तीन तलाक: कठमुल्लों को दिगंबर करता फैसला, अब पूरी आजादी की तैयारी

Update:2017-08-25 12:09 IST
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योगेश मिश्र

लखनऊ: तीन तलाक पर सर्वोच्च अदालत का फैसला। आधी आबादी की आजादी की दिशा में बढ़ा एक मजबूत कदम। लोकतंत्र में विश्वास बढ़ाता फैसला। जीत कर हार गई शाहबानो को 31 साल बाद स्थाई जीत दिलाता फैसला। खुशी और गम का एहसास कराता फैसला। कठमुल्लों को दिगंबर करता फैसला। शीर्ष अदालत के एक फैसले से निकले इतने एहसास लड़ाई को आगे भी जारी रखने का दम दिलाते हैं।

लड़ाई तलाक और हलाला के खात्मे के साथ ही भारत में हिंदू महिलाओं की तरह ही मुस्लिम महिलाओं के भी जीने के हक की है। यह तभी संभव है जब देश गोवा की तरह सामान नागरिक संहिता की राह पकड़ ले। इस दिशा में देश चलता है तो सिर्फ दीन दयाल उपाध्याय ही नहीं, डॉ. राम मनोहर लोहिया, महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के कहे पर अमल भी होगा।

गोवा के सभी समुदायों में सामान सिविल कोड लागू है। गोवा भारत का ही हिस्सा है। सामान नागरिक संहिता जनसंघ के जमाने से ही भाजपा की मांग रही है। यह मुंहमांगी मुराद उसे देश की शीर्ष अदालत पूरी करने को दे रही हो तो भी यह यकीन करना चाहिए कि कदम पूरी आजादी की तरफ बढऩे तय ही हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट और लखनऊ की ट्रिब्यूनल पहले ही कह चुके हैं कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ क्रूरता है। संवैधानिक अधिकारों का हनन राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में दर्ज है कि सभी नागरिकों के लिए एक सामान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास होना चाहिए। इस बात पर अंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू दोनों में सहमति थी।

अंबेडकर तो यहां तक मानते थे कि सारे समुदायों में प्रचलित कानूनों को धर्म से अलग किया जाए। जरूरत पड़ती है तो इन कानूनों को सख्ती से लागू कराया जाये। पर आजादी के 39 साल बाद शाहबानो हक की लड़ाई जीत कर भी हार गईं, लेकिन काशीपुर की शायरा बानो, जयपुर की आफरीन रहमान, हावड़ा की इसरतजहां, सहारनपुर की आतिया सावरी और रामपुर की गुलशन परवीन की जंग ने मुस्लिम महिलाओं को दर्द और त्रासदी से मुक्ति का मार्ग दिखा दिया।

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सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 8 करोड़ 39 लाख से ज्यादा मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी में तीन तलाक से घुलने वाले जहर से निजात मिल गई है। जिस तीन तलाक की मार मुस्लिम महिलाएं तब सह रही थीं जब कि यह न तो कुरआन का हिस्सा है और न ही उनके धर्म का। हदीस में भी इस तीन तलाक की अनुमति नहीं है। पहले खलीफा ने तो यह भी कहा था कि एक साथ अगर तीन तलाक बोला जाये तो एक ही माना जायेगा। इस प्रथा की शुरुआत दूसरे खलीफा हजरत उमर के समय में हुई। खलीफा का आदेश कुरआन नहीं हो सकता है। कानून नहीं हो सकता है। पैगंबर मोहम्मद साहब ने तलाक को अल्लाह की नजर में सबसे नापसंद कानून बताया।

