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इस बड़े नेता की सदस्यता छिनीः कभी बोलती थी तूती, आज बन गए आँख की किरकिरी

कहावत है कि राजनीति में कब कौन किसका दोस्त हो जाए और कब कौन किसका दुश्मन इसका कोई ठिकाना नहीं। ऐसा ही कुछ हुआ बुंदेलखंड के कद्दावर नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी के साथ।

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Published on: 22 July 2020 12:08 PM IST
इस बड़े नेता की सदस्यता छिनीः कभी बोलती थी तूती, आज बन गए आँख की किरकिरी
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लखनऊ: कहावत है कि राजनीति में कब कौन किसका दोस्त हो जाए और कब कौन किसका दुश्मन इसका कोई ठिकाना नहीं। ऐसा ही कुछ हुआ बुंदेलखंड के कद्दावर नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी के साथ। कभी बहुजन समाज पार्टी अध्यक्ष मायावती के बेहद करीबी और बगलगीर रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी अब उन्हे फूंटी आंख नहीं सुहा रहे है। हालात यह है कि बसपा ने दल-बदल कानून के तहहत उनकी विधान परिषद की सदस्यता तक रद्द करवा दी है।

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कभी थे मायावती के करीबियों में से एक

बसपा में पार्टी सुप्रीमों मायावती के सबसे खास रहे बाबू सिंह कुशवाहा के निष्कासन के बाद नसीमुद्दीन सिद्दकी ही वह शख्स थे जिनकी गिनती मायावती के करीबियों में होती थी। वर्ष 2007 की बसपा सरकार में नसीमुद्दीन की हैसियत किसी मिनी मुख्यमंत्री से कम नहीं थी। लोक निर्माण, आबकारी और सिंचाई जैसे कई अहम विभागों के काबीना मंत्री होने के साथ ही वह बसपा का मुस्लिम चेहरा भी थे।

वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने मुस्लिम वोटों की जिम्मेदारी नसीमुद्दीन को दी। पर, नतीजे सपा के पक्ष में आये और माना गया कि मुस्लिम वोट एकतरफा सपा के पाले में चला गया। यह वह पहला वाक्या था जबकि बसपा में नसीमुद्दीन की काफी किरकिरी हुई थी। बसपा सुप्रीमों भी इससे नाराज थी लेकिन इसके बावजूद उन्होंने नसीमुद्दीन सिद्दकी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की और वर्ष 2015 में उन्हे बसपा से विधान परिषद ही नहीं भेजा बल्कि बसपा विधान परिषद दल का नेता भी बनाया।

इसके बाद वर्ष 2017 के चुनाव के पूर्व नसीमुद्दीन ने एक भाजपा नेता दया शंकर सिंह के खिलाफ निजी बयानबाजी कर दी। इस निजी बयानबाजी से नाराज उक्त भाजपा नेता की पत्नी द्वारा सियासी बवाल खड़ा कर दिया गया। भाजपा ने उक्त भाजपा नेता की पत्नी को विधानसभा मैदान में उतार दिया और वह जीत भी गई। इससे बसपा सुप्रीमों की नसीमुद्दीन के प्रति नाराजगी बढ़ती गई। इसी बीच बसपा में धन के लेनदेन को लेकर पार्टी सुप्रीमों मायावती और नसीमुद्दीन के बीच कड़वाहट आयी। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने 27 मई 2017 को अपना एक अलग दल राष्ट्रीय बहुजन मोर्चा बना लिया।

बसपा ने विधान परिषद में सुनील कुमार चित्तौड़ को दल का नेता बना दिया

नसीमुद्दीन द्वारा अपना अलग दल बना लेने के बाद बसपा ने विधान परिषद में सुनील कुमार चित्तौड़ को दल का नेता बना दिया। सुनील चित्तौड़ ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी की सदस्यता समाप्त करने के लिए एक याचिका विधान परिषद सभापति के समक्ष पेश की लेकिन सभापति ने उक्त याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि याचिका तथ्यों से यह साबित नहीं होता कि नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने अपने मूल राजनीतिक दल बसपा छोड़ दी है।

इसके बाद 22 फरवरी 2018 को नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। इस पर बसपा के विधान परिषद दल के नेता सुनील चित्तौड़ ने सर्वोच्च न्यायालय के राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य के वाद में दिए गए आदेश का हवाला देते हुए फिर से विधान परिषद सभापति के समक्ष नसीमुद्दीन सिद्दीकी की विधान परिषद सदस्यता समाप्त करने की याचिका पेश की। इस याचिका में सुनील चित्तौड़ ने कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि सदस्यता उसी दिन से अयोग्य मानी जायेगी जिस दिन से सदस्य ने स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल का त्याग किया हो।

24 सितम्बर 2018 को सभापति के समक्ष दोनों पक्षों की सुनवाई हुई

इस याचिका पर सभापति ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को अपना पक्ष रखने के लिए तीन बार 15-15 दिन का समय दिया। इसके बाद 24 सितम्बर 2018 को सभापति के समक्ष दोनों पक्षों की सुनवाई हुई। सुनवाई में नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने अपना जवाब दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने का अनुरोध किया गया और कहा गया कि उनके ऊपर दल-बदल कानून किसी भी प्रकार से लागू नहीं होता है। इसलिए याचिका निरस्त कर देनी चाहिए। इसके साथ ही नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने अपना पक्ष रखते हुए यह भी कहा कि उन्होंने बसपा छोड़ी नहीं थी बल्कि उन्हे बसपा से निकाला गया था और सभापति ने उन्हे असम्बद्ध घोषित करते हुए परिषद में मान्यता दी थी और उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता असम्बद्ध सदस्य के तौर पर ग्रहण की थी। 29 मई 2019 को सभापति ने इस मामले में फैसला सुरक्षित कर लिया लेकिन सुनाया नहीं।

सभापति द्वारा लंबे समय तक फैसला नहीं सुनाये जाने से नाराज बसपा ने उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में फैसला जल्द सुनाये जाने को लेकर एक याचिका पेश कर दी। बसपा के वकील सतीश चंद्र मिश्र और सुनील कुमार चैधरी ने न्यायालय में बहस की जिसके बाद उच्च न्यायालय ने बीती 09 जुलाई को सभापति विधान परिषद को नसीमुद्दीन को विधान परिषद की सदस्यता से अयोग्य देने संबंधी याचिका पर अगले 15 दिन में फैसला देने का निर्देश दिया। उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद विधान परिषद सभापति रमेश यादव ने बीते मंगलवार को फैसला सुनाते हुए नसीमुद्दीन सिद्दीकी की विधान परिषद सदस्यता रद कर दी।

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बता दे कि नसीमुद्दीन ने वर्ष 1988 में अपने राजनीतिक पारी की शुरुआत की थी। उन्होंने बांदा नगर निगम के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए। इसके बाद इसी साल उन्होंने बसपा का दामन थाम लिया। वर्ष 1991 में उन्होंने बसपा के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ा और बसपा के पहले मुस्लिम विधायक बने। लेकिन इसके महज दो साल बाद वर्ष 1993 में वह हार गए लेकिन इस दौरान वह मायावती का विश्वास जीत चुके थे लिहाजा वर्ष 1995 में मायावती के मुख्यमंत्री बनने पर वह उनकी सरकार में काबीना मंत्री बने। इसके बाद वर्ष 1997, वर्ष 2002 में भी मायावती के शासन में उन्हे मंत्री बनाया गया। वर्ष 2007 में यूपी में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने पर उनके पास कई अहम विभाग थे और वह सबसे ताकतवर मंत्री बन कर सामने आए।

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