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पुरुष ‘पोस्टर ब्वॉय’, नसबंदी का दारोमदार महिलाओं पर

raghvendra
Published on: 29 Nov 2019 7:02 AM GMT
पुरुष ‘पोस्टर ब्वॉय’, नसबंदी का दारोमदार महिलाओं पर
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सुशील कुमार

मेरठ: सनी-बॉबी देओल अभिनीत एक फिल्म आई थी ‘पोस्टर ब्वॉय।’ इस मूवी का कथानक था कि किस तरह सनी-बॉबी के बारे में फर्जी तरीके से पोस्टर छप जाते हैं कि इन्होंने नसबंदी ऑपरेशन करा लिया है। इसे लेकर वे खुद को बेइज्जत महसूस करते हैं और उन्हें क्या-क्या परेशानियां झेलनी पड़ती हैं, इसी पर पूरी फिल्म अधारित है। नसबंदी ऑपरेशन के बारे में सच्चाई और असलियत की कुछ ऐसी ही कहानी मेरठ मंडल की भी है। स्वास्थ्य महकमे के पिछले पांच साल के आंकड़े बताते हैं कि यहां भी पुरुषों में परिवार नियोजन के बारे में अहम आड़े आ जाता है। और नसंबदी ऑपरेशन का सारा जिम्मा महिलाओं पर ही है। मेरठ मंडल में बीते पांच साल के इस दौरान जो नसंबदी ऑपरेशन हुए हैं, उनमें महिलाओं की भागीदारी 95 फीसदी से ज्यादा है, जबकि पुरुषों की पांच फीसदी से भी कम। तमाम संसाधन व तकनीक उपलब्ध उपलब्ध होने के बाद भी परिवार नियोजन का भार महिलाओं के कंधों पर है।

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आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 एक अप्रैल से 31 मार्च 2019 तक मेरठ जिले में 20 हजार 580 नसबंदी ऑपरेशन हुए हैं, इनमें 19 हजार 626 महिलाओं ने नसबंदी कराई है। जबकि नसबंदी कराने वाले पुरुष महज 954 हैं। नसबंदी के लिए अधिकतर पुरुष प्रोत्साहन के लालच से आते हैं। इनमें ज्यादातर मजदूर या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले होते हैं। इसके लिए शासन ने प्रोत्साहन राशि में बढ़ोतरी भी की है। पहले के मुकाबले एक हजार रुपए बढ़ाए गए हैं, मगर फिर भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। नसबंदी ऑपरेशन के लिए मिलने वाली प्रोत्साहन राशि को लेकर भी तमाम तरह की दिक्कतें हैं। दरअसल, योजना के तहत जिनका खाता आधार से जुड़ा हुआ है, सिर्फ उन्हीं के खाते में प्रोत्साहन राशि जाती है। ऐसे में काफी लोग ऐेसे रह जाते हैं, जिन्हें प्रोत्साहन का पैसा नहीं मिल पाता है। इससे भी नसबंदी ऑपरेशन से लोग कतराते हैं। स्वास्थ्य विभाग के अफसरों का एक तर्क ये भी है कि अब परिवार नियोजन के लिए और भी कई विकल्प हैं, इसलिए नसबंदी को पुरुष सबसे आखिर में अपनाते हैं।

जागरूकता की कमी

ऐसे ही हालात मेरठ समेत दूसरे जिलों के भी हैं, जिसमें कारण सामने आया था कि पुरुष नसबंदी कराने से इसलिए बचते है कि वह घर के कमानेवाले हैं। उनका मानना है कि नसबंदी से कमजोरी आ जाएगी और वह काम नहीं कर सकेंगे, ऐसे में वह परिवार का भरणपोषण कैसे करेंगे। यही नहीं, पुरुषों का यह भी मानना है कि नसबंदी कराने से समाज में बेइज्जती होती है। पड़ोस के मुजफ्फरनगर में बीते तीन महीनों का आंकड़ा सामने आया था कि इस अवधि में सिर्फ 11 पुरुषों ने नसबंदी कराई थी जबकि महिलाओं की तादाद 400 से ज्यादा थी। इसी तरह गौतमबुद्ध नगर में 3 साल से स्वास्थ्य विभाग पुरुषों में नसबंदी की संख्या को नहीं बढ़ा पा रहा है। ऐसे में इसी साल फरवरी से एक निजी संस्था से सहयोग लिया जा रहा है।

