जॉर्ज फर्नांडिस: असफल प्रेमी, जुझारू नेता, जिसने दोस्ती के लिए सरकार गिरा दी

जॉर्ज फर्नांडिस का  88 साल की उम्र में निधन हो गया। जॉर्ज नेताओं की उस जमात से आते हैं जिसने कभी भी हार नहीं मानी कभी भी राजनीतिक दुश्मनी को व्यक्तिगत नहीं बनाया। आज हम आपको बताएंगे कैसे एक जुनूनी युवा देश का सबसे बड़ा मजदूर नेता बना लेकिन व्यक्तिगत जीवन में उथलपुथल से जूझता रहा। 

Update:2019-01-29 17:30 IST

लखनऊ : जॉर्ज फर्नांडिस का 88 साल की उम्र में निधन हो गया। जॉर्ज नेताओं की उस जमात से आते हैं जिसने कभी भी हार नहीं मानी कभी भी राजनीतिक दुश्मनी को व्यक्तिगत नहीं बनाया। आज हम आपको बताएंगे कैसे एक जुनूनी युवा देश का सबसे बड़ा मजदूर नेता बना लेकिन व्यक्तिगत जीवन में उथलपुथल से जूझता रहा।

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3 जून 1930 को मैंगलोर में जन्में जॉर्ज अपने 6 भाइयों में सबसे बड़े थे। जब 16 के हुए तो कैथलिक पादरी बनने के लिए बैंगलोर की सेमिनरी में भेजे गए। लेकिन देश की आजादी के बाद वो भी यहां से आजाद हो गए और सपनों की नगरी बंबई पहुंच गए। यहां काफी समय तक संघर्ष किया और किसी तरह उन्हें प्रूफ रीडर की नौकरी मिली। यहां वो राजनीति का ककहरा भी सीखने लगे साथ मिला राम मनोहर लोहिया का। ये 60 का दशक था जब बॉम्बे टैक्सी यूनियन को अपना नेता मिला।

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इसके बाद आई फरवरी 1967 में ये वो समय था जब चौथी लोकसभा के लिए चुनाव होने थे। बॉम्बे साऊथ की सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार थे एसके पाटिल, उनकी पहचान बाहुबली या ये कहें शहर के सुल्तान की थी। केंद्रीय मंत्री रह चुके थे। जीतना तय माना जा रहा था। लेकिन अभी तो देश को एक बड़ा नेता मिलना बाकी था और उसकी राजनीति यहीं से शुरू होनी थी तो राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से सामने आया 37 साल का जॉर्ज। परिणामों से पहले उसे बच्चा समझा जा रहा था। लेकिन उसने पाटिल को उनके ही घर में धोबी पछाड़ दांव मार चित्त कर दिया।

आरंभ था प्रचंड लेकिन सुनामी बाकी थी

जॉर्ज नवंबर 1973 को आल इंडिया रेलवे मैन्स फेडरेशन के अध्यक्ष बने। ये वो दौर था जब तीन वेतन आयोग आ चुके थे। लेकिन, रेल कर्मचारियों को इसमें सिर्फ लालीपॉप ही मिली थी। फेडरेशन ने तय किया गया कि वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल की जाए। 8 मई 1974 को बॉम्बे में हड़ताल शुरू हुई। इसके बाद तो देश ठहर ही गया जॉर्ज के समर्थन में टैक्सी ड्राइवर, इलेक्ट्रिसिटी और ट्रांसपोर्ट यूनियन के साथ ही मद्रास कोच फैक्ट्री के दस हजार मजदूर भी हड़ताल पर चले गए।

केंद्र की इंदिरा सरकार ने हड़ताल कर रहे लोगों के खिलाफ मोर्चा लेने के लिए सेना को मैदान में उतार दिया। 30,000 से अधिक मजदूर नेताओं को जेल में कैद कर दिया गया। इसके बाद 27 मई को हड़ताल समाप्त हो गई।



इस हड़ताल ने दो काम किए

हड़ताल ने जहां जॉर्ज को मजदूर नेता के तौर पर स्थापित किया। वहीं पीएम इंदिरा गांधी को देश में इमरजेंसी लगाने के लिए मजबूत कारण दे दिया।

इमरजेंसी में जॉर्ज बन गए जेम्स बांड

25 जून 1975 को जॉर्ज फर्नांडिस उड़ीसा के गोपालपुर में थे। इमरजेंसी की सूचना जब उन्हें मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी लैला कबीर के लिए एक पत्र लिखा और मछुवारे के वेश में वहां से निकल गए। इसके बाद वो साल भर देश भर में घूमते रहे फरारी के समय वो कभी सरदार बन जाते कभी साधू। यूपी की राजधानी से सटे बाराबंकी जिले के गांव नसिपुर में साहित्यकार स्वामी दयाल शर्मा ‘प्रभाकर’ के घर में भी उन्होंने काफी समय बिताया। यहां पहले से ही कई नेता फरारी काट रहे थे।

