Maharashtra Political Crisis: फिर फोकस में आया दलबदल कानून, डिप्टी स्पीकर व राज्यपाल के हाथों में होगा फैसला

Maharashtra Political Crisis: दल-बदल विरोधी कानून तब लागू नहीं होता जब किसी राजनीतिक दल को छोड़ने वाले विधायकों की संख्या सदन में पार्टी की कुल संख्या का दो-तिहाई हो।

Written By :  Neel Mani Lal
Update: 2022-06-23 08:34 GMT

महाराष्ट्र संकट (photo: social media )

Maharashtra Political Crisis: महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट ने एक बार फिर से दलबदल विरोधी कानून (anti Defection law) और डिप्टी स्पीकर (Deputy Speaker)  व राज्यपाल (Governor) की भूमिकाओं को सामने ला दिया है क्योंकि फैसला इन्हीं के हाथों से होगा।

22 जून को सत्तारूढ़ शिवसेना (Shivsena) ने मुंबई में अपने सभी विधायकों की बैठक बुलाई। जिसमें काफी विधायक नदारद थे क्योंकि वे सब पार्टी के बागी नेता एकनाथ शिंदे के साथ गुवाहाटी में डेरा डाले हुए हैं। पार्टी ने अपने विधायकों को चेतावनी दी है कि बैठक से उनकी अनुपस्थिति से यह अनुमान लगाया जाएगा कि वे राजनीतिक दल छोड़ना चाहते हैं। इसलिए उनके खिलाफ दलबदल विरोधी कानून के तहत कार्रवाई की जाएगी।

क्या है दलबदल कानून

दलबदल विरोधी कानून में उन विधायकों की अयोग्यता का प्रावधान है, जो एक राजनीतिक दल के टिकट पर चुने जाने के बाद, "स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देते हैं"। सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक रूप से इस शब्द की व्याख्या की है और कहा है कि एक विधायक के आचरण से यह संकेत मिल सकता है कि उन्होंने अपनी पार्टी छोड़ दी है या नहीं। यह कानून निर्दलीय विधायकों पर भी लागू होता है। उन्हें किसी राजनीतिक दल में शामिल होने से मना किया जाता है, और यदि वे ऐसा करते हैं, तो वे विधायिका में अपनी सदस्यता भी खो सकते हैं।

कब लागू नहीं होता कानून

दल-बदल विरोधी कानून तब लागू नहीं होता जब किसी राजनीतिक दल को छोड़ने वाले विधायकों की संख्या सदन में पार्टी की कुल संख्या का दो-तिहाई हो। ये विधायक किसी अन्य पार्टी में विलय कर सकते हैं या सदन में एक अलग समूह बन सकते हैं। मिसाल के तौर पर पिछले साल मेघालय में कांग्रेस के 17 में से 12 विधायक, तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे। 2019 में राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के सभी छह विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए थे। उसी साल, तेलुगु देशम के छह राज्यसभा सांसदों में से चार भाजपा में शामिल हो गए। ये सब दलबदल कानून की जद से बाहर थे।

महाराष्ट्र की बात करें तो शिवसेना के संभवतः 30 विधायक एकनाथ शिंदे के साथ हैं। इस संख्या का मतलब है कि यह महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना के 55 विधायकों के दो-तिहाई तक नहीं पहुंचता है। इसलिए, शिंदे और उनके समूह को दलबदल विरोधी कानून के तहत सुरक्षा उपलब्ध नहीं होगी। अब यह विधानसभा अध्यक्ष तय करेंगे कि किसी विधायक ने एक पार्टी या एक समूह छोड़ दिया है जो पार्टी का दो-तिहाई हिस्सा है।

अध्यक्ष का पद खाली

महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष का पद फिलहाल खाली है। अंतिम अध्यक्ष कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नाना पटोले थे जिन्होंने 2019 में पद से इस्तीफा दे दिया था। संविधान के अनुच्छेद 180 (1) में कहा गया है कि जब पद खाली होता है तो उपाध्यक्ष अध्यक्ष के कर्तव्यों का पालन करता है। फिलहाल, राकांपा के उपाध्यक्ष नरहरि जिरवाल, विधानसभा अध्यक्ष के रूप में कार्य कर रहे हैं। उन्हें महाराष्ट्र विधायिका के नियमों का पालन करना होगा जो दलबदल विरोधी कानून के तहत प्रक्रिया को निर्धारित करते हैं।

संभावित निर्णय

वर्तमान परिस्थितियों में, दो तरीकों से कानून के तहत निर्णय लिया जा सकता है।

- विधानसभा का कोई भी विधायक ज़ीरवाल को याचिका दे सकता है कि कुछ विधायक अपने राजनीतिक दल से अलग हो गए हैं। ऐसी याचिका के साथ दस्तावेजी साक्ष्य होने चाहिए। इसके बाद डिप्टी स्पीकर उन विधायकों को याचिका फारवर्ड करेंगे जिनके खिलाफ दलबदल का आरोप लग रहे हैं। विधायकों के पास अपना पक्ष रखने के लिए सात दिन या डिप्टी स्पीकर द्वारा तय समय होगा।

- बागी एकनाथ शिंदे और उनके समर्थक विधायक भी सबूत के साथ डिप्टी स्पीकर को लिख सकते हैं कि वे शिवसेना की दो-तिहाई ताकत का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनको दलबदल विरोधी कानून के तहत सुरक्षा है।

दोनों ही मामले में स्पीकर सभी पक्षों को सुनने के बाद मामले का फैसला करेंगे, जिसमें समय लग सकता है जिसकी कोई सीमा नहीं है।

लगता है लम्बा समय

वैसे, हाल के वर्षों में राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने दलबदल कार्यवाही में सबसे तेज़ निर्णयों में से एक दिया था। उन्होंने जद (यू) सांसदों शरद यादव और अली अनवर के दलबदल का फैसला तीन महीने में कर दिया। लेकिन राज्य विधानसभाओं में दलबदल याचिकाओं में बहुत अधिक समय लगा है। जैसे कि, 2020 में, सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के एक मंत्री को उनके पद से हटाने के लिए अपनी असाधारण शक्ति का इस्तेमाल किया। भाजपा में शामिल हुए कांग्रेस विधायक के खिलाफ याचिका तीन साल से लंबित थी।

बहरहाल, अध्यक्ष जल्दी निर्णय करे या समय लगाये, उसे आमतौर पर अदालत में चुनौती दी जाती है, जिससे अंतिम निर्णय में और देरी होती है। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल के विधायक मुकुल रॉय और झारखंड के विधायक बाबू लाल मरांडी से जुड़े दल-बदल के मामले न्यायिक कार्यवाही में लंबे समय से उलझे हुए हैं।

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