीए की खूंटा उखड़ गया था और विपक्षी पार्टियां स्वतंत्र रूप से राजनीति कर रही थीं। संसदीय रणनीति में भी कांग्रेस के साथ इक्का-दुक्का पार्टियां शामिल होती थीं। ममता बनर्जी ने कांग्रेस और लेफ्ट से अलग राह चुनी थी। बाकी विपक्षी पार्टियों में किसी के पास संख्या बल नहीं था। डीएमके शून्य पर था। लेकिन इस बार लोकसभा में विपक्ष के पास संख्या भी है और विपक्षी पार्टियों ने कांग्रेस की धुरी पर राजनीति करने का फैसला किया है।
राजनैतिक मामलों के जानकारों की मानें तो आंदोलन का सियासी रूप से रूप से देश भर में यह संदेश चला गया है कि केंद्र सरकार किसानों पर अत्याचार कर रही है और संदेश की विश्वसनीयता सड़कों पर लगाई गई कील, तारों और बैरिकेड के वीडियो और अखबारों की तस्वीर से स्थापित होने लगी है।'' सरकार या भाजपा की चिंता सिर्फ आंदोलन की वजह से नहीं है। आंदोलन तो पिछले दो महीने से अधिक समय से चल रहा है। सरकार की हालिया चिंता उन बदले हुए हालात से है, जो सियासत का गुणा-भाग बदल सकते हैं।
बड़ौत में भीड़ ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए
बीते 31 जनवरी को कृषि कानून के खिलाफ बड़ौत में हुई देशखाप की पंचायत विभिन्न खापों में एकता कराने में सफल रही। पहली बार देशखाप की पहल पर सर्वखाप जुटी और इसने बड़ौत में भीड़ के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। सभी ने एक स्वर में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत को समर्थन देने का निर्णय लिया। ऐतिहासिक रूप से देशखाप की पंचायत में सर्वखाप बालियान खाप के साथ आ गई। 32 साल बाद यह पहला मौका है, जब बालियान और देशखाप की दूरी मिटी हो। पंचायत में देशखाप चौधरियों ने कहा कि गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहा धरना किसान के स्वाभिमान और पगड़ी के सम्मान का प्रतीक है और वे राकेश टिकैत के आंसू बर्बाद नहीं होने देंगे।
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1988 में देशखाप के मुखिया चौधरी सुखबीर सिंह ने बालियान खाप के समर्थन में बड़ौत में पंचायत की थी। उस वक्त बालियान खाप के मुखिया महेंद्र सिंह टिकैत मेरठ कमिशनरी पर आंदोलन चला रहे थे। इसके बाद कुछ कारणों से बालियान खाप और देशखाप के बीच दूरियां बढ़ती चली गईं। 32 साल बाद बड़ौत की पंचायत में सारे गिले-शिकवे मिटाकर देशखाप, बालियान खाप के साथ आई है।
टिकैत के आंसुओं ने अचानक माहौल बदल दिया
दरअसल, गणतंत्र दिवस के मौके पर लाल किले पर उपद्रवियों की हरकत से केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आंदोलन की तपिश कुछ हल्की हुई थी। लेकिन राकेश टिकैत के आंसुओं ने 28 जनवरी की रात अचानक माहौल बदल दिया। गाजीपुर बॉर्डर पर मीडिया से बातचीत करते हुए अचानक राकेश टिकैत रोने लगे। रोते हुए उन्होंने कहा कि सरकार किसानों को बरबाद करना चाहती है। बार-बार राकेश टिकैत यह कहते रहे कि किसानों के साथ धोखा हुआ है। राकेश टिकैत ने रोते हुए ही घोषणा की कि अगर कृषि कानूनों को वापस नहीं लिया गया तो वह आत्महत्या कर लेंगे।
राकेश टिकैत की यह भावुक अपील किसानों के बीच बिजली की तरह कौंध गई। इसने न केवल किसानों को एकजुट कर दिया बल्कि टिकैत के विरोधी भी उनके समर्थन में आ गए। मुजफ्फरनगर में बीकेयू के नेतृत्व में किसानों की पंचायत को रालोद के प्रमुख अजित सिंह ने भी समर्थन दिया और उनके पुत्र जयंत चौधरी ने महापंचायत में हिस्सा लिया. महापंचायत में हिस्सा लेने के लिए आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह और समाजवादी पार्टी (सपा) के कई नेता भी पहुंचे थे। सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट कर बताया कि उन्होंने राकेश टिकैत से बात की है। उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार ने किसान नेताओं को जिस तरह आरोपित और प्रताडि़त किया है, उसे पूरा देश देख रहा है। हालांकि, राकेश टिकैत के आंसुओं ने अचानक सभी पार्टियों के एजेंडे में किसानों को प्रमुखता से शामिल कर दिया है।
अपने फायदे में जुट गए राजनैतिक दल
किसान आंदोलन के बहाने ये राजनैतिक दल पश्चिमी यूपी में पंचायत चुनाव के साथ ही 2022 विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गई हैं। रालोद के राष्ट्रीय महासचिव एवं पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ.मैराजुउद्दीन अहमद कहते हैं, ''मेरठ, सहारनपुर समेत पश्चिमी यूपी के हर जिले में किसान सरकार की नीतियों से नाराज हैं। किसानों को लग रहा है कि फसल का दाम तो मिल नहीं रहा, अब जमीन भी सुरक्षित नहीं है। ऐसे में रालोद अब किसानों को जगाने का काम कर रही है। किसान महापंचायत का आयोजन तो किसान खुद चाह रहे हैं।''
यूपी में खोई जमीन पाने की जुगत में लगी कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा पश्चिमी यूपी में पार्टी द्वारा आयोजित होने वाली किसानों की महापंचायतों को संबोधित करने पहुंच रही हैं। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय लल्लू कहते हैं, ''कांग्रेस विधायक 18 फरवरी से शुरू होने वाले यूपी विधानसभा के सत्र में किसानों के आंदोलन और गन्ना किसानों के मुद्दे को उठाएंगे तथा सरकार को घेरेंगे।''
मेरठ और सहारनपुर मंडल में तो बड़ी पार्टियों के बीच दलित नेता चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी और जकी अहमद की राष्ट्रीय एकता पार्टी ने भी गांव-गांव अभियान शुरू कर दिया है। ये सभी पार्टियां केंद्र और राज्य सरकार को किसान विरोधी साबित करने की भरसक कोशिश कर रही हैं। सियासत की बागडोर एक बार फिर यूपी के हाथो हाथों में है और अगर किसान नहीं माने तो अगले चुनाव परिणाम काफी चौकाने वाले हो सकते हैं।
सुशील कुमार, मेरठ