Hindu Vidhwa Punarvivah: हिंदू विधवा पुनर्विवाह प्रावधान क्या है, जानें कब हुआ था पहला विधवा पुनर्विवाह

Hindu Widow Remarriage: क्या आप हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम के बारे में जानते हैं। यह कब लागू हुआ, किसने लागू किया और इसके लागू होने के बाद पहला पुनर्विवाह कब हुआ? आइए जानें इसके बारे में।;

Written By :  AKshita Pidiha
Update:2024-12-07 17:06 IST

Hindu Vidhwa Punarvivah (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Hindu Widow Remarriage: हिंदू विधवा पुनर्विवाह एक ऐतिहासिक सामाजिक और कानूनी पहल है, जिसने विधवाओं को पुनः विवाह करने की अनुमति दी। प्राचीन भारतीय समाज में, विशेषकर उच्च जातियों में, विधवाओं को समाज के कठोर नियमों का सामना करना पड़ता था। उनके जीवन में रंग, आनंद और स्वतंत्रता की कोई जगह नहीं थी। सिर मुंडवाना, सफेद वस्त्र पहनना और सामाजिक आयोजनों से दूरी बनाए रखना उनकी नियति बन गई थी। इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने की आवश्यकता महसूस की गई, जिससे हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 अस्तित्व में आया।

हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (Hindu Vidhwa Punarvivah Adhiniyam 1856 Kya Hai In Hindi)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

1856 में पारित हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम ने विधवाओं को कानूनी रूप से पुनर्विवाह करने का अधिकार दिया। यह सामाजिक सुधार ईश्वर चंद्र विद्यासागर (Ishwar Chandra Vidyasagar) की कड़ी मेहनत और समर्पण का परिणाम था। इस कानून का प्रारूप लॉर्ड डलहौजी (Lord Dalhousie) ने तैयार किया था, जबकि इसे लॉर्ड कैनिंग (Lord Canning) ने लागू किया।

किस वजह से विधवा पुनर्विवाह था जरूरी (Hindu Vidhwa Punarvivah Adhiniyam Kyu Lagu Hua)

बंगाल में आमतौर पर लड़कियों की शादी लगभग 8 से 10 साल की उम्र में कर दी जाती थी। कई बार इन लड़कियों का विवाह 60-70 साल के बुजुर्ग पुरुषों से होता था, जो अधिक समय तक जीवित नहीं रहते थे। पति की मृत्यु के बाद इन छोटी विधवाओं की स्थिति बेहद दयनीय हो जाती थी। समाज उनके साथ अमानवीय व्यवहार करता, जिससे उनका जीवन और कठिन हो जाता था।

विद्यासागर ने शास्त्रों में ढूंढा समाधान

ऐसे सामाजिक हालात को बदलने के लिए ईश्वर चंद्र विद्यासागर (Ishwar Chandra Vidyasagar) ने विधवा पुनर्विवाह (Vidhwa Punarvivah) को वैध बनाने का संकल्प लिया। उन्होंने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया, यह जानने के लिए कि क्या हिंदू धर्मग्रंथों में विधवा पुनर्विवाह का कोई प्रावधान है। इसके लिए उन्होंने संस्कृत कॉलेज में कई ग्रंथों का अध्ययन किया। अंततः पाराशर संहिता में उन्हें विधवा पुनर्विवाह का समर्थन करने वाले शास्त्रसम्मत आधार मिल गये। इसी तर्क के आधार पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम के लिए संघर्ष की शुरुआत की।

1855 में, उन्होंने विधवा पुनर्विवाह (Vidhwa Punarvivah) को वैधानिक दर्जा देने के लिए ब्रिटिश सरकार को एक याचिका प्रस्तुत की। हालांकि, इस पहल का विरोध भी हुआ और हिंदू रूढ़िवादी संगठनों ने इस याचिका के खिलाफ अपनी याचिका दाखिल की। बावजूद इसके, विद्यासागर की याचिका को मंजूरी मिली, और 19 जुलाई, 1856 को हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हो गया।

पहली विधवा पुनर्विवाह का संघर्ष (First Widow Remarriage)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

कोलकाता के इतिहास में यह एक विशेष स्थान रखता है। विधवा पुनर्विवाह अधिनियम के लागू होने के बाद, इस कानून के तहत पहली बार एक शादी होने जा रही थी। शहर के माहौल में तनाव और उत्सुकता थी। यह ऐतिहासिक विवाह 10 साल की विधवा कालीमती और वर श्रीचंद्र विद्यारत्न के बीच संपन्न होना था। समारोह का स्थान था 12, सुकीस स्ट्रीट, जो प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रोफेसर राजकृष्ण बंदोपाध्याय का निवास। इस ऐतिहासिक मौके पर पुलिस ने सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए थे। केवल गिने-चुने मेहमानों को ही घर के अंदर जाने की अनुमति थी। पालकी के मार्ग पर पुलिस का कड़ा पहरा था। विद्यासागर ने वधू के लिए अपने हाथों से बुनी साड़ी और गहने उपहार स्वरूप दिए और विवाह के सभी खर्च स्वयं उठाए।

