दुर्गेश पार्थ सारथी
अमृतसर: बेशक 70 साल हो गए, लेकिन देश विभाजन का खौफनाक मंजर जब याद आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। रूह कांप उठती है। हमने इन आंखों से अपना सब कुछ लुटते हुए देखा है। महिलाओं की अस्मत भी और उनकी बेबसी भी। बंटवारे की एक लकीर ने एक झटके में सब कुछ बदल दिया। हम जैसे हजारों लोगों के दिल में आज भी बेबसी, आंसू जज्ब हैं। यह कहना है अमृतसर के अंदरून कटरा खजाना में बसे 85 वर्षीय वरियाम चंद और उनकी पत्नी का।
एक छोटी सी किराने की दुकान चलाने वाले वरियाम चंद कहते हैं, कि मेरी उम्र शायद 15 साल के आसपास रही होगी। हमारा घर गुरदासपुर जिले की तहसील सकरगढ़ के गांव कसीरपुर में था। यह गांव समूचा हिंदुओं का था। थोड़े सिख भी थे। हमारे गांव से कुछ दूर मुसलमानों का गांव था, जहां हिंदू नहीं थे। हमारे पिता जर्मन इंजीनियरों के यहां नौकरी करते थे और रिटायर होकर गुरदासपुर व सियालकोट में ठेकेदारी करने लगे थे। तब गांवों में अखबार नहीं होता था, रेडियो भी किसी-किसी के पास होता था। लोगों से यह जरूर सुनते थे कि हिंदुस्तान बंटने वाला है। लेकिन यह तय नहीं था कि हमारा गांव किस मुल्क में होगा। पाकिस्तान में या भारत में...।
‘दिन और तारीख तो ठीक ठीक याद नहीं..। शायद 17 अगस्त सन् 47 ही रहा होगा। रात को ही मुनादी हो गई देश बंट गया। भारत और पाकिस्तान दो मुल्क हो गए। लोग कहते थे शायद एक लाल लाइन खिंच गई है। लाइन के इस पार मुसलमानों का मुल्क पाकिस्तान होगा और उस पर हिंदुस्तान। पाकिस्तान में सिर्फ मुसलमान ही रहेंगे सो हिंदुओं को हिंदुस्तान जाना पड़ेगा। यह घोषणा होते ही जरूरी सामान बैलगाड़ी पर लादा, डंगरों (मवेशियों)को खुला छोड़ दिया। घर को ताला लगाया और चल दिए।
पहले सुनने में आया था कि गुरदासपुर पाकिस्तान में है लेकिन बाद में पता चला कि गुरदासपुर नहीं अब लाहौर पाकिस्तान में है और गुरदासपुर हिंस्दुस्तान में। हमारे गांव से करीब सौ डेढ़ सौ लोगों का काफिला चला। कौन कहां गया पता नहीं। लेकिन हमारा परिवार लगभग तीन मील चलकर पहाड़ीपुर पहुंचा। यहां हम 10 लोगों का परिवार सात दिन आम के बाग में रुका। इसके बाद हमारा परिवार तारागढ़ पहुंचा। यहां हमलोग अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहे थे। क्योंकि, हमारे पिताजी का ठेकेदारी का काम इधर ही था। करीब सालभर तारागढ रहे। इसके बाद हमारा परिवार गुरदासपुर जिले के ही गांव गज्ज में आ गया। यहां कुछ साल रहने के बाद जब हालात कुछ सामान्य हुए तो हमारे पिता जी अमृतसर आ बसे। गांव व तहसील जरूर बदल गई पर बंटवारे के बाद भी हमारा जिला गुरदासपुर ही रहा। इस बात की टीस जरूर है कि देश बंट गया, लेकिन खुशी इस बात है कि हम हिंदुस्तान में रह रहे हैं।
बंटवारा होते ही शुरू हुई थी मारकाट
82 वर्षीय देवराज कहते हैं कि पाकिस्तान बनने से पहले अमृतसर और इसके आसपास के गांवों में मुसलमान अधिक थे। 12 गेटों वाले इस शहर में चाटीविंड गेट में ही हिंदुओं और सिखों की आबादी अधिक थी। देश बंटने की घोषणा होते ही शहर के किलाभंगिया से मारकाट शुरू हुई। अंदरून कटरा खजाना में किसी ने बम फेंक दिया। इसके बाद आगजनी का दौर शुरू हुआ। मुसलमान हिंदू को मार रहे थे और हिंदू व सिख, मुसलमानों को। जीवन भर के पड़ोसी बंटवारे की लकीर खिंचते ही एक दूसरे के दुश्मन बन गए। हमारा भी घर जल गया था। पाकिस्तान से जो गाडिय़ां आती थीं उनमें लाशें ही ही लाशें होती थीं। बड़ा भयावह मंजर था। केवल किशन खन्ना कहते हैं, 'हमारी गली रांझेवाली में मुसलमान ही रहते थे। उनके जाने के बाद पूरी गली खाली हो गई। यहां आज भी पुराने मकानों में पीरों के आले बने हैं। इन घरों में रहने वाले लोग वीरवार को दीया जलाते हैं। वो जख्म कभी नहीं भरेगा।'
हमने लाशों के ढेर देखे हैं
17 अगस्त को अमृतसर स्थित पार्टिशन म्यूजियम का उद्घाटन करने आए गीतकार गुलजार ने उन दिनों को याद करते हुए कहा था, 'हमने लाशों के ढेर देखे हैं। उस समय हम 11 बरस के थे। हमारा घर झेलम तहसील के गांव दीना में था। बचपन छिन गया। याद आता है तो आज भी आंखें भर आती हैं। बंटवारे की हिंसा में 5 लाख से अधिक लोग मारे गए थे। 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़ पाक गए। 72, 49,000 हिंदू व सिख पाक से भारत आए।
कुछ ऐसी ही दास्तान हमारी भी है
बंटवारे के बाद सयालकोट से भारत आए चेकचंद कथूरिया कहते हैं कि 'उस दौर की बात मत करो। 90 साल के कथूरिया दिमाग पर जोर देते हैं, फिर कहते हैं 'कुछ याद नहीं आ रहा।' थोड़ी देर रुकते हैं...? फिर कहते हैं हां, 'याद आया हम स्यालकोट में रहते थे बड़ी सी कोठी थी, अपना कारोबार था कपड़े का। किसी को कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन पाकिस्तान बनने की मुनादी होते ही हमारे मोहल्ले के लोग ही मारे दुश्मन हो गए। हमारी दुकान जला दी गई। नारे गूंजने लगे। जैसे-तैसे घर को ताला लगा कर परिजनों के साथ भारत की तरफ रुख किया। रास्ते में कत्लेआम शुरू हो गया। करीब पूरी रात और आधा दिन चलने के बाद हमारा परिवार अमृतसर पहुंचा। रिफ्यूजी कैंप में करीब चार माह रुके रहे। इसके बाद हमें यही अमृतसर में रहने को घर मिल गया।' उन्होंने अपने स्यालकोट वाले घर की चाबी लंबे अर्से से संभाल के रखी थी, लेकिन पता नहीं कहां गुम हो गई। जब भी भारत-पाकिस्तान की बात छिड़ती है तो वो शहर, मुहल्ले और पड़ोसी बस याद आते हैं, लेकिन 70 साल बाद भी मैं लौटकर पाकिस्तान नहीं गया और जाना भी नहीं चाहता हूं। क्योंकि हजारों लोग मारे गए और बेघर हुए उनमें से मैं भी एक हूं। जो अपने पुरखों की माटी से दूर हो गया हूं।