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बदला लेना किलिंग मशीन मोसाद से सीखो, जो ना तो भूलते हैं, ना ही माफ करते हैं

मोसाद का गठन 13 दिसंबर 1949 इजरायल की स्थापना के तुरंत बाद प्रथम प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन ने किया था। इजरायल की आजादी के लिए ब्रिटिश फिलिस्तीन में संघर्ष कर रहे यहूदी उग्रवादी ग्रुप्स हगानाह, इरगुन, लेही, पालमच को मिला कर मोसाद का गठन हुआ।

Rishi
Published on: 19 May 2019 10:50 AM IST
बदला लेना किलिंग मशीन मोसाद से सीखो, जो ना तो भूलते हैं, ना ही माफ करते हैं
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नई दिल्ली : मोसाद का गठन 13 दिसंबर 1949 इजरायल की स्थापना के तुरंत बाद प्रथम प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन ने किया था। इजरायल की आजादी के लिए ब्रिटिश फिलिस्तीन में संघर्ष कर रहे यहूदी उग्रवादी ग्रुप्स हगानाह, इरगुन, लेही, पालमच को मिला कर मोसाद का गठन हुआ।

मोसाद के पहले निदेशक बने रूवेन शिलोह। वर्तमान में दुनिया के कई ताकतवर देश भी खुफिया सेवाओं के लिए मोसाद की हेल्प लेते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं वो अपने एजेंट्स को मोसाद से ट्रेनिंग भी दिलवाते हैं। मोसाद ने ‘फाल्स फ्लैग ऑपरेशन’(कोवर्ट ऑपरेशन्स) में दुनिया भर में बहुत नाम कमाया है।

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गोल्डा मेयर ने बड़ी ताकत बनाया मोसाद को

गोल्डा मेयर देश की चौथी पीएम थी। उनके कार्यकाल में ऐसी दिल दहला देने वाली घटना घटी। जिसने पहले तो इजरायल को दुःख के समंदर में डुबो दिया और उसके बाद जब इसका बदला लिया गया तो दुनिया दहल उठी। बात 1972 की है। गोल्डा ने ऑपरेशन व्रैथ ऑफ गॉड (ईश्वर का कहर) को अपनी मंजूरी दी। अगले 20 साल तक (इस दौरान गोल्डा की मौत भी हो गई) मोसाद ने म्यूनिख़ नरसंहार में शामिल आतंकियों को दुनिया भर में खोज कर मौत के घाट उतारा।

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क्या था ऑपरेशन रैथ ऑफ गॉड

1972 में म्यूनिख में ओलंपिक हो रहा था। दुनिया भर के देशों के खिलाड़ियों के साथ ही इजराइल ओलंपिक टीम भी जर्मनी में मौजूद थी। हर तरफ रंगीनियां फैली हुईं थीं। जश्न का माहौल था। इसी बीच इजराइल ओलंपिक टीम के 11 खिलाड़ियों को होटल में मार दिया जाता है। इसका आरोप लगा ब्लैक सेपटमबर और फलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन पर। पीएम गोल्डा मेयर के लिए ये नाकाबिले बर्दाश्त बात थी। बदला तो लेना था और ऐसा लेना था कि दुनिया इजराइल और उसके नागरिकों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझे।

अब होती है मोसाद की इंट्री। 11 लोग उसकी हिट लिस्ट में थे। इनमें से कई बदले नामों के साथ दुनिया के अलग-अलग देशों में छिपे थे। लेकिन मोसाद के एजेंट तो बिलकुल अपनी साऊथ के हीरो बन चुके थे। फोन बम, नकली पासपोर्ट, उड़ती हुई कारें सब कुछ हुआ इस मिशन में। मोसाद के एजेंट प्रोटोकॉल ऐसे तोड़ते थे जैसे वो ककड़ी हो। जहां टारगेट की खबर मिली वहां घुसे और उसे मार कर ही निकले।

ये एजेंट पहले अपने टारगेट की फेमिली को बड़ा सा बुके भेजते। जिसमें मैसेज लिखा होता था, ये याद दिलाने के लिये कि हम ना तो भूलते हैं, ना ही माफ करते हैं। हर टारगेट को मरे हुए 11 इजराइली खिलाड़ियों में से हर एक की तरफ से 11 गोलियां मारी जाती थी।

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महमूद अल मबूह की हत्या

19 जनवरी 2010 को दुबई के अल बुस्तान रोताना होटल में एक हत्या हुई। दस दिन लग गए दुबई पुलिस को साबित करने में कि ये मौत नहीं हत्या है। मरने वाले का नाम था महमूद अल मबूह। ये वो बंदा था जो आतंकी ग्रुप हमास के लिये हथियार मुहैया कराता था।

