Y-FACTOR Yogesh Mishra: जिन्होंने लिया था भगतसिंह का बदला, देखें Video

Y-FACTOR Yogesh Mishra: भगत सिंह की शहादत से व्यथित हो कर एक अंग्रेज जिलाधिकारी को मौत के घाट उतार दिया था

Report :  Yogesh Mishra
Published By :  Ragini Sinha
Update:2022-03-28 13:03 IST

Y-FACTOR Yogesh Mishra: आजादी के अमृत महोत्सव में हमें उन क्रांतिकारियों को याद करना और नमन करना चाहिए । जिनके बारे में बहुत कुछ नहीं लिखा गया है। ऐसे क्रांतिकारियों में दो युवतियां भी शामिल हैं । जिन्होंने भगत सिंह की शहादत से व्यथित हो कर एक अंग्रेज जिलाधिकारी को मौत के घाट उतार दिया था। ये वीरांगनायें थीं बंगाल की सुनीति चौधरी और शांति घोष। इन्होंने 14 दिसम्बर, 1931 को पूर्वी बंगाल में कोमिल्ला, जो अब बांग्लादेश में है, के जिला मजिस्ट्रेट सीजीबी स्टीवन को गोली मार दी थी। इन्होंने काले पानी की सजा काटी थी। 

सुनीति का जन्म 22 मई, 1917 को वर्तमान बंगलादेश के कोमिला जिले में इब्राहिमपुर गाँव में एक सामान्य मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके पिता उमाचरण चौधरी सरकारी नौकरी में थे। माता सुरसुंदरी चौधरी एक अत्यंत धार्मिक महिला थीं।सुनीति जब स्कूल जाने वाली छोटी सी बच्ची ही थीं, तब तक उनके दो बड़े भाई क्रांतिकारी गतिविधियों में पूरी तरह संलग्न हो चुके थे।

क्रान्तिधर्मा उल्लासकर दत्त के पराक्रम के किस्सों और उनके साथ अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार ने सुनीति के बालमन को गहरे तक प्रभावित किया। जब वह आगे की पढाई के कालेज में पंहुची, अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी ब्रह्मा के जरिये युगांतर पार्टी नामक क्रांतिकारियों के संगठन के संपर्क में आयीं। और देश के आज़ादी के लिए कुछ करने का स्वप्न देखने लगीं। सुनीति अपने कालेज की साथी छात्रों की सामाजिक कार्य करने वाले समूह की कैप्टेन थीं। इस नाते विभिन्न गतिविधियों में बढचढ कर भाग लेती थीं।

शीघ्र ही उन्हें उन युवाओं के दल में चुन लिया गया जिसे आज़ादी की लड़ाई के लिए पास के पहाड़ी इलाकों में अस्त्र शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाना था। अपने इस प्रशिक्षण के तुरंत बाद उन्हें उनकी सहपाठी शांति घोष के साथ एक अभियान के लिए चुन लिया गया। ये अभियान था, 23 मार्च, 1931 को फांसी पर लटका दिए गए अमर बलिदानियों भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की मृत्यु का बदला लेना ।

14 दिसंबर, 1931 को दो युवा लड़कियों ने कोमिला के जिला अधिकारी चार्ल्स जेफरी बकलैंड स्टीवंस से उनके बंगले में भेंट कर उनसे तैराकी क्लब चलाने की अनुमति मांगी। जैसे ही उन लड़कियों का आमना सामना जिला अधिकारी से हुआ, उन्होंने उस पर गोलियां चला दी। वो दोनों लड़कियां थी-सुनीति चौधरी और शांति घोष। सुनीति के रिवाल्वर से निकली पहली गोली ने ही स्टीवेंस को यमलोक पहुंचा दिया। इसके बाद वहां हुयी भगदड़ और शोर में दोनों लड़कियां पकड़ी गयी और उन्हें अत्यंत निर्दयतापूर्वक पीटा गया। 

