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दिवाली 2020: गोरखपुर के टेराकोटा की बाजार में धूम, बदले रंग रूप में दी दस्तक

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल और चाइना के बायकाट के बीच टेराकोटा के उत्पादों को नई उड़ान मिली है। लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमाओं से लेकर डिजाइनर दीयों की खूब धूम है।

Newstrack
Published on: 11 Nov 2020 6:30 AM GMT
दिवाली 2020: गोरखपुर के टेराकोटा की बाजार में धूम, बदले रंग रूप में दी दस्तक
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दिवाली में गोरखपुर के टेराकोटा को मिली नई उड़ान, बदले रंग रूप में बाजार में दी मजबूत दस्तक (Photo by social media)

गोरखपुर: दीपोत्सव दस्तक दे चुका है। गोरखपुर के औरंगाबाद और आसपास के दर्जन भर गांवों के घर-घर में इन दिनों गीली मिट्टी के लोदे को डिजाइनर दीये का स्वरूप देते शिल्पकार नजर आते हैं। मुंहमांगे दामों पर बिकने वाले इन दीयों को डिमांड देश ही नहीं विदेशों में भी है। ‘एक जिला-एक उत्पाद’ योजना में टेराकोटा के शामिल होने के बाद शिल्प को नई उड़ान मिली है। परम्परा से हटकर शिल्प के साथ बदले रंग रूप ने टेराकोटा को नई उड़ान दी है। गोरखपुर के प्रमुख चौराहों ही नहीं आसपास के जिलों में टेराकोटा शिल्प की धूम है।

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लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमाओं से लेकर डिजाइनर दीयों की खूब धूम है

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल और चाइना के बायकाट के बीच टेराकोटा के उत्पादों को नई उड़ान मिली है। लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमाओं से लेकर डिजाइनर दीयों की खूब धूम है। परम्परागत हाथी, घोड़ा और झूमर से इतर यहां के शिल्पकारों ने कई उत्पाद बनाए है। इलेक्ट्रिक चॉक और डिजाइन को लेकर हुई वर्कशाप का असर इनके उत्पादों पर साफ दिख रहा है। औरंगाबाद के शिल्पकारों के हाथों के जादू का कमाल कामनवेल्थ गेम से लेकर राष्टपति भवन के मुगल गार्डेन तक दिखता है।

Terracotta-gorakhpur-matter Terracotta-gorakhpur-matter (Photo by social media)

प्रगति मैदान हो या देश में टेराकोटा शिल्प को लेकर आयोजन बगैर औरंगाबाद के शिल्प के यह परवान नहीं चढ़ते हैं। गोरखपुर शहर से 15 किलोमीटर पर स्थित औरंगाबाद गांव में हाथ के हुनर की परम्परा पिछले चार दशक से चली आ रही है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर पूर्व राष्टपति राजेन्द्र प्रसाद सरीखे लोगों को गांव का शिल्प बरबस ही खींच चुका है। दीपावली के दिनों में इनके शिल्प की जबर्दस्त डिमांड है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई व गुजरात के व्यापारी इनके शिल्प को विदेशों तक पहुंच रहे हैं। इनके स्पेशल दीए की कीमत 25 से लेकर 500 रूपए तक है। वही कई शिल्प दस हजार तक में बिक जाते हैं।

शिल्पकार रामचन्द्र प्रजापति बताते हैं

Terracotta-gorakhpur-matter (Photo by social media) Terracotta-gorakhpur-matter (Photo by social media)

शिल्पकार रामचन्द्र प्रजापति बताते हैं कि 'शुरूआती दिनों में कला सिर्फ औरंगाबाद तक ही सिमित थी पर रोजगार के चलते इस हुनर को दर्जन भर गांव के लोगों ने अपना लिया है।' औरंगाबाद, भरवलिया, अमवा गुंलरिया, जंगल अकेला, पादरी बाजार, बेलवा रायपुर आदि में फैले हुए शिल्पकारों की अपनी पहचान है। ये कलाकार पारम्परिक रूप से घोड़े, हाथी, ऊट महावत के हौदे, हाथी, गणेश और भगवान बुद्ध की प्रतिमाओं की शिल्पकारी के लिए प्रसिद्ध हैं। अब ये कलाकार लैम्प शेड, झूमर भी बनाने लगे हैं। भारतीय डाक विभाग भी टेराकोटा शिल्प की इस अनूठी कला पर संस्मारक डाक टिकट जारी कर चुका है।

समय के साथ बदला रंग

टेराकोटा शिल्प पूरी तरह प्राकृतिक है। शिल्पकार चटख लाल रंग के लिए किसी कृतिम पदार्थ का प्रयोग नहीं करते हैं। लेकिन बाजार की मांग को देखते हुए अब शिल्पकार कृतिम रंग भर रहे हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के कलेंडर पर छप चुकीं शिल्पकार बेलासी देवी बताती हैं कि ‘बरगदही गांव में स्थित पोखरे के पीली मिट्टी में जादू है। रंग के लिए इसमें कुछ नहीं मिलाया जाता है। सोडा व आम के छाल से बने घोल में मिट्टी के आकृति को डुबा कर भट्ठी में पकाया जाता है। वर्षो तक इसका रंग फीका पहीं पड़ता है। अब बाजार की मांग को देखते हुए शिल्प में कृतिम रंग का प्रयोग कर रहे हैं।’

Terracotta-gorakhpur-matter (Photo by social media) Terracotta-gorakhpur-matter (Photo by social media)

आठ से दस हजार में एक ट्राली मिट्टी

प्रदेश में अवैध खनन पर रोक का असर यहां के शिल्पकारों पर भी साफ दिख रहा है। जिस पोखरे की एक ट्राली मिट्टी इन्हें 2 से 3 हजार रुपये में मिल जाती थी उसकी कीमत आठ से दस हजार रुपये तक पहुंच चुकी है। शिल्पकार कैलाश प्रजापति कहते हैं कि 'मिट्टी हमारे लिए सोना है। एक टाली मिट्टी से 50 हजार से अधिक का शिल्प तैयार हो जाता है।' अनुसूचित जाति के शिल्पकार ओमप्रकाश कई लोगों के लिए प्रेरणा श्रोत बन गए हैं।

Terracotta-gorakhpur-matter (Photo by social media) Terracotta-gorakhpur-matter (Photo by social media)

ओमप्रकाश बताते हैं कि '20 साल पहले भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय द्वारा संचालित प्रशिक्षण कार्यक्रम से काफी लाभ हुआ था। खेती के साथ टेराकोटा का काम कर साल भर में एक लाख से अधिक की बचत हो जाती थी। लेकिन मिट्टी की महंगाई ने शिल्पकारों की कमर तोड़ दी है।' कभी सुविधा के लिए सरकार का मुंह देखने वाले शिल्पकारों में गजब का आत्मविश्वास आ चुका है।

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अब बिचैलिये नहीं काट पाते चांदी

सूरज की रोशनी के साथ शाम ढ़लने तक हाथों के हूनर से गीली मिट्टी को एक से बढ़कर आकार देने वालों की असल मेहनत पर बिचैलियों की चांदी होती थी। लेकिन सरकार द्वारा शिल्पकारों को बाजार मुहैया कराने का नतीजा है कि औरंगाबाद समेत आधा दर्जन गांव में इन दिनों बिचैलियों का आमदरफ्त नहीं दिखती है।

रिपोर्ट- पूर्णिमा श्रीवास्तव

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