20 जून 1611 को जहांगीर ने भी तीन तलाक पर पाबंदी लगा दी थी। फिर भी 1400 साल से तीन तलाक की प्रथा चल रही थी। संविधान के अनुच्छेद 14,21 और 25 के खिलाफ 'तलाक ए 'जारी रहा। ऐसा महज इसलिए हो सका क्योंकि 80 फीसदी मुस्लिम महिलाओं का विवाह 21 साल से पहले हो जाता है। 13.5 फीसदी मुस्लिम लड़कियों का निकाह 14 साल से पहले और 14 से 19 साल के बीच की उम्र वाली 49 फीसदी लड़कियों से निकाह कुबूल करवा लिया जाता है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन का एक सर्वे यह पोल खोलने के साथ ही यह भी खुलासा करता है कि तलाकशुदा 95 फीसदी महिलाओं को गुजारा भत्ता नहीं मिलता है। पिछली जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 51.8 फीसदी महिलायें ही साक्षर हैं।

2007 के राष्ट्रीय सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक 20 फीसदी साक्षर मुस्लिम महिलाएं सिर्फ प्राइमरी तक का ज्ञान रखती हैं। 8.7 फीसदी अपर प्राइमरी का, 7 फीसदी सेकंडरी और हायर सेकंडरी तथा डेढ़ फीसदी स्नातक या उससे ऊपर की तालीम पाने वालों में शुमार हैं। 85 फीसदी मुस्लिम महिलाएं पति पर निर्भर हैं। सिर्फ 14.8 फीसदी ही घरों से बाहर निकलती हैं। तलाकशुदा 65 फीसदी महिलाओं को केवल बोलकर ही तलाक दे दिया गया। यह सब कुछ है अपनी अज्ञानता व पुरुषों पर निर्भरता के चलते।

"गोवा के सभी समुदायों में समान सिविल कोड लागू है। यानी विवाह, तलाक और उत्तराधिकार के मामलों के लिए समान संहिता है। गोवा भारत का ही हिस्सा है। समान नागरिक संहिता जनसंघ के जमाने से ही भाजपा की मांग रही है। अब कदम पूरी आजादी की तरफ बढऩे तय ही हैं।"

"तीन तलाक की प्रथा की शुरुआत दूसरे खलीफा हजरत उमर के समय में हुई। खलीफा का आदेश कुरआन नहीं हो सकता है। कानून नहीं हो सकता है। पैगम्बर मोहम्मद साहब ने तलाक को अल्लाह की नजर में सबसे नापसंद कानून बताया।"

"२० जून 1611 को जहांगीर ने भी तीन तलाक पर पाबंदी लगा दी थी। फिर भी 1400 साल से तीन तलाक की प्रथा चल रही थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 25 के खिलाफ देश में 'तलाक ए बिद्दत' जारी रहा।"

"भारतीय मुस्लिम महिलाओं के लिए एक साथ तीन तलाक शोषण का हथियार बन गया था। इसे धर्म के मुलम्मे में लपेट कर उनके मानवाधिकार का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा था।"

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22 देशों में प्रतिबंध

सायप्रस, जॉर्डन, अल्जीरिया, सूडान, ईरान, ब्रूनेई, मोरक्को, कतर, पकिस्तान, बांग्लादेश सरीखे २२ देशों में तीन तलाक प्रतिबंधित है। यही नहीं, शरीयत आधारित तलाक ही प्रतिबंधित है। पर भारतीय मुस्लिम महिलाओं के लिए एक साथ तीन तलाक शोषण का हथियार बन गया था। इसे धर्म के मुलम्मे में लपेट कर उनके मानवाधिकार का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा था। इसके खिलाफ भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन नाम के संगठन ने 50 हजार लोगों के हस्ताक्षर का ज्ञापन पीएम नरेंद्र मोदी को सौंपा था।

दस साल पहले अस्तित्व में आये इस संगठन के पास 15 राज्यों में 30 हजार महिलाएं हैं। इनके अपने सर्वेक्षण के मुताबिक 92 फीसदी महिलायें तीन तलाक से मुक्ति चाहती है। 91.7 फीसदी महिलायें बहुविवाह खत्म करने के पक्ष में हैं। उत्तराधिकार सम्बन्धी मामलों में भी समानता की मांग मुस्लिम महिलाओं का एजेंडा है। हलाला के खिलाफ इस शताब्दी में भारत की हर महिला है।

