Fatima Sheikh Ki Kahani: खिलवाड़ से इतिहास मिटता नहीं, जाने फ़ातिमा शेख की कहानी
Fatima Sheikh Kaun Thi: फ़ातिमा शेख के जन्मदिन पर गूगल ने डूडल द्वारा उन्हें श्रद्धांजलि दी। यहाँ तक कि कुछ बड़ी पार्टियों के पोस्टर पर फ़ातिमा दिखने लगीं।;
Fatima Sheikh Ki Kahani: इन दिनों सोशल मीडिया पर फ़ातिमा शेख के बारे में तमाम तरह की बातें चल रही हैं। कुछ लोग फ़ातिमा शेख को काल्पनिक चरित्र कह रहे हैं। कुछ इन्हें सावित्री बाई फुले के साथ की सहयोगी शिक्षिका बताते नहीं थक रहे हैं। इस विवाद के मूल में सूचना प्रसारण मंत्रालय में मीडिया सलाहकार दिलीप मंडल हैं। बीते 9, जनवरी- 2025 को उन्होंने दावा किया कि भारत की पहली मुस्लिम महिला स्कूल शिक्षिकाओं में से एक के रुप में विख्यात फ़ातिमा शेख की अस्तित्व में नहीं थीं। जबकि 2019 में दिलीप मंडल ने ‘ द प्रिंट’ के लिए लिखे गये लेख के मार्फ़त सरकार से यह जानना चाहता था कि इतिहास ने फ़ातिमा शेख के योगदान को क्यों भुला दिया। न्यूज़ ट्रैक ने इसकी पड़ताल की, इस पड़ताल मैं तमाम तथ्य हाथ लगे। पहले इन तथ्यों से गुजरते हैं-
मंडल का दवा, पलटमारी
बिहार के गोपालगंज निवासी सर्वेश तिवारी श्रीमुख ने अपनी पोस्ट में इस विवाद पर लिखा कि दो चार साल पहले दिलीप मंडल फेसबुक पर एक चरित्र गढ़ते हैं, "देश की पहली शिक्षिका फातिमा थी।" वह बताते हैं कि फातिमा महात्मा ज्योतिबा फूले के विद्यालय में पढ़ाती थी। मंडल तब सुबह से शाम तक ब्राह्मणों को कोसने का काम करते थे। अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने इस काल्पनिक मुस्लिम महिला को पहली शिक्षिका घोषित किया था। मंडल की तब ठीक ठाक फैन फॉलोइंग थी, लोग उनकी बात सुनते/मानते थे, सो धीरे धीरे उन्होंने अपनी बात स्थापित कर दी।
एक दो साल में फेसबुक पर 9 जनवरी को फातिमा की जयंती मनाई जाने लगी, तस्वीर बन गयी और घूमने भी लगी, जयंती की बधाई दी जाने लगी। फ़ातिमा शेख के जन्मदिन पर गूगल ने डूडल द्वारा उन्हें श्रद्धांजलि दी। यहाँ तक कि कुछ बड़ी पार्टियों के पोस्टर पर फ़ातिमा दिखने लगीं।
इसी बीच मंडल जी पलटी मार गए। उस खेमे से इस खेमे में आ गए। अब एक दिन मंडल धमाका करते हैं कि वह कैरेक्टर मेरा गढ़ा हुआ है। दरअसल, फुले के यहाँ इस नाम की एक नौकरानी रहती थी, जिसे मैंने शिक्षिका बता कर मूर्खों को एक्स्ट्रा मूर्ख बनाया था। किसी भी पुस्तक में उसका नाम भी हो तो दिखा दे कोई... बात सच सी लगी।
इतिहास गढ़ने की तरकीब
कहा जाने लगा कि सच पूछिये तो अपने देश की किताबों में पढ़ाये जा रहे इतिहास का एक बड़ा हिस्सा ऐसे ही गढ़ा गया है। आतंकियों को संत बताया गया, लुटेरों को महान बनाया गया, डकैतों को स्कॉलर पढ़ाया गया। और हम सब चुपचाप उसे ही सत्य मानते रहे।
सर्वेश तिवारी ने अपनी पोस्ट में लिखा आज से छह सात वर्ष पहले की बात है, उन दिनों हम इस पटल पर कहानियां ही लिखा करते थे। उन्ही दिनों मैंने एक कहानी लिखी- तक्षक! वह कहानी कुछ अधिक ही प्रसिद्ध हो गयी। इतनी प्रसिद्ध हो गयी कि कथा साहित्य की समझ न रखने वालों तक भी पहुँची और खूब पढ़ी गयी। अब गड़बड़ यह हुई कि लोग उसे इतिहास मानने लगे। कुछ तो मुझसे ही उलझ गए कि यह सत्य घटना है। कुछ स्वघोषित विद्वान तो ऐसे निकले जो मुझ पर इतिहास विकृत करने का आरोप लगाने लगे। एक दो तो अब भी इस बहाने यदा कदा गाली देते रहते हैं। अब मैं क्या ही उत्तर देता, और क्यों ही उत्तर देता? जिन्हें कहानी और इतिहास के बीच का अंतर नहीं पता हो, उन्हें क्या ही समझा सकेंगे हम?
