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देश का आखिरी बादशाह: दिल से था शायर, अंग्रेजों की नजर में सबसे बड़े गुनहगार
अंग्रेजों ने उन्हें हुमायूं के मकबरे से पकड़ा और भारत में कैद रखना मुनासिब न समझकर रंगून म्यांमार भेज दिया। जेल में कैद रहने के बावजूद इस शायर दिल बादशाह का मन अपनी मातृभूमि में ही लगा रहा है और आखिर तक उसकी एक ही तम्न्ना थी कि उसे मरते वक्त अपने देश की मिटटी नसीब हो।
अखिलेश तिवारी
लखनऊ। अंग्रेजों के राज में दिल्ली के इस बादशाह के साम्राज्य की सीमा चंद किमी. के दायरे में सिमट चुकी थी लेकिन अपने अति संवेदनशील शायराना मिजाज और देशभक्ति के चरम शिखर को छूने वाले जज्बे से अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने समूचे भारत पर लोगों के दिलों के रास्ते राज किया। भारत के स्वाधीनता सेनानी जब 1857 में अंग्रेजों शासन को उखाड फेंकने में जुट गए तो अपनी छोटी सी सल्तनत को बचाए रखने की अंग्रेजी कृपा प्राप्त करने की कोशिश करने के बजाय वह पहले स्वंतत्रता संग्राम में कूद पड़े और अंग्रेजों की नजर में सबसे बडे गुनहगार साबित हुए।
शायर दिल बादशाह का मन अपनी मातृभूमि में ही लगा रहा
अंग्रेजों ने उन्हें हुमायूं के मकबरे से पकड़ा और भारत में कैद रखना मुनासिब न समझकर रंगून म्यांमार भेज दिया। जेल में कैद रहने के बावजूद इस शायर दिल बादशाह का मन अपनी मातृभूमि में ही लगा रहा है और आखिर तक उसकी एक ही तम्न्ना थी कि उसे मरते वक्त अपने देश की मिटटी नसीब हो। देश के प्रति मोहब्बत का ऐलान भी उन्होंने जेल की दीवारों पर कोयले से लिखकर किया और इसे अपनी बदनसीबी करार दिया।
कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए
दो गज जमीं भी मिल न सकी कू-ए-यार में ।
मुगल वंश के आखिरी बादशाह बनने वाले बहादुर शाह जफर यानी मिर्ज़ा अबू ज़फ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फ़र. का जन्म दिल्ली में 24 अक्टूबर 1775 में हुआ और सात नवंबर 1862 में उन्होंने म्यांमार के रंगून में आखिरी सांस ली। 1838 में जब बहादुरशाह जफर ने दिल्ली की गददी संभाली तब दिल्ली सल्तनत अपनी आखिरी सांसें गिन रही थी। दिल्ली का शाहजहांबाद क्षेत्र ही वह इलाका था तब जहां तक बहादुरशाह की हुकूमत बरकरार थी और उनका हुकुम माना जाता था। अंग्रेजों के शासन काल में तब अनेक रियासतें और रजवाडे पूरी तरह सिर झुका चुके थे लेकिन बहादुर शाह जफर ने अंग्रेजों के खिलाफ पहले स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करना स्वीकार किया।
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जब बहादुर शाह जफर को कैद कर लिया गया
प्रथम स्वाधीनता संग्राम को विफल करने के बाद अंग्रेज सेना के मेजर हडस ने जब उन्हें पकड़ा तो उनके साथ उनके बेटे मिर्जा मुगल, खिजर सुल्तान और पोते अबू बकर को भी गिरफ्तार कर लिया। बहादुर शाह जफर को कैद कर लिया गया लेकिन खाने-पीने को कुछ नहीं दिया गया। जब उन्होंने भोजन मांगा तो दोनों बेटों का सिर काटकर तश्तरी में पेश कर दिया गया। इस पर भी इस बहादुर बादशाह ने सिर झुकाने के बजाय कहा कि हिंदुस्तान के बेटे देश के लिए शहीद होकर अपने बाप के सामने ऐसे ही पेश होते आए हैं।
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बहादुरशाह जफर करोड़ों हिन्दुस्तानियों के दिलों में थे
दिल्ली की सिमटी हुई रियासत का बादशाह होने के बावजूद अंग्रेजों को समझ में आ गया कि अपनी देशभक्ति भावना से बहादुरशाह जफर ने करोड़ों हिन्दुस्तानियों के दिल में जगह बना ली है ऐसे में उन्हें यहां कैद रखना मुमकिन नहीं है। तब अंग्रेजों ने उन्हें म्यांमार के रंगून शहर में एक घर में कैद कर दिया। यहां भी उन्हें लिखने-पढने की सुविधा नहीं दी गई। तब जफर ने अपनी शायरी कोयले और जली लकडी की राख से दीवाल पर लिखना शुरू कर दिया। यहीं पर उन्होंने अपनी आखिरी वसीयत देश के नाम पर लिखी और भारत के स्वाधीनता संग्राम में अमर हो गए।
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