Jagannath Mandir in Bodh Gaya: बिहार का एकलौता जगन्नाथ मंदिर, भारत के 9 जगन्नाथ मंदिरों में एक

Jagannath Mandir in Bodh Gaya: बोधगया (Bodh Gaya) के महाबोधि मंदिर (Mahabodhi Temple) से उत्तर में , 25 फीट की दूरी पर स्थित जगन्नाथ मंदिर – बिहार का प्रसिद्ध धार्मिक महत्व का स्थल है ।

Written By :  Ravi Sangam
Published By :  Ragini Sinha
Update:2021-12-23 15:23 IST

Jagannath Mandir in Bodh Gaya

Jagannath Mandir in Bodh Gaya: इस पवित्र स्थल पर स्थित प्राचीन जगन्नाथ मंदिर (Jagannath Mandir) का उल्लेख प्रसिद्ध अंगेज विद्वान बुकानन हेमिल्टन (Buchanan Hamilton) ( 1762-1829 ) ने वर्ष 1819 में प्रकाशित अपने पुस्तक ( गया गजेटियर ) में किया था। अर्थात सन् 1819 के पूर्व इस मंदिर का अस्तित्व था। चार धामों में एक , उडिसा के पुरी स्थित, 61 मीटर ऊंचे , जगन्नाथ मंदिर (Jagannath Mandir ka nirman) का निर्माण - गंगा वंश के राजा अनंत वर्मन चोदगंगा देव व उनके वंशज अनंगाभीमा देव द्वारा 12 वीं सदी ( 1161 – 1174 ई. ) में समुद्र तट के निकट किया गया था । पुरी में जगन्नाथ मंदिर की स्थापना के बाद , सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न - विभिन्न कालखंडों में , 9 स्थानों पर कई जगन्नाथ मंदिरों की स्थापना हुई , जिसमें बिहार के "बोधगया स्थित जगन्नाथ मंदिर' भी है । इस मंदिर के स्थापना के बारे में स्पस्ट विवरण उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह निश्चित है कि 1161 ई. – 1819 ई. के बीच बोधगया में जगन्नाथ मंदिर की स्थापना हुई। 

बिहार का प्रसिद्ध धार्मिक महत्व

बोधगया (Bodh Gaya) के महाबोधि मंदिर (Mahabodhi Temple) से उत्तर में , 25 फीट की दूरी पर स्थित  जगन्नाथ मंदिर – बिहार का प्रसिद्ध धार्मिक महत्व का स्थल है । नवनिर्मित मुख्यमंदिर राजभवन की तरह भव्य , दो मंजिला है । मुख्य मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण , बलराम व देवी सुभद्रा की भव्य विग्रह मूर्तियां स्थापित हैं । श्रीकृष्ण के पार्श्व में नील माधव ( लड्डू गोपाल ) व सुदर्शन का प्रतिक भी पूजित है । 


वर्तमान में , इस प्राचीन स्थल पर , नवनिर्मित जगन्नाथ मंदिर का निर्माण वर्ष 2008 में शुरू होकर वर्ष 2012-13 में पूरा हुआ। इस नवनिर्मित मंदिर के जीर्णोद्धार का शिलान्यास सरसंघचालक कुप. सी. सुदर्शन ने 13 फरवरी, 2008 में किया था । नवनिर्मित जगन्नाथ मंदिर के जीर्णोद्धार पर होनेवाले व्यय का प्रबंध यहां के पूर्व महंत सुदर्शन गिरि और प्रसिद्ध समाजसेवी स्व. शिवराम डालमिया ने किया था। वर्तमान में भी डालमिया जी की पत्नी श्रीमती उषा डालमिया महाप्रसाद व अन्य आवश्यक खर्च का वहन करते हैं । 

इस स्थल का पौराणिक-धार्मिक महत्व भी है । महान संत चैतन्य महाप्रभु ( 1486-1534 ई. ) युवावस्था में , अपने पिता के निधन के बाद , गया आये थे । यहां निवास कर रहे एक सन्यासी स्वामी ईश्वरा पुरी ने गोपाल कृष्ण मंत्र का उन्हे गुरूमंत्र दिया था । मंदिर का मुख्य द्वार दक्षिण दिशा में है । ( पूर्व में , उत्तर – पूर्व में और उत्तर में विशेष प्रयोजनों के लिए , तीन और द्वार भी हैं ) । मंदिर परिसर में एक प्राचीन पीपल का वृक्ष भी है । इस मंदिर में प्रधान पुजारी के रूप में , दलित समुदाय के दीपक दास हैं , जिनकी नियुक्ति वर्ष 2007-08 में हुई थी । मंदिर में पूजा-अर्चना का दायित्व सह-पुजारी रवि शंकर पांडेय पर भी है , जो यहां कई वर्षों से कार्यरत हैं । इस मंदिर का संचालन श्री जगन्नाथ मंदिर न्यास समिति , बोधगया द्वारा होता है। 

