क्षत्रपों का लौटने लगा दौर, चरम के बाद ढलान पर आना प्रकृति का नियम

raghvendra
Published on: 27 Dec 2019 7:22 AM GMT
क्षत्रपों का लौटने लगा दौर, चरम के बाद ढलान पर आना प्रकृति का नियम
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मनीष श्रीवास्तव

लखनऊ: चरम पर पहुंचने के बाद ढलान पर आना प्रकृति का नियम है। देश के छह राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली पराजय शायद इसी ओर संकेत दे रही है। यह पराजय बता रही है कि वर्ष 2017 में देश के 19 राज्यों के राजनीतिक क्षितिज पर चमकने वाले भगवा सूर्य की लालिमा अब कम होने लगी है। इस दौरान पार्टी ने छह राज्यों में सत्ता गंवाई है। वर्ष 2017 में देश के 75 प्रतिशत हिस्से पर काबिज हो गई भाजपा अब लगभग आधे से भी कम, 34 फीसदी पर सिमट कर रही गई है। दिलचस्प यह है कि राज्यों में भाजपा को चुनौती कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय या बड़ी पार्टी से ही नहीं है, बल्कि इस पर क्षेत्रीय दलों का ग्रहण भी लग रहा है।

नीचे गया सियासी पारा

वर्ष 2018 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवाने के बाद वर्ष 2019 में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में तो दोबारा सत्ता में वापसी की लेकिन फिर हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखण्ड में उसका सियासी पारा नीचे जाते दिखा। हरियाणा में दुष्यंत चौटाला के सहयोग से किसी तरह भाजपा सत्ता में काबिज हुई। भाजपा महाराष्ट्र में इससे भी चूक गई, जबकि हाल ही में आये झारखण्ड चुनाव के नतीजों ने तो भाजपा रणनीतिकारों की माथे पर सिलवटें बढ़ा दी हैं। भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान झारखण्ड में हुआ है। भाजपा का अति आत्मविश्वास और ‘एकला चलो’ की नीति ने यहां उसे इस स्थिति में ला दिया कि लोकसभा चुनाव में राज्य की 14 सीटों में से 11 सीटों पर मिली बंपर जीत के कुछ ही समय बाद हुए विधानसभा चुनाव उसकी पराजय तय कर गए।

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हाल राज्यों का

लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली सफलता को झारखण्ड में विधानसभा क्षेत्रवार देखें तो पार्टी को 59.07 प्रतिशत मतों के साथ 54 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। जबकि आज उसकी झोली में केवल 25 विधायक और 33.37 प्रतिशत वोट आये। पिछले चुनाव के लिहाज से भाजपा की झोली में इस बार तीन फीसदी अधिक वोट आये। कुछ समय पूर्व हुए महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में भी ऐसी ही स्थिति बनी थी।

महाराष्ट्र में वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 123 और सहयोगी शिवसेना को 63 सीटों पर सफलता मिली थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 27.84 व उसकी सहयोगी शिवसेना को 23.5 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। दोनों के 41 सांसद जीते। लोकसभा चुनाव के कुछ माह बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा और उसकी सहयोगी शिवसेना को मिली सीटों की संख्या में कमी आ गयी। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019 में भाजपा को 105 तो शिवसेना को 56 सीटों पर सफलता मिली।

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इसी तरह हरियाणा में वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 47 सीटों पर कामयाबी मिली थी। बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को 58.21 प्रतिशत मत और 10 सांसद मिले। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 40 सीटों पर ही सफलता मिल पायी और उसे सरकार बनाने के लिए दुष्यंत चैटाला की जननायक जनता पार्टी के 10 विधायकों का समर्थन लेना पड़ा। हरियाणा में भी भाजपा का ग्राफ गिरने के लिए मनोहर लाल खट्टर के रूप में गैर जाट मुख्यमंत्री थोपा जाना माना जा रहा है। खट्टर, जाट आंदोलन को संभालने में कामयाब नहीं हो पाये तथा विधानसभा चुनाव में राज्य की 32 जाट बाहुल्य सीटों में से भाजपा को महज आठ सीटें ही मिल पायीं।

राजस्थान, एमपी, छत्तीसगढ़ और गुजरात

लोकसभा चुनाव से पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी कुछ ऐसा ही हुआ। राजस्थान में वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 163 सीटों पर सफलता मिली थी। लेकिन वर्ष 2018 विधानसभा चुनाव के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से नाराजगी में ‘मोदी तुझसे बैर नहीं-वसुंधरा तेरी खैर नहीं’ के नारे भी लगे। यहां मुख्यमंत्री से जनता की नाराजगी भाजपा को भारी पड़ी। उसके विधायकों की संख्या 73 रह गयी। हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में नाराजगी नदारद दिखी। भाजपा को 59.07 प्रतिशत मतों के साथ लोकसभा की सभी सीटें जीतने में कामयाबी मिली।