क़िस्सों में जीने वाला देश!
यह देश किस्से कहानियों में जीने वाला देश है। राही मासूम रजा ने महाभारत सीरियल में द्रौपदी से कहलवा दिया, "अंधे का बेटा अंधा" यहां के लोग उसे ही सत्य मान कर द्रौपदी को अपराधी मानने लगे। किसी ने लिख दिया कि कर्ण को आचार्य द्रोण ने अपने गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने नहीं दिया, लोग उसी को सत्य मान कर द्रोणाचार्य को अपराधी मानने लगे। किसी मूर्ख ने लिख दिया कि द्रोणाचार्य ने जाति के कारण एकलव्य का अंगूठा कटवा लिया, लोग उसे ही सत्य मानने लगे।
ये लोग यदि महाभारत पढ़ते तो जानते कि द्रौपदी ने दुर्योधन पर कोई व्यंग्य नहीं किया था। कर्ण और उसके जैसे समस्त दासों के बच्चे उसी गुरुकुल में राजकुमारों के साथ ही विद्या ग्रहण करते थे। और एकलव्य का अंगूठा इसलिए कटा क्योंकि वह हस्तिनापुर के शत्रु राष्ट्र के सेनापति का पुत्र था। पर हम भारत के लोग... अद्भुत ही हैं।
किताबों में छपा इतिहास कुछ प्रभावशाली कालमों की नोंक पर हुआ खेल भर है, जिसका बहुत बार सत्य से कोई लेना देना नहीं होता।
पर यह भी सही नहीं है। मंडल ने फ़ातिमा शेख को लेकर जो विवाद खड़ा किया, वह भले उनकी खुद की लोकप्रियता हासिल करने की तरकीब रही हो। पर इतिहास इस तरह न तो बनता हैं। न ही मिट जाता हैं। इतिहास तरकीब का मोहताज नहीं होता।
कहा जाता है कि जब फ़ातिमा शेख को उनकी पिता ने दलितों को शिक्षित करने के काम के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर करने हुए घर से निकाल दिया था, तब उन्होंने जहाँ शरण ली ,उसे उस्मान शेख का बताया जाता है। कहा जाता है कि उसी की जगह पर फ़ातिमा ने पहले स्कूल सावित्री बाई फुले की मदद से खोला था।
फातिमा क़िस्सा नहीं, इतिहास हैं
पर दस्तावेज़ बताते हैं कि 1848 में इस जगह के मालिक तात्या साहेब भिंडे थे। भिंडे वाडा के तीन हिस्से थे- 257,C-1, 257,C-2, 257-D । 1924 में ढीलाचंद भागचंद मावडीकर, लीला चंद मावडीकर और उनके परिवार से सदाशिव नारायण भिंडे से एक एक कर के ख़रीदा। 21 जनवरी, 1969 को पुणे मर्चेंट कोऑपरेटिव बैंक ने मावडीकर परिवार से 257,C-1, 257,C-2 ख़रीदा। इसके बाद 1972 में बैंक ने 257-D भी ख़रीद लिया। 2009 में सरकार ने इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया।
सावित्री बाई फुले समग्र वांगमय के एक चित्र में सावित्री बाई के बगल में फ़ातिमा शेख की फोटो मिलती है। इसके संपादक डॉक्टर एम. जी. माली हैं। उन्होंने इस तस्वीर के बारे में बताया था कि यह फोटो पुणे से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘मजूर’ में पहली बार छपी थी। इस पत्रिका के संपादक आर.एन. लाड थे। माली को यह फोटो इसी पत्रिका के दूसरे संपादक रहे डी.एस. झोंगडे से मिली थी। यह पत्रिका 1924 से 1930 के कालखंड में प्रकाशित होती रही।
पुणे में महात्मा फुले द्वारा लड़कियों के लिए बनाये गये पहले स्कूल के जर्जर भवन के बाहर लगे बोर्ड में भी फ़ातिमा शेख का ज़िक्र मिलता है। ख़राब स्वास्थ्य के चलते सावित्री बाई मायके चली जाती हैं। वहाँ से 10 अक्टूबर, 1856 को वह सत्यरुप ज्योतिबा को पत्र लिखती हैं। उस पत्र में वह फ़ातिमा का ज़िक्र करती है। फातिमा का ख़्याल रखने की बात कह रही हैं। इन सब से इस सत्य तक पहुँचा जा सकता है कि फ़ातिमा शेख किसी की दिमाग़ी उपज नहीं हैं। वह इतिहास हैं। हमारी पूर्वज हैं। हमारी पुरखिन हैं।
( लेखक पत्रकार हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)