इस आयोजन की सुरक्षा और सफलता सुनिश्चित करने के लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर और उनके साथ कुछ अन्य प्रगतिशील ब्राह्मण वहां मौजूद थे। ये सभी समाज को कुरीतियों और जकड़नों से मुक्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे। यह घटना न केवल विधवा पुनर्विवाह आंदोलन की जीत थी, बल्कि समाज सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम भी थी।

हालांकि, इससे पहले भी कुछ असाधारण प्रयास हुए थे, जैसे दक्षिणारंजन मुखोपाध्याय का बर्दवान की रानी और राजा तेजचंद्र की विधवा वसंता कुमारी से विवाह। लेकिन उस समय विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता नहीं थी, जिसके कारण इस विवाह को समाज ने स्वीकार नहीं किया। मुखोपाध्याय ब्राह्मण थे और उन्होंने अपनी जाति से बाहर जाकर विवाह किया, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था। इस शादी का समर्थन करने के लिए कलकत्ता के पुलिस मजिस्ट्रेट स्वयं गवाह बने। लेकिन समाज की तीव्र नाराजगी के चलते नवविवाहित जोड़े को कलकत्ता और बंगाल छोड़कर लखनऊ में शरण लेनी पड़ी।

समाज में प्रभाव और विद्यासागर की भूमिका

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

पहले विधवा पुनर्विवाह के बाद, विद्यासागर ने कई अन्य विधवाओं के विवाह का प्रबंध किया और उनके खर्चों को वहन किया। इसके चलते उन पर भारी कर्ज भी हो गया, लेकिन उन्होंने समाज सुधार के अपने मिशन को कभी नहीं छोड़ा। पहले विधवा पुनर्विवाह के बाद, बंगाल के हूगली और मिदनापुर जैसे क्षेत्रों में धीरे-धीरे ऐसे विवाह होने लगे। हालांकि, समाज का विरोध जारी रहा। लेकिन विद्यासागर जी के प्रयासों ने एक नई सामाजिक क्रांति की नींव रखी।

यह विवाह केवल एक व्यक्तिगत घटना नहीं थी, बल्कि एक नए युग की शुरुआत थी, जिसने समाज को रूढ़ियों से बाहर निकलने का साहस दिया। धीरे-धीरे यह आंदोलन मजबूत होता गया और विधवा पुनर्विवाह को सामाजिक स्वीकृति मिलने लगी।

विधवा पुनर्विवाह अधिनियम की मुख्य विशेषताएं

- इस अधिनियम के तहत हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह को वैध और कानूनी रूप से विनियमित किया गया।

- विधवा को पुनर्विवाह के बाद वही अधिकार और उत्तराधिकार प्राप्त होते थे, जैसे किसी महिला को उसके पहले विवाह में मिलते।

- पुनर्विवाह करने पर विधवा अपने दिवंगत पति से जुड़े सभी अधिकार, कर्तव्य और विरासत संबंधी दावों को खो देती थी।

- जो पुरुष विधवाओं से विवाह करते थे, उन्हें सामाजिक विरोध से बचाने और कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के प्रावधान किए गए। इस कानून ने समाज में विधवाओं के पुनर्विवाह को बढ़ावा देने और इसे स्वीकार्य बनाने की दिशा में एक बड़ी भूमिका निभाई।

- इस धारा के अनुसार, हिंदू विधवा का सहमति से किया गया विवाह वैध और कानूनी रूप से मान्य है। यदि कोई महिला विधवा हो चुकी है, तो उसका विवाह रद्द नहीं किया जा सकता जब तक हिंदू कानून या परंपरा अन्यथा निर्देश न दे।

- इस धारा के तहत, विधवा का अपने मृत पति की संपत्ति पर अधिकार समाप्त हो जाता है। यदि विधवा पुनर्विवाह करती है, तो वह अपने पहले पति की संपत्ति पर किसी प्रकार का भरण-पोषण या विरासत का दावा नहीं कर सकती। मृत पति की संपत्ति को उनके अगले उत्तराधिकारी को स्थानांतरित कर दिया जाता है।

इस अधिनियम की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि कोई विधवा, जो किसी संपत्ति को छोड़कर जाने वाले किसी व्यक्ति की मृत्यु के समय निःसंतान विधवा है, ऐसी संपत्ति का सम्पूर्ण भाग या उसका कोई भाग उत्तराधिकार में पाने में समर्थ है, जबकि इस अधिनियम के पारित होने से पूर्व वह निःसंतान विधवा होने के कारण उसे उत्तराधिकार में पाने में असमर्थ थी।

मृत पति के बच्चों की अभिरक्षा (धारा 3)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