उन पर मुकदमा चलाया गया। सुनीति और शांति ने एक बलिदानी की तरह की मृत्यु का स्वप्न देखा था । पर उनकी मात्र 14 वर्ष आयु होने के कारण उन्हें आजन्म कारावास की सजा सुनाई गयी। हालांकि इस निर्णय से दोनों वीरांगनाओं को निराशा हुयी, पर उन्होंने इस निर्णय को भी हिम्मत और प्रसन्नता के साथ स्वीकार करते हुए विद्रोही कवि क़ाज़ी नजरुल इस्लाम की कविताओं को गाते हुए जेल में प्रवेश किया।

प्रफुल्ल ब्रह्मा को मुख्य साजिशकर्ता के रूप में चिह्नित कर जेल में डाल दिया गया। बाद में उन्हें उनके ही घर में कड़ी निगरानी में रखा गया, जहाँ 5 साल बाद उनकी मृत्यु हो गई। शांति घोष को जेल में दूसरी श्रेणी के अन्य क्रांतिकारियों के साथ रखा गया। सुनीति का जेल जीवन कष्टों और यातनाओं की एक लम्बी गाथा है। उन्हें तीसरी श्रेणी का कैदी करार देते हुए जेल प्रशासन ने उन्हें बाकी सभी राजनैतिक कैदियों से अलग रखने की व्यवस्था की ताकि उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा सके। 

उनके वृद्ध पिता की पेंशन रोक दी गयी। उनके दोनों बड़े भाइयों को बिना किसी मुक़दमे के ही जेल में डाल दिया गय। स्थिति यहाँ तक आ गयी कि बरसों उनका परिवार भुखमरी की कगार पर रहा। हालात यहाँ तक पहुँच गए कि उनका छोटा भाई कुपोषण का शिकार हो अकाल मृत्यु का शिकार हो गया।

6 दिसंबर,1939 को आम माफ़ी की वार्ता के बाद सुनीति और शांति को रिहा कर दिया गया था। जेल से छूटने के बाद सुनीति ने पूरे ज़ोर-शोर से पढ़ाई शुरू कर दी और आशुतोष कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स प्रथम श्रेणी से पास किया। साल 1944 में इन्होंने मेडिसिन एंड सर्जरी में डिग्री के लिए कैम्पबेल मेडिकल स्कूल में दाखिला लिया। एमबी (आधुनिक एमबीबीएस) करने के बाद इन्होंने आंदोलन के एक सक्रिय कार्यकर्ता और भूतपूर्व राजनैतिक कैदी प्रद्योत कुमार घोष से शादी कर ली। सुनीति जल्द ही चंदननगर की एक प्रतिष्ठित डॉक्टर बन गईं। लोग उन्हे प्यार से 'लेडी माँ' बुलाने लगे। 1951-52 के आम चुनावों में डॉ. सुनीति घोष को कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ने की पेशकश की गई। राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के कारण इन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

12 जनवरी, 1988 को इस क्रांतिकारी महिला ने दुनिया को अलविदा कहा। 

शांति घोष का जन्म 22 नवंबर, 1916 को हुआ था। उनके पिता देबेन्द्रनाथ घोष  कोमिल्ला  कॉलेज  में  प्रोफ़ेसर और राष्ट्रवादी थे। शांति पर अपने पिता की राष्ट्र भक्ति का बहुत प्रभाव था। वह बचपन से ही भारतीय क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ती रहती थीं। 1931 में कोमिल्ला के फैज़ुनिस्सा गर्ल्स स्कूल में पढ़ते हुए वह सुनीति के संपर्क में आई थीं। 

जिलाधिकारी स्टीवन की हत्या के आरोप में शांति को भी सजा हुई। जब वह सुनीति के संग रिहा हुईं तो उन्होंने भी अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके साथ ही वे स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रीय रहीं। उन्होंने प्रोफ़ेसर चितरंजन दास से शादी की। वे 1952-62 और 1967-68 में पश्चिम बंगाल विधान परिषद में कार्यरत रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा 'अरुणबहनी' नाम से लिखी। साल 1989 में 28 मार्च को उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली।

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