दुबई पुलिस की जांच में पता चला कि मबूह को सक्सिनीकोलीन का इंजेक्शन दिया गया था। जिससे उसे पैरालाइसिस का अटैक पड़ा और उसके बाद तकिए से उसका दम घोट दिया गया। ये काम अंजाम दिया था मोसाद के हिट स्क्वॉड ने, जिसमें लड़कियां होती हैं। एजेंट्स ने मबूह के रूम के सामने रूम बुक किया। उसपर 24 घंटे नजर रखी जाने लगी। जब एजेंट्स को मौका मिला तो उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक डोर सेटिंग चेंज कर लिया। जब मबूह वापस लौटा तो एजेंट्स उसके कमरे में दाखिल हुए और उसे मार के निकल लिए।

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कौन था अल मबूह

मबूह से 21 साल पहले का बदला लिया था मोसाद ने। अल मबूह फिलिस्तीनी आतंकी ग्रुप हमास की मिलिट्री विंग का फाउंडर था। 1989 में मबूह ने दो इजराइली सैनिकों की हत्या की थी। मबूह को इस बात का पहले से ही अंदाजा था कि उसे मरना तो है। इसीलिए वो यूरोप और फलिस्तीन में नजर नहीं आता था। लेकिन उसे ये नहीं पता था वो उस दुबई में मारा जाएगा जहां वो सबसे ज्यादा सुरक्षित है।

मोसाद 21 साल तक उसे दुनिया भर में खोज रहा था। उसकी खोज में 33 एजेंट लगाए गए। इस ग्रुप को नाम मिला सीजेरिया। एजेंट ब्रिटेन, फ्रांस, आयरलैंड और सीरिया के साथ सऊदी अरब के पासपोर्ट बनवा उसे दुनिया भर में खोज रहे थे। मोसाद को पता चला की मबूह दुबई में अपना ठिकाना बना चुका है। ये एजेंट दुबई पहुंचे और अपना टास्क पूरा किया और इजराइल निकल लिए।

अबू जिहाद और उसके नाम की सत्तर गोलियां

यासिर अराफात का सबसे करीबी खलील अल वजीर उर्फ़ अबू जिहाद ट्यूनीशिया में छुपा था। मोसाद इसे किसी भी कीमत पर मारने पर उतारू था। इस मिशन के लिए 30 एजेंट चुने गए। ये सभी टूरिस्ट बन ट्यूनीशिया में दाखिल हुए। कई दिनों तक उसकी रेकी की गई। इसके बाद नियत समय पर सारे एजेंट जिहाद के घर पहुंचे। उस समय इजराइल का बोइंग 707 आकाश में मंडरा रहा था। उसमें बैठे एजेंट्स ने सिटी के कम्युनिकेशन सिस्टम को ब्लॉक कर दिया। एजेंट्स घर में घुसते हैं नौकरों के वेश में रह रहे गार्ड्स को मारते हैं। अबू को उसकी फैमिली के सामने 70 गोलियां मार टहलते हुए निकल लेते हैं।

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ऑपरेशन थंडरबोल्ट, जब दुनिया को पता चला मोसाद द किलिंग मशीन के बारे में

दिन 27 जून साल 1976, स्थान बेनगुरियन इंटरनेशनल एयरपोर्ट, तेल अवीव

रात के 11 बजे एयरबस ए300 वी4-203 तेल अवीव से एथेंस के लिए चली। एयरबस में 246 यात्री और 12 क्रू मेंबर थे। लगभग डेढ़ घंटे बाद प्लेन एथेंस पहुंच जाता है। अब उसे पेरिस जाना था। यहां से 58 और यात्री प्लेन में सवार हुए। इनमे 4 आतंकी थे। साढ़े बारह बजे टेकऑफ करते ही चारों आतंकी प्लेन को हाईजैक कर लेते हैं। एक कॉकपिट में घुस जाता है और को-पायलट को बाहर कर प्लेन अपने कब्जे में ले लेता है।

हाइजैकर प्लेन को लीबिया के शहर बेंगहाजी ले जाते हैं। बेंगहाजी में फ्यूल डलवाने के बाद प्लेन युगांडा की ओर चल देता है। 28 जून 1976 को दोपहर 3.15 बजे एंटबी एयरपोर्ट पर उतरता है प्लेन।

युगांडा का तानाशाह ईदी अमीन इन आतंकियों के समर्थन में अपनी आर्मी को एंटबी एयरपोर्ट को चारों तरफ तैनात कर देता है। यात्रियों को ट्रांजिट हॉल में कैद कर लिया जाता है। ईदी अमीन खुद एंटबी एयरपोर्ट आता था और देखता था कि वहां सुरक्षा मजबूत है या नहीं।

हाईजकैर्स मांग रखते हैं कि इजरायल में बंद 40 फिलिस्तीनी आतंकवादियों सहित कीनिया, फ्रांस, स्विट्जरलैंड और वेस्ट जर्मनी में बंद तेरह आतंकी रिहा कर दिए जाएं। इन हाईजकैर्स ने पांच मीलियन अमेरिकी डॉलर भी मांगे। हाईजकैर्स ने कहा मांगे नहीं मानी तो एक जुलाई 1976 की सुबह से एक-एक कर यात्रियों को जान से मार देंगे।