मंदिर परिसर में राम – जानकी मंदिर व शिवमंदिर भी स्थापित है 

राम–जानकी मंदिरः परिसर में अपेक्षाकृत नवीन राम-जानकी मंदिर भी स्थापित है , जिसकी प्राण-प्रतिष्ठा वर्ष 2018 में हुई थी । वस्तुतः मुख्य मंदिर के भवन का विस्तार कर राम जानकी मंदिर की स्थापना की गयी है । वर्तमान में मुख्य मंदिर में एक ओर जगन्नाथ मंदिर और पार्श्व में राम – जानकी मंदिर स्थापित है । 


शिव मंदिरः वर्तमान में मंदिर परिसर में तीन प्राचीन शिवलिंग पृथक मंदिरों में स्थापित हैं । दो शिवलिंग – युगल शिवमंदिरों में , मुख्यद्वार के बगल में तथा तीसरा शिवलिंग – मुख्यमंदिर के बांये , निर्माणाधीन मंदिर में स्थापित है । युगल शिवमंदिरों में शिवलिंग के साथ-साथ देवी पार्वती , कार्तिकेय , श्रीगणेश व हनुमानजी की दुर्लभ , लगभग 300 वर्ष प्राचीन मूर्तियां भी पूजित हैं । 


पाताल-प्रवेशः प्राचीन धार्मिक परंपरा के अनुसार , मुख्यमंदिर में स्थापित श्रीकृष्ण , बलराम व देवी सुभद्रा की विग्रह मूर्तियों का हरेक 12 वर्ष के बाद , पाताल-प्रवेश कराया जाता है  और उस स्थान पर मंदिर में नवीन विग्रह मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा होती है । 

 पुरानी विग्रह मूर्तियों का पातालप्रवेश – जगन्नाथ मंदिर के निकट , महाबोधि मंदिर से 200 फीट की दूरी पर स्थित शंकराचार्य –मठ परिसर में वाग्देवी मंदिर ( देवी सरस्वती ) के दाहिने , लगभग 25 फीट दूर , समाधि-परिसर में पाताल-प्रवेश कराया जाता है । इस समाधि-परिसर में कई साधु-संतों व महंतों की भी समाधियां हैं । 

महाप्रसादः प्राचीन परंपरा के अनुसार , मंदिर में हरेक दिन , दोपहर 12 बजे से 2 बजे के बीच , महाप्रसाद का भगवान को भोग के बाद , भक्तों के बीच वितरण होता है। जिसमें रविवार से शुक्रवार तक चावल , दाल , सब्जी , पापड़ आदि और शनिवार को खिचड़ी का भोग बनता हैै।

यह मंदिर भक्तों के लिए सुबह 6 बजे से रात्रि 9 बजे तक खुला रहता है । बीच में अपराह्न में भोग के बाद 2 घंटा भगवान के विश्राम के लिए निर्धारित है। इसी अवधि में महाप्रसाद का वितरण होता है । मंदिर में गोशाला का भी संचालन होता है ।मुख्यमंदिर के निचले तल्ले में विशाल सत्संग हॉल बड़े आयोजनों के लिए बनाया गया है । 


रथयात्राः हरेक वर्ष  जून-जुलाई माह , 12 जुलाई ( शुक्ल पक्ष द्वितीया ) को उडिसा स्थित जगन्नाथपुरी से रथयात्रा के आरंभ के साथ, बोधगया स्थित जगन्नाथ मंदिर से भी रथयात्रा का भव्य आयोजन होता है – जो पूरे नगर भ्रमण के साथ पूरा होता है । इसके बाद , पास स्थित शंकराचार्य मठ के आंगन के बीच स्थित मां अन्नपूर्णा देवी मंदिर में विश्राम के साथ , रथयात्रा का समापन होता है । इस दौरान यहां 3 दिन भक्तों के लिए विशाल भंडारा का आयोजन होता है । 

रथयात्रा का आयोजन चंदन की लकडी से बने तीन रथों पर किया जाता है । बाकि समय ये रथ मंदिर परिसर में एक शेड के नीचे संरक्षित रहता है । 


कलश-यात्रा : रथयात्रा के 17 दिनों पूर्व , कलश-यात्रा का आयोजन होता है , जिसमें पवित्र निरंजना नदी से जल लेकर , नगर भ्रमण करते हुए , मंदिर में भगवान जगन्नाथ का व्यापक जलाभिषेक ( देवस्नान ) होता है। जलाभिषेक के समय श्रीकृष्ण , बलराम व देवी सुभद्रा की मूर्तियों को गर्भगृह से निकाल कर खुले बरामदे में रखा जाता है। इस देवस्नान में 35 कलश से जलाभिषेक  भगवान जगन्नाथ पर , 33 कलश से जलाभिषेक  बलभद्रजी पर , 22 कलश से जलाभिषेक  देवी सुभद्रा पर और 18 कलश से जलाभिषेक  सुदर्शनजी पर किया जाता है । इसतरह कुल 108 कलश से देवस्नान का विधान है। फिर भगवान 15 दिनों के लिए रूग्न विश्राम में चले जाते हैं . जिस दिन मंदिर का पट खुलता है , उस दिन मंदिर में भगवान जगन्नाथ की अष्टकालीन सेवा के तहत 56 भोगों के साथ विशेष पूजा का आयोजन होता है । 

