रैणी गांव: जहां कभी महिलाओं ने शुरू किया था 'चिपको आंदोलन', वहीं आई त्रासदी

उत्तराखंड के रैणी गांव के जंगल के लगभग ढाई हजार पेड़ों को काटने की जब नीलामी हुई, तो गौरा देवी के नेतृत्व मे रैणी गांव की महिला मंगल दल की 21 अन्य महिलाओं ने इस नीलामी का विरोध किया।

Update:2021-02-07 23:15 IST
रैणी गांव: जहां कभी महिलाओं ने शुरू किया था 'चिपको आंदोलन', वहीं आई त्रासदी

चमोली: उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित जिस रैणी गांव में रविवार को ग्लेशियर टूटने पर जलप्रलय ने तबाही मचा दी। यह पर्यावरण के क्षेत्र में चले 'चिपको आंदोलन' की नैत्री गौरा देवी का गांव है।

इस गांव की महिलाएं पर्यावरण को बचाने के लिए कुल्हाड़ियों के आगे डट गई थीं। सालों पहले पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाने वाली गौरा देवी का गांव आज आपदा को झेल रहा है।

आइए आज हम आपको 'चिपको आंदोलन' और उसकी नेत्री गौरा देवी के बारें में कुछ रोचक बातें बताते हैं।

रैणी गांव: जहां कभी महिलाओं ने शुरू किया था 'चिपको आंदोलन', वहीं आई त्रासदी(फोटो: सोशल मीडिया)

कब और और कैसे हुई थी चिपको आंदोलन की शुरुआत

उत्तराखंड के चमोली जिले में गोपेश्वर नाम के एक स्थान पर 1972 में चिपको आंदोलन की नींव पड़ी थी। रैणी गांव से आंदोलन की शुरुआत हुई थी।

इस आंदोलन को पर्यावरणविद चंडीप्रसाद भट्ट और आदिवासी महिला गौरा देवी ने मिलकर शुरू किया था। चिपको आंदोलन के प्रणेता पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा थे।

उन्होंने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था। इस आंदोलन में पेड़ों को काटने से बचने के लिए गांव के लोग पेड़ से चिपक जाते थे, इसी वजह से इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा था।

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रैणी गांव: जहां कभी महिलाओं ने शुरू किया था 'चिपको आंदोलन', वहीं आई त्रासदी(फोटो: सोशल मीडिया)

चिपको आंदोलन चलाने की क्यों पड़ी थी जरूरत?

दरअसल 1972 में उत्तराखंड में जंगलों की अंधाधुंध और अवैध कटाई काफी बढ़ गई थी। पर्यावरणविद और स्थानीय लोग इससे आजिज आ चुके थे।

सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट और गौरा देवी ने लोगों से बात करके पेड़ों की कटाई रोकने के लिए आंदोलन शुरू करने का फैसला किया।

इस आंदोलन में महिलाओं का खास योगदान रहा। इस आंदोलन में वनों की कटाई को रोकने के लिए गांव के पुरुष और महिलाएं पेड़ों से लिपट जाते थे और ठेकेदारों को पेड़ नहीं काटने दिया जाता था और इस दौरान कई नारे भी मशहूर हुए और आंदोलन का हिस्सा बने।

रैणी गांव: जहां कभी महिलाओं ने शुरू किया था 'चिपको आंदोलन', वहीं आई त्रासदी(फोटो: सोशल मीडिया)

चिपको आंदोलन की वजह से सरकार को बनाना पड़ा था वन संरक्षण अधिनियम

ये बात बेहद कम लोग जानते होंगे। जिस समय यह आंदोलन चल रहा था, उस समय केंद्र की राजनीति में भी पर्यावरण एक एजेंडा बन गया था। इस आंदोलन का असर ये हुआ कि बाद में केंद्र सरकार को वन संरक्षण अधिनियम बनाना पड़ा था।

वनों को काटने पर लगाया गया था 15 साल का प्रतिबंध, इंदिरा ने बनाया था विधेयक

गौरतलब है कि इस अधिनियम के तहत वन की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित करना है। कहा जाता है कि चिपको आंदोलन की वजह से साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक विधेयक बनाया था।

इस विधेयक में हिमालयी क्षेत्रों के वनों को काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया था। चिपको आंदोलन ना सिर्फ उत्तराखंड में बल्कि पूरे देश में फैल गया था और इसका असर दिखने लगा था।

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रैणी गांव: जहां कभी महिलाओं ने शुरू किया था 'चिपको आंदोलन', वहीं आई त्रासदी(फोटो: सोशल मीडिया)

12 साल की उम्र में हुई थीं गौरा देवी की शादी, 10 वर्ष बाद पति की हो गई थी मौत

गौरा देवी का जन्म 1925 में उत्तराखंड के लाता गांव के मरछिया परिवार में श्री नारायण सिंह के घर में हुआ था। इनकी शादी मात्र 12 वर्ष की उम्र में मेहरबान सिंह के साथ कर दी गई थी, जो कि नजदीकी गांव रैणी के निवासी थे।

