Khudiram Bose: हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमने वाले देश के सर्वाधिक युवा क्रांतिकारी खुदीराम बोस

khudiram Bose: खुदीराम बोस की शहादत का पर्व शहीदी दिवस (Martyrs' Day) के रूप में भी मनाया जाता है। 11 अगस्त 1908 को उन्हें फांसी दे दी गई थी।

Written By :  Ramkrishna Vajpei
Published By :  Monika
Update: 2021-08-11 06:07 GMT

खुदीराम बोस (फोटो : सोशल मीडिया )

Khudiram Bose: भारत के स्वाधीनता संग्राम (freedom struggle) में सबसे कम उम्र का शहीद होने का गौरव हासिल करने वाले खुदीराम बोस का जन्म (Khudiram Bose Birthday) तीन दिसंबर 1889 में हुआ था और 11 अगस्त 1908 को उन्हें फांसी दे दी गई थी। मुजफ्फरपुर षड्यंत्र में प्रफुल्ल चाकी के साथ उनकी अहम भूमिका रही थी। खुदीराम बोस की शहादत का पर्व शहीदी दिवस (Martyrs' Day ) के रूप में भी मनाया जाता है।

आपको ये जानकर हैरत होगी कि फांसी के समय खुदीराम मात्र 18 साल, 8 महीने और 11 दिन, 10 घंटे के थे कहने का मतलब है जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही इस वीर ने मौत को गले लगा लिया था। इस साहस के चरम ने उन्हें भारत के दूसरे सबसे युवा क्रांतिकारियों में से एक बना दिया। हालाँकि, खुदीराम बोस के हिंसक तरीके आजादी हासिल करने के प्रयासों की महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) ने निंदा की थी और दो निर्दोष महिलाओं की मौत पर शोक व्यक्त किया था। गांधी ने कहा था "कि भारतीय लोग इन तरीकों से अपनी स्वतंत्रता नहीं जीतेंगे।" लेकिन ओजस्वी नेता बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak) ने अपने समाचार पत्र केसरी (Newspaper Kesari) में, दोनों युवकों प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस का बचाव किया और तत्काल स्वराज का आह्वान किया। इसके बाद ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने राजद्रोह के आरोप में तिलक को तत्काल गिरफ्तार कर लिया था।

युवा क्रांतिकारी खुदीराम बोस (फोटो : सोशल मीडिया )

क्या था मामला

खुदीराम ने प्रफुल्ल चाकी के साथ, एक ब्रिटिश न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट डगलस किंग्सफोर्ड की हत्या का प्रयास उस गाड़ी पर बम फेंक कर किया था जिसके बारे में उन्हें संदेह था कि उस गाड़ी के अंदर डगलस है। हालांकि मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड एक अलग गाड़ी में बैठा था, और बम फेंकने के परिणामस्वरूप दो ब्रिटिश महिलाओं की मौत हो गई। गिरफ्तारी से पहले ही प्रफुल्ल ने खुद को गोली मार ली। खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया और दो महिलाओं की हत्या के लिए मुकदमा चलाया गया, अंत में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। वह बंगाल के पहले स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे जिन्हें अंग्रेजों ने फांसी दी थी।

इससे पहले खुदीराम को मजिस्ट्रेट को बयान देना था या घोषणा करनी थी, जिसमें उन्होंने हत्या की पूरी जिम्मेदारी ली, उन्हें यह नहीं पता था कि प्रफुल्ल मर गया था। खुदीराम के बयान देने के बाद ही प्रफुल्ल का पार्थिव शरीर मुजफ्फरपुर पहुंचा। खुदीराम ने महसूस किया कि झूठ बोलना व्यर्थ होगा। उन्होंने प्रफुल्ल के शव की पहचान की और अंग्रेजों को सब-इंस्पेक्टर बनर्जी के साथ मुठभेड़ का विवरण भी मिला। लेकिन खुदीराम पर विश्वास करने के बजाय, अंग्रेजों ने शरीर से सिर काटकर बेहतर पुष्टि के लिए इसे कोलकाता भेजना अधिक उचित समझा।

युवा क्रांतिकारी खुदीराम बोस (फोटो : सोशल मीडिया )

खुदीराम की फांसी की खबर 

उस दौर के प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों में से एक अमृत बाजार पत्रिका (Amrit Bazar Patrika) ने अगले दिन 12 अगस्त को फांसी की खबर छापी। अखबार ने लिखा: "खुदीराम की फांसी आज सुबह 6 बजे हुई। वह दृढ़ता और खुशी से फांसी पर चढ़ गया और सिर पर टोपी खींची जाने पर भी मुस्कुराया।"

शहादत के बाद खुदीराम इतना लोकप्रिय हो गया कि बंगाल के बुनकरों ने एक खास तरह की धोती बुननी शुरू कर दी, जिसके किनारे पर 'खुदीराम' लिखा हुआ था। स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाले लड़कों ने ये धोती पहनी और सिलाई करके आजादी की राह पर चल पड़े। खुदीराम बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति देने वाले पहले सेनानी माने जाते हैं।

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