एक ऐसा फैसला जिसने अपनी जमात में तकरीबन अस्पृश्य रहे राजनीतिक दल को उस जमात की आधी आबादी के लिए प्रिय बना दिया हो, जिसने तकरीबन 9 करोड़ महिलाओं को राहत की सांस दी हो, बंधन से मुक्ति का एहसास कराया हो, जिससे मुस्लिम महिलाएं और सत्तारूढ़ भाजपा दोनों ताकतवर हुए हों उसके डग इस पग पे ठहर जाएंगे, यह सोचना लाजिमी नहीं होगा क्योंकि मुस्लिम महिलाओं की मांग भी जारी है। भाजपा की अंतिम उम्मीद का परवान चढऩा भी शेष है। दोनों की लड़ाई अधूरी है। पूरी तभी होगी जब नागरिक सामान संहिता के अंदर आ जाए।

क्या है गोवा सिविल कोड

गोवा सिविल कोड या गोवा फैमिली कोड ऐसी नागरिक संहिता है, जो गोवा के निवासियों पर लागू होती है। भारत में अन्यत्र धर्म आधारित नागरिक संहिता लागू है जो अलग-अलग धर्मों के लिये अलग-अलग है। लेकिन गोवा ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां एक समान नागरिक संहिता हर धर्म के गोवा वासी पर लागू होती है। गोवा सिविल कोड मूलत: 1867 के पुर्तगाली सिविल कोड पर आधारित है जिसे 1870 में गोवा में लागू किया गया था। 1961 में गोवा के भारत में विलय के उपरांत यह सिविल कोड बरकरार रखा गया। गोवा में मुस्लिमों की आबादी कुल जनसंख्या की 8.33 फीसदी है।

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भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध हिंदू विधि के अंतर्गत आते हैं, जबकि मुस्लिम और ईसाई के लिए अपने अलग कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है। समान नागरिक संहिता का अर्थ एक सेक्युलर कानून होता है जो सभी धर्म के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है। अलग-अलग धर्मों के लिये अलग-अलग सिविल कानून न होना ही ‘समान नागरिक संहिता’का मूल मंत्र है। विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में ऐसे कानून लागू हैं।

समान नागरिकता कानून के अंतर्गत मोटे तौर पर विवाह, तलाक, गोद लेना, वसीयत, संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन का अधिकार निहित होता है।

भारत का संविधान सभी नागरिकों को समान नागरिकता कानून सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करता है। लेकिन इस तरह का कानून अभी तक लागू नहीं किया जा सका है। १९४० में कांग्रेस द्वारा बनायी गयी नेशनल प्लानिंग कमेटी ने समान नागरिक संहिता की पेशकश की थी। 1947 में बाबा आहेब अंबेडकर, मीनू मसानी, हन्सा मेहता और अमृत कौर ने समान नागरिक संहिता को बतौर मौलिक अधिकार संविधान में शामिल करने की वकालत की थी। वैसे, यह विवाद ब्रिटिशकाल से ही चला आ रहा है। विभिन्न महिला आंदोलनों के कारण मुसलमानों के निजी कानूनों में थोड़ा बदलाव हुआ। लेकिन कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं किया जा सका। 1937 से मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई रिफार्म नहीं हुए हैं। समान नागरिक संहिता की बात आजादी के बाद हुई थी, लेकिन उसका विरोध हुआ जिस वजह से उसे 44वें अनुच्छेद में रखा गया।

क्या है फर्क

-शादी के पहले जो संपत्ति थी, शादी के बाद पति-पत्नी के पास उसका संयुक्त स्वामित्व होगा। तलाक की दशा में यह संपत्ति आधी-आधी बांट दी जाएगी।

-अभिभावक अपनी संपत्ति से अपने बच्चों को पूरी तरह बेदखल नहीं कर सकते। कम से कम आधा हिस्सा बच्चों के नाम अनिवार्य रूप से जायेगा और बराबर बांटा जाएगा।

-जिन मुस्लिमों की शादी गोवा में पंजीकृत है, वे बहुविवाह नहीं कर सकते।

-गोवा में मौखिक तलाक का कोई प्रवाधान नहीं है।

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