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जब बन गए भगत सिंह

जुलाई 1975 में जॉर्ज बड़ौदा में थे। यहां उनके साथियों ने तय किया कि सरकार के खिलाफ अहिंसक विरोध से कुछ नहीं मिलने वाला अब हिंसक विरोध अपनाना होगा।

योजना बनाई गई और डायनामाइट की व्यवस्था भी हो गई। योजना के मुताबिक पीएम इंदिरा की जनसभा के दौरान एक सरकारी इमारत के टॉयलेट में धमाका किया जाए लेकिन ध्यान रहे की किसी की जान ना जाए।

इसके बाद जॉर्ज पटना पहुंचे और रेवतीकांत सिन्हा के घर में उन्होंने विस्फोटक जमीन में गाड़ दी। पुलिस को इसकी भनक लगी तो उसने सिन्हा को उठा लिया और सिन्हा ने विस्फोटक की जानकारी उसे दे दी। इस मामले में पच्चीस आरोपी बनाए गए। सिन्हा को इस बात का इतना सदमा लग की उनकी जान चली गई।

अब जॉर्ज देशद्रोही थे। देश भर में उनको खोजा जाने लगा। जॉर्ज ने इसबार कलकत्ता के एक चर्च को अपना ठिकाना बनाया। 10 जून 1976 को उन्हें गिरफ्तार किया गया। दिल्ली लाया गया। समर्थकों के बीच जेल में जॉर्ज की हत्या की बता आग की तरह फ़ैल गई। इसके बाद कई राष्ट्राध्यक्षों ने पीएम से जॉर्ज को सुरक्षित रखने का आश्वासन मांगा।

बड़ौदा डायनामाइट केस की पेशी के दौरान तीस हजारी कोर्ट में जॉर्ज को पेश किया गया तो बाहर जेएनयू और डीयू के सैकड़ों छात्र, जेल के दरवाजे तोड़ दो, जॉर्ज फर्नांडिस को छोड़ दो। कॉमरेड जॉर्ज को लाल सलाम।के नारे लगा रहे थे।

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बिना प्रचार किए जीता चुनाव

वर्ष 1977 में इमरजेंसी हटी तो जॉर्ज मुजफ्फरपुर से चुनावी मैदान में थे। उन पर युद्ध भड़काने और देशद्रोह के मामलों में मुकदमा चल रहा था। चुनाव प्रचार के लिए जमानत नहीं मिली। लेकिन इसका उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ। जनता ने उन्हें तीन लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जिता दिया। जनता सरकार बनी और जॉर्ज का केस समाप्त हुआ उन्हें उद्योग मंत्री बनाया गया।

दिखी दूसरी तस्वीर

11 मई 1998 को दोपहर के 3 बजकर 15 मिनट पर बुद्धा लाफ्ड अगेन। मतलब पोखरण में सफल परमाणु परिक्षण। 13 मई को फिर दो परीक्षण हुए। इसमें सबसे चौकाने वाली बात ये थी कि वो जॉर्ज जो परमाणु हथियारों का प्रबल विरोधी था वो पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के साथ 15 मई को पोखरण में मौजूद था। जॉर्ज सरकार में रक्षा मंत्री थे।

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काला दिन भी आया

रक्षा मंत्री जॉर्ज ने अपने कार्यकाल में सियाचिन की 24 यात्राएं की। कारगिल ऑपरेशन का सेहरा बांधा। लेकिन 13 मार्च 2001 को एक स्टिंग वीडियो जारी हुआ नाम था, ऑपरेशन वेस्टएंड।

स्टिंग में जॉर्ज की करीबी और समता पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष जया जेटली को दो लाख की रिश्वत लेते हुए दिखाया गया। जॉर्ज को इस्तीफा देना पड़ा। मामले की जांच के लिए जस्टिस फुकन आयोग बना। आयोग ने जॉर्ज को पाक साफ़ बताया और जॉर्ज फिर से रक्षा मंत्री बन गए।

कूचे से निकले

30 अक्टूबर 2003 को जनता दल यूनाईटेड का गठन हुआ। 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए बुरी तरह चुनाव हारा। लेकिन जॉर्ज नालंदा से जीत सांसद बने। इसके बाद 2009 में हुए चुनाव में जदयू ने उन्हें टिकट नहीं दिया तो जॉर्जमुज्जफरपुर से निर्दल चुनाव लगे और वोट मिले 22,804।

शरद यादव राज्यसभा सदस्य थे। लेकिन अब वो मधेपुरा सीट से चुनाव जीत चुके थे। राज्यसभा सीट खाली कर दी। 30 जुलाई 2009 को जॉर्ज ने राज्यसभा के चुनाव के लिए पर्चा दाखिल किया। जदयू ने प्रत्याशी नहीं उतारा और जॉर्ज राज्यसभा पहुंच गए।



