नई दिल्ली: आप जिस हवा में सांस ले रहे हैं उसमें इतना जहर घुला हुआ है कि आपकी उम्र ७ साल कम हो चुकी है। ये हाल है गंगा के मैदानी इलाकों वाले लोगों का।
यूनीवर्सिटी ऑफ शिकागो ने भारत में गंगा के मैदानी इलाकों में अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला है कि बीते १८ वर्षों में इन इलाकों में वायु प्रदूषण ७२ फीसदी बढ़ गया है। गंगा का मैदानी इलाका पंजाब से पश्चिम बंगाल तक फैला हुआ है जहां भारत की ४० फीसदी जनसंख्या रहती है। १९८८ से २०१६ तक हवा की क्वालिटी का अध्ययन करने पर पाया गया कि भारत के उत्तरी मैदानों में बाकी इलाकों की तुलना में दोगुना वायु प्रदूषण है। अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि वायु प्रदूषण के एक्सपोजर से जहां १९९८ में गंगा के मैदानी इलाके के बाशिंदों की औसत उम्र ३.७ वर्ष घटा ही होगी वहीं २०१६ में प्रदूषण का स्तर इतना ज्यादा बढ़ गया कि लोगों की उम्र औसतन ७.१ वर्ष तक घट गई। यानी जहरीली हवा में सांस से समय से पहले ही लोग काल के गाल मेन समा गए।
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रिपोर्ट के अनुसार, देश के बाकी हिस्सों में तुलनात्मक रूप से कम वायु प्रदूषण के कारण वहां के लोग ज्यादा लंबी उम्र जीते हैं जबकि बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाशिंदों की औसतम उम्र घट जाती है। हवा में मौजूद सूक्ष्म कणों से संबंधित विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक ये राज्य पूरे नहीं करते हैं।
आबादी का दबाव
गंगा के मैदानी इलाकों में आबादी का ज्यादा दबाव भी वायु प्रदूषण का एक कारक है। देश क बाकी हिस्सों की तुलना में यहां तीन गुना ज्यादा लोग रहते हैं। यही वजह है कि वाहनों, घरेलू और कृषि से उत्पन्न प्रदूषण का यहां अधिक प्रभाव है। आबादी के ज्यादा घनत्व का मतलब है कि अधिक से अधिक लोग प्रदूषण का शिकार भी बनते हैं।
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बढ़ सकती है उम्र
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत अगर अगले पांच साल में प्रदूषण के २० से ३० फीसदी कम करके नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (एनसीएपी) के अपने लक्ष्य को हासिल कर लेता है तो लोगों की औसत उम्र १.३ वर्ष बढ़ सकती है।
एक साल में 11 लाख लोगों की मौत
२०१६ में चीन और भारत में वायु प्रदूषण के कारण ११-११ लाख लोगों की मौत हुई। इसके बाद पाकिस्तान का स्थान रहा जहां १.२९ लाख लोग जहरीली हवा के कारम मारे गए। दरअसल हवा के जरिए जब शरीर में दूषित तत्व पहुंचते हैं तो कोशिकाओं में संक्रमण पैदा हो जाता है। इससे प्रमुख रूप से सांस फूलने, घबराहट और चिड़चिड़ेपन की समस्या हो जाती है और आगे बढ़ कर दमा, एलर्जी या सीओपीडी रोग घेर लेता है। सीओपीडी से फेफड़ों की क्षमता स्थाई रूप से घट जाती है। यही नहीं, सूक्ष्म कण हृदय और मस्तिष्क को डैमेज कर देते हैं। जितने छोटे कण होते हैं, उतनी ही आसानी से वे फेफड़ों में गहराई तक प्रवेश कर सकते हैं और अधिक टॉक्सिक कॉम्पोनेंट ग्रहण करने के चलते मौत की संभावना बढ़ जाती है।