मध्यप्रदेश में भी वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली 165 सीटें वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में घटकर 109 हो गयीं। भाजपा केवल सात सीटों से बहुमत पाने से वंचित रह गयी। शिवराज मंत्रिमंडल के 13 काबीना मंत्री चुनाव में हार गए। हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 58.24 प्रतिशत मतों के साथ 28 सीटें हासिल हुईं।

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वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में 49 सीटों के साथ बहुमत हासिल करने वाले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह को 2018 के विधानसभा चुनाव में महज 15 सीटों पर ही सिमटना पड़ा। जबकि यहां बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को 51.44 प्रतिशत वोटों और नौ सीटों पर सफलता मिली।

सबसे ज्यादा चौंकाने वाले परिणाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृहराज्य गुजरात में देखने को मिले। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के 115 विधायक जीते थे। जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 99 के चक्कर में सिमट कर रह गयी। यहां भी बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा 63 फीसदी से अधिक वोट और कुल 26 सीटें जीतने में कामयाब रही।

बढ़ता जा रहा मोदी का जादू लेकिन राज्यों के नुमाइंदे पसंद नहीं

लोकसभा और विधानसभा चुनाव के नतीजे जो संदेश दे रहे हैं उसे पढ़ा जाए तो यह साफ होता है कि जनता का नरेंद्र मोदी के प्रति आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा है लेकिन राज्यों में उनके द्वारा मनोनीत नुमाइंदों को जनता स्वीकार करने को तैयार नहीं है। राज्यों में भाजपा जिस फार्मूले का उपयोग कर रही है वह उसके लिए कारगर नहीं है, यह संदेश राज्यों के चुनावी नतीजों से निकल कर आ रहा है। यही कारण है कि जब देश की जनता के सामने केंद्रीय स्तर पर चुनाव का सवाल आता है तो आज भी उनकी पहली पसंद मोदी ही हैं। लेकिन राज्यों में ऐसा नहीं है। भाजपा शासित अधिकतर राज्यों में विधायकों या कार्यकर्ताओं की इच्छा से मुख्यमंत्री बनाने के स्थान पर उन्हें थोप दिए जाने को जनता द्वारा खारिज किया गया है। इन थोपे गए मुख्यमंत्रियों ने सामाजिक समीकरणों को साधने के लिए कुछ भी नहीं किया।

छत्तीसगढ़ में चावल वाले बाबा कहे जाने वाले मुख्यमंत्री रमन सिंह भी सामाजिक समीकरणों को नहीं साध पाए। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान का ‘माई के लाल’ वाला बयान सवर्णों की नाराजगी का कारण बना। झारखण्ड में रघुवर दास आदिवासियों से संतुलन नहीं साध पाए। उनके भूमि अधिग्रहण कानून ने आदिवासियों को नाराज किया। हालांकि इसे उन्हें वापस लेना पड़ा। गौरतलब है कि झारखण्ड में आदिवासियों की आबादी 26 प्रतिशत है और करीब 30 विधानसभा सीटों पर वह निर्णायक स्थिति में हैं।

महाराष्ट्र में देवेंद्र फणनवीस को आरक्षण के सवाल पर मराठों का गुस्सा भारी पड़ा हालांकि उन्हें दबाव में ही सही, मराठा आरक्षण का एलान करना पड़ा। यही नहीं, हरियाणा में गैर जाट, झारखण्ड में गैर आदिवासी और महाराष्ट्र में गैर मराठा मुख्यमंत्री का फार्मूला भी भाजपा जनता के गले के नीचे नहीं उतार पायी। इसकी बड़ी वजह इन मुख्यमंत्रियों के कामकाज के तरीके रहे। इसकेचलते ही जनता ही नहीं, पार्टी कार्यकर्ता भी उदासीन हुए। इसकी शिकायत झारखण्ड और हरियाणा से तो केंद्रीय नेतृत्व को लगातार मिलती रही। वहीं, हाल फिलहाल उत्तर प्रदेश में विधायकों का एक बड़ा तबका अपने ही मुख्यमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोल कर सत्र के दौरान धरने पर बैठ गया।

केंद्र में निरंतर प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने वाली भाजपा के केंद्रीय नेताओं की पेशानी पर इस बात ने बल डाल रखा है कि आखिर जो जनता केंद्र में भाजपा और नरेंद्र मोदी को 50 फीसदी से अधिक वोट दे रही है, राज्यों में उसका आधार लगातार क्यों छीजता जा रहा है? झारखण्ड के चुनाव ने इस सवाल पर केंद्रीय नेतृत्व को सोचने के लिए और मजबूर कर दिया है। भाजपा को बने रहने के लिए इसी सवाल का हल तलाशना होगा।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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