Jammu-Kashmir Election: फुस्स हो गई जमात ए इस्लामी
Jammu-Kashmir Election: जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में जमात ए इस्लामी का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा।
Jammu-Kashmir Election: जम्मू-कश्मीर चुनाव में "एक्स फैक्टर" माने जा रहे जमात-ए-इस्लामी ने बेहद खराब प्रदर्शन किया है। करीब चार दशक बाद चुनावी राजनीति में वापसी कर रहे इस संगठन के 10 में से आठ उम्मीदवार, जिन्होंने निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा था, अपनी जमानत जब्त करा बैठे। वैसे, अपनी हार में जमात इतिहास को दोहरा रही है। यह कश्मीर में अपने दम पर कभी भी एक मजबूत राजनीतिक ताकत नहीं रही है।
ये रहा नतीजा
सोपोर से जमात के उम्मीदवार मंजूर अहमद कालू को सिर्फ 406 वोट मिले। सोपोर कभी हुर्रियत नेता दिवंगत सैयद अली शाह गिलानी का गढ़ हुआ करता था। जमात का सबसे अच्छा प्रदर्शन कुलगाम और जैनापोरा सीटों पर रहा, जहां इसके उम्मीदवार सयार अहमद रेशी और ऐजाज अहमद मीर क्रमश: 8,000 और 13,000 वोटों से हारकर दूसरे स्थान पर रहे।
प्रतिबंध लगा था
1987 के चुनावों के बाद जमात को गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत प्रतिबंधित किया गया था। चुनावी मैदान में अप्रत्यक्ष रूप से उतरने के जमात के कदम का स्वागत और आलोचना दोनों हुई थी। 70 के दशक की शुरुआत में चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के बाद से चुनावी आंकड़ों पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि जमात कभी भी अपने सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव को वोटों में तब्दील नहीं कर पाई। 1987 के चुनावों को छोड़कर - जब इसने मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के बैनर तले 16 से अधिक संगठनों के साथ विधानसभा चुनाव लड़ा और गठबंधन ने चुनावों में भारी धांधली के आरोपों के बावजूद 30 फीसदी से अधिक वोट हासिल किए - इसका वोट शेयर कभी भी अपने दम पर दोहरे अंकों तक नहीं पहुंचा।
जमात-ए-इस्लामी की स्थापना
जमात-ए-इस्लामी की जड़ें उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कश्मीर में इस्लामी सुधारवादी आंदोलनों में हैं, जब जम्मू और कश्मीर डोगरा शासन के अधीन था। इस चरण के दौरान एक अग्रणी नेता थे कश्मीर के मीरवाइज मौलाना रसूल शाह ल, जिन्होंने 1899 में अंजुमन नुसरत उल-इस्लाम का गठन किया। इसका उद्देश्य आधुनिक और इस्लामी दोनों तरह की शिक्षा प्रदान करना और लोकप्रिय सूफी प्रथाओं में गैर-इस्लामी “नवाचारों” और अंधविश्वासों को खत्म करना था।
जमात का गठन नेशनल कॉन्फ्रेंस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति और मुस्लिम कॉन्फ्रेंस द्वारा समर्थित मुस्लिम राष्ट्रवाद से मोहभंग के माहौल में हुआ और इसने विभाजन के बाद कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की वकालत की। इसी पृष्ठभूमि में जमात ने बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस की राजनीति के खिलाफ जनमत तैयार किया।
राजनीतिक सफर
कश्मीर के भारत का हिस्सा होने के बारे में अपनी आपत्तियों के बावजूद, जमात ने शुरू में भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास दिखाया और 1969 के स्थानीय पंचायत चुनावों के लिए कुछ उम्मीदवारों को प्रायोजित किया। इसके कुछ उम्मीदवार जीत भी गए। इसके बाद इसने 1971 के लोकसभा चुनावों में भाग लिया, लेकिन कोई भी सीट जीतने में विफल रही।
इसने 1972 में विधानसभा चुनावों में अपनी शुरुआत की, जिसमें 22 उम्मीदवार मैदान में उतरे (तब जम्मू-कश्मीर में 75 सीटें थीं), जिनमें से पाँच जीते। इसके उम्मीदवारों को कुल 7 फीसदी वोट मिले। हालाँकि, जिन सीटों पर जमात ने चुनाव लड़ा, वहाँ इसे लगभग 24 फीसदी वोट मिले। यह नौ सीटों पर दूसरे स्थान पर रही। प्रमुख सीटों में से यह बांदीपोरा, हरल, सोनावारी, कंगन, गंदेरबल और अमीराकदल में दूसरे स्थान पर रही।