Hyderabad Liberation: हैदराबाद रियासत के भारतीय संघ में विलय के 75 साल पूरे, अब चुनावी राजनीति का साया
Hyderabad Liberation: निजाम की हैदराबाद रियासत के भारतीय संघ में विलय के 75 साल पूरे हो गए हैं और इस अवसर पर केंद्र और राज्य सरकार तेलंगाना में अलग-अलग कार्यक्रम कर रही है।
Hyderabad Liberation: निजाम की हैदराबाद रियासत के भारतीय संघ में विलय के 75 साल पूरे हो गए हैं और इस अवसर को मनाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार तेलंगाना में अलग-अलग कार्यक्रम कर रही है। जहां केंद्र इसे 'हैदराबाद राज्य मुक्ति दिवस' के रूप में मना रहा है वहीं मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव "राष्ट्रीय एकता दिवस" मना रहे हैं।
महाराष्ट्र और कर्नाटक पहले से ही इस दिन को मराठवाड़ा मुक्ति दिवस और हैदराबाद कर्नाटक मुक्ति दिवस (दोनों राज्यों के कुछ क्षेत्र हैदराबाद रियासत के अंतर्गत आते हैं) के रूप में मनाते हैं, सो केंद्र का लक्ष्य तीन राज्यों में इस दिन को मनाने का है।
ऐतिहासिक संदर्भ
जब भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ, तब वह देश की कोई 500 रियासतों को संघ में लाने के लिए संघर्ष कर रहा था। जिन राज्यों ने संघ में शामिल होना स्वीकार नहीं किया था, उनमें हैदराबाद भी था। इसके कारण सरदार वल्लभभाई पटेल ने कहा था कि एक स्वतंत्र हैदराबाद "भारत के पेट में कैंसर" जैसा होगा।
1940 के दशक में, निजाम के खिलाफ कम्युनिस्टों के नेतृत्व में एक मजबूत किसान आंदोलन शुरू हुआ था। जब भारत में विलय के बारे में चर्चा शुरू हुई तब निज़ाम और उनकी रियासत का कुलीन वर्ग एक स्वतंत्र हैदराबाद के पक्ष में थे, लेकिन किसान प्रदर्शनकारियों सहित अधिकांश आबादी, भारत संघ में शामिल होना चाहती थी।
निज़ाम ने किसानों को आतंकित करने और दबाने के लिए और संघ में शामिल होने के खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध का नेतृत्व करने के लिए "रजाकार" नामक एक अर्धसैनिक बल का इस्तेमाल किया। 27 अगस्त, 1948 को भैरनापल्ली में भारत में विलय की मांग को कुचलने के लिए रजाकारों ने गांवों को लूट लिया और तमाम लोगों की अंधाधुंध हत्या कर दी। 17 सितंबर, 1948 को, भारतीय सेना ने रियासत में प्रवेश किया, जिसमें ऑपरेशन पोलो के हिस्से के रूप में आधुनिक तेलंगाना और महाराष्ट्र और कर्नाटक के कुछ क्षेत्र शामिल थे। एक हफ्ते से भी कम समय में, निज़ाम और रज़ाकर दस्तों ने आत्मसमर्पण कर दिया।
चुनावी राजनीति
तेलंगाना राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। सभी पार्टियां इसकी तैयारी में जुटी हुईं हैं। भाजपा ऐतिहासिक अवसर की वर्षगांठ को टीआरएस और उसके सहयोगी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के खिलाफ राजनीतिक बढ़त हासिल करने के अवसर में बदलने की कोशिश कर रही है।
रजाकारों से संबंध
ओवैसी के नेतृत्व वाली पार्टी मजलिस ए इत्तेहाद उल मुसलमीन या एमआईएम पर आरोप लगते हैं कि ये रजाकार तथा भारत संघ में विलय के विरोधियों से जन्मा संगठन है। वहीं एमआईएमआईएम का कहना है कि मूल मजलिस 17 सितंबर, 1948 के बाद समाप्त हो गई थी। इतिहासकार मोहम्मद नूरुद्दीन खान के अनुसार, एमआईएम के अध्यक्ष कासिम रजवी और संगठन के अन्य वरिष्ठ नेता असदुद्दीन ओवैसी के दादा अब्दुल वहीद ओवैसी को बागडोर सौंपने के बाद पाकिस्तान चले गए थे। नूरुद्दीन खान का कहना है कि इससे पहले अब्दुल वहीद ओवैसी इस संगठन से नहीं जुड़े थे। बहरहाल, ये मसला फिर चुनावों में बना रहेगा, ये तय है। भाजपा ने टीआरएस और एआईएमआईएम को घेरने की पूरी तैयारी कर रखी है। टीआरएस सुप्रीमो केसीआर के सामने इस बार सत्ता बनाये रखने की बड़ी चुनौती है। केसीआर को राष्ट्रीय विपक्षी राजनीति में अपना दम दिखाने की भी चुनौती है।