इस प्रावधान के तहत विधवा के पुनर्विवाह के बाद उसके पहले पति के बच्चों की देखभाल और अभिरक्षा का प्रबंधन किया गया है। मृत पति के पिता, दादा, माता, दादी, या अन्य पुरुष रिश्तेदार बच्चों के अभिभावक बनने के लिए अदालत में याचिका दायर कर सकते हैं। यदि अदालत उचित समझे, तो बच्चों के नाबालिग रहने के दौरान उनकी देखभाल और अभिभावक का अधिकार उनके रिश्तेदारों को सौंपा जा सकता है।

कानून का कितना असर हुआ जमीन पर

इस कानून का ज़मीनी प्रभाव सीमित रहा। 1881 की बंगाल जनगणना के आंकड़ों पर नजर डालें तो 14 वर्ष से कम उम्र की 50,000 विधवा लड़कियां थीं, जबकि 15-19 वर्ष के बीच की 93,000 और 20-29 वर्ष की उम्र के बीच 3,76,000 विधवा महिलाएं थीं। 1856 में कानून पारित होने के बाद के 20 वर्षों में इनमें से केवल 80 विधवा लड़कियों का पुनर्विवाह हो सका, जिनमें से 60 विवाह ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने स्वयं संपन्न कराए। 1876 से 1886 के बीच, लगभग 500 विधवा महिलाओं का पुनर्विवाह संभव हो पाया।

निराशा की स्थिति क्यों थी

इस स्थिति का एक बड़ा कारण समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता थी। साथ ही, 1856 के कानून में भी एक महत्वपूर्ण कमी थी। कानून विधवा पुनर्विवाह की अनुमति तो देता था। लेकिन विवाह को आधिकारिक रूप से पंजीकृत करने का कोई प्रावधान नहीं था। इस कमी के कारण, विधवा लड़कियों के माता-पिता, जो इस कानून के समर्थक थे, भी पुनर्विवाह को लेकर संकोच करते थे।अक्सर ऐसा होता कि भारी दहेज चुकाने के बाद कोई पुरुष विधवा लड़की से शादी कर लेता। लेकिन विवाह की वैधानिकता न होने के कारण उसे आसानी से छोड़ दिया जाता। इस स्थिति में, ऐसी महिलाएं फिर से उसी असहाय और उपेक्षित स्थिति में लौट आतीं, जिससे वे बचने की कोशिश कर रही थीं।

आधुनिक समय में विधवा पुनर्विवाह

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

आज, विधवा पुनर्विवाह को समाज और कानून दोनों ने स्वीकार कर लिया है। भारतीय संविधान के तहत महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त हैं, जिसमें पुनर्विवाह का अधिकार भी शामिल है। सरकारी योजनाओं और जागरूकता अभियानों के माध्यम से विधवाओं को प्रोत्साहित किया जा रहा है। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में आज भी रूढ़िवादी सोच मौजूद है। लेकिन शिक्षा और जागरूकता इसे कम कर रही है।

ईश्वर चंद्र विद्यासागर का योगदान

इस सुधार आंदोलन में ईश्वर चंद्र विद्यासागर का योगदान अविस्मरणीय है। वे एक प्रख्यात शिक्षाविद् और समाज सुधारक थे, जिन्होंने समाज में जागरूकता फैलाने के लिए अथक प्रयास किए। उन्होंने प्राचीन धर्मग्रंथों का हवाला देकर यह साबित किया कि हिंदू धर्म विधवा पुनर्विवाह के खिलाफ नहीं है। विद्यासागर ने न केवल लेखन और शिक्षा के माध्यम से आंदोलन को गति दी, बल्कि व्यक्तिगत रूप से कई विधवा पुनर्विवाह करवाए। उनके प्रयासों ने सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने का मार्ग प्रशस्त किया।

समाज की प्रतिक्रिया

इस अधिनियम को लागू करना आसान नहीं था। समाज के एक बड़े वर्ग ने इसे भारतीय संस्कृति और धर्म पर हमला मानते हुए विरोध किया। विशेष रूप से उच्च जातियों ने इसे अपनी परंपराओं के खिलाफ माना। विधवा पुनर्विवाह करने वाली महिलाओं को बहिष्कृत कर दिया जाता था। हालांकि, सुधारवादी विचारधारा वाले लोगों ने इसे प्रगतिशील कदम मानते हुए समर्थन किया। महिलाओं के अधिकारों और सामाजिक समानता के लिए यह कानून एक मील का पत्थर साबित हुआ।

हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856, भारतीय समाज में एक क्रांतिकारी बदलाव का प्रतीक था। यह केवल एक कानून नहीं, बल्कि एक आंदोलन था जिसने विधवाओं को समानता और स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस अधिनियम ने यह सिद्ध किया कि सामाजिक बदलाव संभव है। बशर्ते इसके लिए समाज को शिक्षित और जागरूक किया जाए। आज भी, इस अधिनियम की भावना महिलाओं के अधिकारों और सशक्तिकरण के प्रयासों को प्रेरित करती है।

Tags:    

Similar News