कुछ लोगों का कहना है कि चेले शरद यादव और नितीश उन्हें किनारे लगा रहे थे। लेकिन ऐसा नहीं था उन्हें जॉर्ज के स्वास्थ्य की चिंता थी। जब जॉर्ज राज्यसभा चुनाव में उतरते हैं तो नितीश अपना उम्मीदवार नहीं उतार उनके प्रति अपना सम्मान जाहिर करते हैं।

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समाजवादी कैसे आया बीजेपी के करीब

साल था 1995। मुंबई में 11 से 13 नवंबर तक बीजेपी का महाअधिवेशन होना था। इसमें अटल बिहारी वाजपेयी को पीएम पद के लिए पार्टी ने अपना चेहरा बनाया। जॉर्ज ने जया जेटली और नितीश कुमार को इस महाधिवेशन में बाहरी परिवेक्षक के तौर पर भेजा। यही अधिवेशन जॉर्जके और बीजेपी के बीच के मध्य पुल बना और कालांतर में जॉर्जऔर अटल करीब आ गए।

जर्जर होते जॉर्ज

वर्ष 1995 में बाथरूम में गिरने से चोट लगी और जॉर्जअल्जाइमर के शिकार बन गए। 2010 जून में जॉर्ज के घर के बाहर जया जेटली, माइकल और रिचर्ड फर्नांडिस खड़े थे। जॉर्ज के केयर टेकर केडी सिंह ने उन्हें जॉर्ज से मिलने नहीं दिया। जया ने कोर्ट में जॉर्ज की पत्नी लैला के खिलाफ मामला दायर करते हुए कहा कि वो उन्हें जॉर्ज से मिलने नहीं दे रही हैं। जया जॉर्ज के साथ पिछले 30 साल से थीं। अप्रैल 2012 में इस मामले में हाईकोर्ट का फैसला जया के खिलाफ था। जया मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गईं। जस्टिस पी सदाशिव की खंडपीठ ने हाईकोर्ट का फैसला पलट दिया।



अभी कहानी बाकी है मेरे दोस्त

हमने आपको आरंभ से अंत तक तो बता दिया। लेकिन वो नहीं बताया जो पूरी तरह फिल्मी था। ये बात है उस समय कि जब देश बांग्लादेश के उदय के लिए जी जान लगाए हुआ था। कलकत्ता से दिल्ली आ रहे हवाई जहाज में मौजूद थीं लैला कबीर और उनके बगल की सीट पर थे जॉर्ज जो उस समय संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे। बातें शुरू हुईं और इसके साथ हुआ शुरू एक रिश्ता जो शादी के साथ बदल गया।

आपको बता दें, लैला पूर्व मंत्री हुमायूं कबीर की बेटी थीं। परिवार को शादी से कोई दिक्कत नहीं थी 22 जुलाई, 1971 को शादी हुई। दोनों के जीवन में बहार थी खुश रंग थे एक बेटा हुआ नाम है उसका, शॉन फर्नांडिस।

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25 जून 1975 को जब आपातकाल लगा। जॉर्ज फरार हो गए। अगले 22 महीने तक उनकी पत्नी से कोई बात नहीं हुई। लैला बेटे के साथ अमेरिका चली गईं। इमरजेंसी ने देश को नया नेता तो दिया लेकिन एक पत्नी से उसका पति और बाप से से बेटा अलग हो गया।

लैला जब बेटे के साथ जॉर्ज को छोड़ कर गईं तो जया आ गई। लैला ने जॉर्ज को तलाकनामा भेजा। जॉर्ज ने जवाब में सोने के दो कंगन भेजे। यह कहते हुए कि ये कंगन मेरी मां के हैं। लैला समझ चुकी थीं कि जॉर्ज क्या चाहते हैं।

2 जनवरी 2010 की ठंडी दोपहर में 2 बजे लैला जॉर्ज के घर आईं। बेटे शॉन के साथ वो अपनी बहु को भी लाई। और इसी दिन जॉर्ज की पावर ऑफ़ अटर्नी, जो उन्होंने नवंबर 2009 में जया के नाम पर लिखी गई थी, वो लैला के नाम हो गई।

जॉर्ज के भाई रिचर्ड और जया इससे काफी नाराज थे। लेकिन शॉन ने कहा, ऐसा इसलिए किया गया ताकि वो अपने पिता के इलाज में पैसे खर्च कर सकें।

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चलते चलते दोस्ती का किस्सा तो बनता है

जॉर्ज और मधु लिमय पुराने दोस्त थे

साल था 1979, केंद्र में मोरारजी देसाई की सरकार थी। जॉर्ज उद्योग मंत्री थे। मानसून सत्र की शुरूवात अविश्वास प्रस्ताव से हुई। दो दिन बाद बाद वोटिंग होनी थी। 27 जुलाई को जॉर्ज ने इस्तीफा दे दिया और चरण सिंह के पाले में खड़े हो गए। उस रात मधु उनके पास आए थे। पुराने दिनों का वास्ता दिया। दोस्ती याद दिलाई और नतीजे में देसाई सरकार गिर गई। चरण सिंह पीएम बने लेकिन संसद नहीं पहुंच पाए।

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