30 जून 1976 को हाईजैकर्स गैर इजराइली बुजुर्ग और बीमार को प्लेन से पेरिस भेज देते हैं। 1 जुलाई 1976 को इजराइली सरकार हाईजकैर्स से और समय देने की बात करती है। हाईजकैर्स 4 जुलाई 1976 की दोपहर तक का समय देते हैं। इसके बाद 100 और गैर इजराइली बंधकों को प्लेन से पेरिस भेज दिया जाता है। अब सिर्फ 94 इजराइली, फ्रांस के दस और एय़र फ्रांस के 12 क्रू मेंबर यानी कुल 116 बंधक बचते हैं।

3 जुलाई 1976 की शाम साढ़े छह बजे इजराइली कैबिनेट ने रेस्क्यू मिशन का निर्णय लिया। डान शोमरोन को ऑपरेशन का कमांडर बनाया गया। ऑपरेशन को नाम मिला थंडरबोल्ट।

इस दौरान मोसाद ने पता कर लिया था कि एंटबी एयरपोर्ट कितने लोग मौजूद हैं। मोसाद जब प्लान कर रहा था तभी उसे पता चला कि वर्ष 1960 और 70 के दशक में इजराइल की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी ने युगांडा के एंटबी एयरपोर्ट का वो टर्मिनल बनाया था। जहां बंधकों को रखा गया था। मोसाद ने उस कंपनी से नक्शा लिया और ऑपरेशन की तैयारी में लग गई।

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3 जुलाई 1976 को सौ मोसाद कमांडोज की टीम सी-130 हरकुलेस ट्रांसपोर्ट प्लेन से एंटबी के तरफ उड़ान भरती है। चार कारगो विमान के साथ ही दो बोइंग 707 विमान ने भी उड़ान भरी। पहला बोइंग जिसमें मेडिकल टीम मौजूद थी वो नेरौबी एयरपोर्ट पर रुक गया। जबकि दूसरे बोइंग को बंधकों को वापस लाने के लिए एंटबी एयरपोर्ट पर ही उतरना था।

रात 11 बजे ये चार प्लेन ट्रैफिक कंट्रोल को धोखा देते हुए रनवे पर उतर जाते हैं। सौ इजरायली कमांडोज की टीम तीन हिस्सों में बांट जाती है। पहली टीम को बंधक छुड़ाने का काम सौंपा गया। दूसरी टीम को युगांडा आर्मी और आतंकियों से निपटने का काम सौंपा गया। तीसरी टीम की जिम्मेदारी थी की वो छुड़ाए गए बंदकों को सकुशल वापस लेकर आए।

बिल्डिंग में घुसते ही कमांडो अपने टारगेट पर झपट पड़ते हैं। 3 अपहरणकर्ताओं को गोली मार दी जाती है। इस क्रास फायरिंग में तीन बंधक मारे जाते हैं। कमांडोज़ 3 अपहरणकर्ता को ग्रेनेड और गोलियों से मार देते हैं। ऑपरेशन में कमांडर योनतन नेतन्याहू शहीद होते हैं। योनतन इजराइल के मौजूदा पीएम बेंजामिन नेतन्याहू के बड़े भाई थे।

दुश्मन देश में मोसाद का ये ऑपरेशन सिर्फ 53 मिनट चला। लेकिन इसने दुनिया को सबक दे दिया की वो अपनों के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

मोसाद और हसीनाएं

मोसाद में 1986 में पहली बार हसीनों की भर्ती शुरू हुई। आज मोसाद की आधी जासूस ये युवतियां ही हैं। ये हैं हसीनाएं अपने टारगेट के साथ फ्लर्ट करती हैं। लेकिन फिजीकल रिलेशन नहीं बनाती।



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Rishi

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आशीष शर्मा ऋषि वेब और न्यूज चैनल के मंझे हुए पत्रकार हैं। आशीष को 13 साल का अनुभव है। ऋषि ने टोटल टीवी से अपनी पत्रकारीय पारी की शुरुआत की। इसके बाद वे साधना टीवी, टीवी 100 जैसे टीवी संस्थानों में रहे। इसके बाद वे न्यूज़ पोर्टल पर्दाफाश, द न्यूज़ में स्टेट हेड के पद पर कार्यरत थे। निर्मल बाबा, राधे मां और गोपाल कांडा पर की गई इनकी स्टोरीज ने काफी चर्चा बटोरी। यूपी में बसपा सरकार के दौरान हुए पैकफेड, ओटी घोटाला को ब्रेक कर चुके हैं। अफ़्रीकी खूनी हीरों से जुडी बड़ी खबर भी आम आदमी के सामने लाए हैं। यूपी की जेलों में चलने वाले माफिया गिरोहों पर की गयी उनकी ख़बर को काफी सराहा गया। कापी एडिटिंग और रिपोर्टिंग में दक्ष ऋषि अपनी विशेष शैली के लिए जाने जाते हैं।

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