जगन्नाथ मंदिर में इस पूजा का आयोजन 24 जून से शुरू होकर 23 जुलाई  तक चलता है – जिसमें 24 जून को देवस्नान , 2 जुलाई को नेत्रात्सव , 12 जुलाई को रथयात्रा व 23 जुलाई को नीलाद्रि विजय ( इस तिथि को  चतुर्था देवविग्रह पुनः अपने रत्नवेदी पर विराजमान होकर अपने भक्तों को नियमित दर्शन देते हैं ) का भव्य आयोजन होता है ।


जगन्नाथ मंदिर की पौराणिक पृष्टभूमिः  पौराणिक कथा के अनुसार , श्रीगणेश ने भगवान शिव के प्रमुख द्वारपाल के पिशाच योनि से मुक्ति के क्रम में , जगन्नाथ मंदिर के अलौकिक से लौकिक होने की कथा सुनायी थी . ग्रंथो में उल्लेख है कि एक कल्प में चार युग होते हैं – सतयुग , त्रेतायुग , द्वापरयुग व कलयुग . भगवान विष्णु द्वारा ब्रह्ऋषि नारद एवं यमराज को दिये वरदान के कारण जगन्नाथ जी सिर्फ कलयुग में ही लौकिक होते हैं ( जो देखा जा सके ) , बाकि सतयुग , त्रेतायुग व द्वापरयुग में यह अलौकिक होते हैं ( उस काल में वे अन्तर्धान रहते हैं) । इसलिए जगन्नाथ मंदिर को भारतवर्ष में विशिष्ट स्थान प्राप्त है । 

ग्रंथो के अनुसार प्राचीन काल में राजा इन्द्रधुम्न द्वारा जगन्नाथपुरी स्थित मंदिर का निर्माण किया गया था । 

इन्द्रधुम्न विष्णु के उपासक थे। उन्हें ईश्वर की प्रेरणा से ज्ञात हुआ कि उनके राज्य में किसी अज्ञात स्थल पर नीलमाधव ( भगवान विष्णु) निवास करते हैं । बहुत से लोगों को उनके खोज की जिम्मेदारी दी गयी , जिनमें से एक , विद्धापति – नीलमाधव की खोज में सफल हुए. नीलमाधव की मूर्ति सबारस ( अनार्य ) , एक कबिलाई समुदाय के प्रमुख विश्ववसु के पास संरक्षित थी। नीलमाधव को प्राप्त करने की अभिलाषा में विद्धापति ने अन्ततः विश्ववसु की कन्या ललिता से विवाह कर लिया। 

एक दिन विद्धापति ने अपनी पत्नी ललिता से उनके पिता विश्ववसु के घर लौटने पर उनके शरीर से निकलने वाली सुगंध के बारे में पूछा तो ज्ञात हुआ कि विश्ववसु द्वारा नीलमाधव की पूजा के बाद ऐसा होता है । फिर विद्धापति द्वारा बहुत आग्रह करने पर विश्ववसु नीलमाधव का दर्शन कराने को राजी हुए . नीलमाधव को गुप्त रखने के लिए , विद्धापति को आँखों पर पट्टी बाँध , नीलमाधव के दर्शन के लिए ले जाया गया। रास्ते में पहचान के लिए विद्धापति ने सरसों का दाना मार्ग में बिखेर दिया।  कुछ काल के बाद , विद्धापति वापस लौट कर राजा इन्द्रद्धुम्न को जब सारी बातें बताई तो राजा उस गुप्त स्थान पर पहुंचे । लेकिन नीलमाधव वहां से लुप्त हो चुके थे । फिर इन्द्रद्धुम्न को नीला पर्वत पर तप करने व एक घोड़े की बलि के बाद , एक मंदिर बनाने प्रेरणा हुई । फिर ब्रह्मऋषि नारद के सहयोग से मंदिर में श्रीनरसिंह की मूर्ति की स्थापना हुई । 

इसके बाद , एक रात भगवान जगन्नाथ ने स्वप्न में दर्शन देकर समुद्रदेव से प्राप्त एक सुगंधित पेड़ के तने से मूर्ति बनाने का आदेश हुआ । फिर भगवान के निर्देश पर देवताओं के शिल्पकार विश्वकर्मा ने सशर्त विग्रह मूर्तियों का निर्माण किया । फिर ब्रह्माजी इन मूर्तियों की मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा के लिए इन्द्रद्धुम्न ब्रह्मलोक गये। इस बीच यह मंदिर बालू में दब गया ।लंबे काल के बाद जब इन्द्रद्धुम्न वापस लौटें तो उस समय वहां राजा सुरदेव का शासन था। फिर इन्द्रद्धुम्न की प्रेरणा व राजा सुरदेव के प्रयास से बालू हटाकर मंदिर का कायाकल्प किया गया । जिसमें ब्रह्माजी द्वारा भगवान की मूर्तियों की स्थापना मंदिर में की गयी , जो जगन्नाथ मंदिर (उडिसा स्थित) के नाम से जाना गया।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार)

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