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इसमें एक पुरुष काउंसलर अन्य पुरुषों को नसबंदी के लिए प्रेरित करता है। इसी साल फरवरी से अब तक 18 पुरुष नसबंदी करा चुके हैं। इसके साथ ही 30 से अधिक पुरुष नसबंदी के लिए चिह्नित किए गए हैं। जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. अनुराग भार्गव कहते हैं, ‘हमारी तरफ से लोगों को जनसंख्या नियंत्रण के लिए लगातार प्रेरित किया जा रहा है। महिलाएं तो आसानी से नसबंदी करा लेती हैं। पुरुषों में नसबंदी कराने को लेकर अब भी जागरूकता का अभाव देखने को मिलता है। हमारी कोशिश है कि इस साल पुरुषों में नसबंदी अधिक संख्या में करा सकें।’

महिलाओं पर जिम्मेदारी

गाजियाबाद जिले में परिवार नियोजन की जिम्मेदारी भी महिलाओं के कंधे पर है। हेल्थ मैनेजमेंट इन्फॉर्मेशन सिस्टम (एचएमआईएस) के आंकड़े बताते हैं कि गाजियाबाद में पिछले एक साल (2018-2019) में मात्र 30 पुरुषों ने ही नसबंदी कराई, जबकि महिलाओं की संख्या 1203 थी। वहीं 2017-2018 में 28 पुरुषों और 1403 महिलाओं ने नसबंदी अपनाई थी। इसके अलावा मिनीलैप लगवाने वाली महिलाओं की संख्या 234 रही। यानी गर्भनिरोधक के तरीके अपनाने में पुरुष महिलाओं से बहुत पीछे हैं। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों पर नजर डालें तो गर्भ निरोधक गोलियां और इंजेक्शन लेने में महिलाओं का आंकड़ा पुरुषों से कहीं ज्यादा है। वहीं कन्डोम का इस्तेमाल करने वाले पुरुषों की संख्या सौ से भी कम है। जिला महिला अस्पताल के अनुसार, अस्पताल में आने वाली हर दस में से दो महिलाएं गर्भ निरोधक के तरीके अपनाती हैं, लेकिन उनके पति इससे बचते हैं। जिला महिला अस्पताल की सीएमएस डॉ. दीपा त्यागी ने बताया कि नसबंदी कराने से पुरुष कतराते हैं और महिलाओं को आगे करते हैं।

भ्रांतियां और जागरूकता का अभाव

मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. राजकुमार कहते हैं, कि महिला चिकित्सालय, मेडिकल कॉलेज, मवाना, सरधना और दौराला सीएचसी पर नसंबदी कराई जाती है। इसके लिए जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं, मगर पुरुषों में इसे लेकर उत्साह नहीं है। कई भ्रांतियां हैं और जागरूकता का अभाव है। इसके लिए लाभार्थी को तीन हजार रुपए और प्रेरक को चार सौ रुपए दिए जाते हैं, पहले यह राशि क्रमश: दो हजार और तीन सौ रुपए थी। विभागीय अफसर मानते हैं कि स्वास्थ्य विभाग अपना टारगेट पूरा नहीं कर पाता है। पिछले पांच सालों से महिलाओं और पुरुषों का टारगेट फिक्स है, मगर एक भी साल यह पूरा नहीं हो पाया है। मेरठ में प्रतिवर्ष नसबंदी ऑपरेशन का टारगेट करीब 16 हजार है।

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जनसंख्या पर एक एनजीओ की संचालिका रेखा सिंह कहती हैं, ‘पुरुषों में नसबंदी को लेकर कई गलत धारणाएं हैं। इनमें से एक यह कि नसबंदी के बाद उनकी ताकत में कमी आ जाएगी। दूसरी यह कि भारत जैसे पुरुष प्रधान देश में नसबंदी को मर्दानगी से जोडक़र देखा जाता है। ऐसे में समाज की ओर से तो महिलाओं पर नसबंदी का दबाव बन ही जाता है। साथ ही साथ स्वास्थ्य प्रणाली भी महिलाओं पर ये जि़म्मेदारी डालने की कोशिश करती है। फिर स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए महिलाओं को बहलाना भी पुरुषों के मुकाबले ज़्यादा आसान होता है। नतीजा नसबंदी शिविरों में ज़्यादातर महिलाओं को ही देखा जाता है। नसबंदी के लिए सरकार की ओर से पुरुषों को महिलाओं के मुकाबले ज़्यादा पैसा दिया जाता है फिर भी पुरुष नसबंदी शिविरों में बढ़-चढक़र भाग नहीं लेते। भारत में मर्दों के लिए उनकी मर्दानगी बेशकीमती है। चाहे उन्हें कितना भी पैसा मिले, वे अपनी मर्दानगी पर कोई सवाल नहीं उठने देना चाहते। साथ ही पुरुषों को इस बात का भी डर रहता है कि अगर अपनी नसबंदी करवाने के बाद भी उनकी पत्नी गर्भवती हो गई, तो वे समाज को क्या मुंह दिखाएंगे।’

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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