हालांकि शादी के 10 साल के बाद मेहरबान सिंह की मौत हो गई और गौरा देवी को अपने बच्चों के लालन-पालन में काफी दिक्कतें आईं। फिर भी उन्होंने उनका अच्छे से पालन-पोषण किया और अपने बेटे चंद्र सिंह को स्वालंबी बनाया। उन दिनों भारत-तिब्बत व्यापार हुआ करता था, जिसके जरिये गौरा देवी अपनी आजीविका चलाती थीं।

ऐसे पड़ी चिपको आंदोलन की नींव

भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार को चमोली की सुध आई और यहां पर सैनिकों के लिए सुगम मार्ग बनाने की योजना बनाई गई। इस योजना के तहत मार्ग में आने वाले पेड़ों की कटाई शुरू हो गई।

इससे वहां के स्थानीय लोगों में इसे लेकर विरोध पनपने लगा। उन्होंने हर गांव में महिला मंगल दलों की स्थापना की।

1972 में गौरा देवी को रैणी गांव की महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुना गया।

इस दौरान ही वे चंडी प्रसाद भट्ट, गोविंद सिंह रावत, वासवानंद नौटियाल और हयात सिंह के संपर्क में आईं। जनवरी 1974 में रैणी गांव के 2451 पेड़ों को कटाई के लिए चिन्हित किया गया।

23 मार्च को रैणी गांव में पेड़ों के काटे जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन किया गया, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया।

रैणी गांव: जहां कभी महिलाओं ने शुरू किया था 'चिपको आंदोलन', वहीं आई त्रासदी(फोटो: सोशल मीडिया)

21 महिलाओं संग पेड़ से चिपक गईं

जब उत्तराखंड के रैणी गांव के जंगल के लगभग ढाई हज़ार पेड़ों को काटने की नीलामी हुई, तो गौरा देवी के नेतृत्व मे रैणी गांव की महिला मंगल दल की 21 अन्य महिलाओं ने इस नीलामी का विरोध किया।

इसके बावजूद सरकार और ठेकेदार के निर्णय में बदलाव नहीं आया। जब ठेकेदार के आदमी पेड़ काटने पहुंचे, तो गौरा देवी और उनकी 21 साथियों ने उन लोगों को समझाने की कोशिश की।

जब उन्होंने पेड़ काटने की जिद की तो महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर उन्हें ललकारा कि पहले हमें काटो फिर इन पेड़ों को भी काट लेना। आखिरकार ठेकेदार को जाना पड़ा।

बाद में स्थानीय वन विभाग के अधिकारियों के सामने इन महिलाओं ने अपनी बात रखी। फलस्वरूप रैणी गांव का जंगल नहीं काटा गया। इस प्रकार यहीं से 'चिपको आंदोलन' की शुरुआत हुई।

जंगल को बताती थीं अपना मायका

एक इंटरव्यू में गौरा देवी ने कहा था कि भाइयों ये जंगल हमारा मायका (मां का घर) जैसा है। यहां से हमें फल-फूल, सब्जियां मिलती हैं। यदि यहां के पेड़-पौधे काटोगे तो निश्चित ही बाढ़ आएगी।

रैणी गांव: जहां कभी महिलाओं ने शुरू किया था 'चिपको आंदोलन', वहीं आई त्रासदी(फोटो: सोशल मीडिया)

नहीं गई स्कूल लेकिन रखती थी वेद-पुराणों की पूरी जानकारी

गौरा देवी अपने जीवन काल में कभी स्कूल नहीं जा सकी थीं, लेकिन इन्हें प्राचीन वेद, पुराण, रामायण, भगवतगीता, महाभारत तथा ऋषि-मुनियों की सारी जानकारी थी।

4 जुलाई 1991 को हुआ था गौरा देवी का निधन

चिपको वूमन के नाम से जाने वाली गौरा देवी का निधन 66 साल की उम्र में 4 जुलाई 1991 को हो गया।

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पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में सुंदरलाल बहुगुणा का बड़ा योगदान

प्रदूषण और उससे होने वाली तबाही के बारे में हम सभी बातें करते हैं। बातें करने वालों की तो भरमार है लेकिन प्रदूषण की जड़ तक पहुंचकर उसको नाश करने की हिम्मत जुटाने की बारी आती है तो बहुत से लोग पीछे हट जाते हैं। गिनती के लोग हैं जो पर्यावरण सुरक्षा को अपना जीवन समर्पित करते हैं।

उनमें से ही एक हिमालय के रक्षक सुंदरलाल बहुगुणा हैं। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि चिपको आंदोलन है। गांधी के पक्के अनुयायी बहुगुणा ने अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य तय कर लिया और वह पर्यावरण की सुरक्षा था।

उनका जन्म 9 जनवरी, 1927 को हुआ था। 18 साल की उम्र में वह पढ़ने के लिए लाहौर गए थे। उन्होंने मंदिरों में हरिजनों के जाने के अधिकार के लिए भी आंदोलन किया। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में सुंदरलाल बहुगुणा के कार्यों को इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा।

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