Hindi Diwas Bhashan:..जब UN में गूंजी थी पहली बार अपनी हिंदी,45 साल पहले अटल ने दिया था ऐतिहासिक भाषण
1977 से पहले UN में किसी नेता ने हिंदी में भाषण नहीं दिया था।पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे पहले नेता थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर इतिहास रचा था।
Hindi Diwas Bhashan : पूरी दुनिया में हिंदी भाषा की धमक काफी तेजी के साथ बढ़ रही है। हिंदी की पूछ लगातार बढ़ती जा रही है और यह अंग्रेजी के बाद सबसे तेज रफ्तार से बढ़ने वाली दूसरी भाषा है। यदि दुनिया के स्तर पर देखा जाए तो हिंदी अंग्रेजी और मंदारिन के बाद तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। गूगल ने भी इस बात को माना है कि इंटरनेट पर हिंदी का प्रयोग करने वालों की संख्या लगातार काफी तेजी के साथ बढ़ रही है।
हिंदी दिवस के मौके पर हम वैश्विक स्तर पर हिंदी के बढ़ते वर्चस्व की चर्चा तो जरूर कर रहे हैं मगर यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि 1977 से पहले संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी नेता ने हिंदी में भाषण नहीं दिया था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे पहले नेता थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर इतिहास रचा था। 1977 में विदेश मंत्री के रूप में वाजपेयी के हिंदी में भाषण को सुनकर पूरा संयुक्त राष्ट्र तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था।
संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में पहला संबोधन
45 साल पहले 4 अक्टूबर 1977 वह ऐतिहासिक दिन था जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी मैं भाषण देकर अटल बिहारी वाजपेयी ने इतिहास रचा था। उस समय देश में मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार थी और वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप में काम कर रहे थे। संयुक्त राष्ट्र महासभा में उनका पहला संबोधन था और उन्होंने इस ऐतिहासिक संबोधन को हिंदी में देने का फैसला किया था। उस दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा में इतिहास रचा गया क्योंकि पहली बार वैश्विक नेताओं के सामने हिंदी गूंजी थी।
इतिहास में दर्ज हुआ अटल का नाम
अगर कोई व्यक्ति इंग्लिश बोलने में कच्चा है तो उसे निश्चित रूप से वाजपेयी से प्रेरणा लेनी चाहिए। उनकी मातृभाषा हिंदी थी और उन्होंने वैश्विक मंच पर हिंदी में भाषण देने में तनिक भी झिझक महसूस नहीं की। वैसे पहले उनका भाषण अंग्रेजी में लिखा गया था मगर वाजपेयी ने बड़े ही गर्व के साथ इस भाषण का हिंदी अनुवाद पढ़ा। हिंदी में दिया गया उनका भाषण सुनकर यूएन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था। संयुक्त राष्ट्र महासभा में पहली बार हिंदी में भाषण देकर अटल ने अपना नाम इतिहास में दर्ज करा लिया।
मजबूती से रखा था भारत का पक्ष
अटल भारत के पहले गैर कांग्रेसी विदेश मंत्री थे और उनका भाषण उस समय के मुख्य मुद्दों पर केंद्रित था। अपने भाषण के दौरान उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के नस्लभेद और जिंबाब्वे में जारी उपनिवेशवाद का प्रमुखता से जिक्र किया था। इसके साथ ही उन्होंने नामीबिया की अस्थिर स्थिति और साइप्रस में लड़ाई का जिक्र करते हुए एक व्यापक टेस्ट बैन समझौता न होने पर चिंता जताई थी। अपने संबोधन के दौरान उन्होंने फिलिस्तीन का मुद्दा भी उठाया था।
उन्होंने इजराइल की ओर से अरब भूमि पर कब्जे का विरोध किया और कहा कि फिलिस्तीन के अरब लोगों को जोर जबर्दस्ती से अपने घर से बेदखल किया गया है और उन्हें घर लौटने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। उन्होंने वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा का भी उल्लेख किया था। वाजपेयी का कहना था कि भारत का हमेशा से इस परिकल्पना में विश्वास रहा है कि सारा संसार ही एक परिवार है।
वैश्विक समस्याओं का जिक्र
1977 में आपातकाल के बाद देश में जनता पार्टी की नई सरकार का गठन हुआ था और अटल ने इस बात का जिक्र करते हुए कहा था कि छह महीने के अंत समय में भी हमने उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। उनका कहना था कि भारत में मूलभूत मानवाधिकार फिर प्रतिष्ठित किए जा चुके हैं और भय और आतंक के जिस माहौल ने हमें घेर लिया था वह पूरी तरह समाप्त हो गया है। अफ्रीका के रंगभेद का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि लोगों को स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है या रंगभेद में विश्वास करने वाला अल्पमत किसी भी साल बहुमत पर हमेशा अन्याय और दमन जारी रखेगा।
विपक्षी नेता के रूप में भी किया प्रतिनिधित्व
अटल में इतनी ढेर सारी खूबियां थी कि विपक्षी दलों के नेता भी उनके मुरीद थे। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉ मनमोहन सिंह तक सभी प्रधानमंत्रियों ने अटल को पूरा सम्मान दिया। संसद में उनके भाषण के दौरान विपक्षी सांसद भी मुद्दों पर मेज थपथपा ने पर मजबूर हो जाया करते थे। देश में बहुत कम ऐसे नेता हुए हैं जिन्हें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की ओर से इतना ज्यादा सम्मान मिला हो। अटल ने एक बार विपक्ष में रहते हुए यूएन में भारत का प्रतिनिधित्व किया और कश्मीर पर पाकिस्तान के बुरे मंसूबों को पूरी तरह नाकाम कर दिया। 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने विपक्ष में होने के बावजूद वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग भेजे गए प्रतिनिधिमंडल के नेतृत्व की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी। पाकिस्तान ने विरोधी दल के नेता को जिनेवा भेजने पर हैरानी भी जताई थी मगर अटल का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि वे सभी को प्रिय थे।
पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में 27 फरवरी 1994 को ओआईसी के जरिए प्रस्ताव रखा। पाकिस्तान ने कश्मीर में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाते हुए भारत की निंदा की। यह प्रस्ताव पारित होने पर भारत बड़े संकट में फंस जाता क्योंकि उसे यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल के कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता। वाजपेयी ने भारतीय प्रतिनिधिमंडल का कुशलता से नेतृत्व करते हुए पाकिस्तान के मंसूबों को विफल कर दिया