Kumbh 2025: नागा और गृहस्थ दोनों ही इस अखाड़े के होते हैं सदस्य, जानिए अंतरराष्ट्रीय जगतगुरु दसनाम गुसाईं एकता अखाड़ा से जुड़े महत्व के बारे में
Kumbh 2025: दशनाम गोस्वामी समाज के लोग शिव के उपासक होते हैं। दशनाम गोस्वामी समाज के हर परिवार में किसी ना किसी पूर्वज ने जीवित समाधि ली हुई है। आज इस समाधि की पूजा शिव मंदिर के रूप में होती है।
Kumbh 2025: कुंभ स्नान के दौरान अंतरराष्ट्रीय जगतगुरु दसनाम गुसाईं गोस्वामी एकता अखाड़ा की पेशवाई हाथी, घोड़ों और गाजे बाजे के बीच बड़ी ही मनोहारिक और दिव्यता का एक केंद्र बनती है। जहां इस अखाड़े से जुड़े साधु संतों के दर्शन पाने के लिए श्रद्धालुओं का विशाल हुजूम एकत्रित रहता है। इस दसनामी संप्रदाय की स्थापना भी अन्य शैव सम्प्रदायों के समान ही जगतगुरु शंकराचार्य जी ने ही की थी। दशनामी संप्रदाय से जुड़ा दसनामी गोस्वामी समाज, शैव तपस्वी संन्यासियों का समाज है। इसके इष्टदेव कपिल मुनि माने जाते हैं तथा इसके साथ अटल जैसे एकाध अन्य अखाड़ों का भी संबंध जोड़ा जाता है। इन अखाड़ों में शस्त्राभ्यास कराने की व्यवस्था रही है। इनमें प्रशिक्षित होकर नागाओं ने अनेक अवसरों पर काम किया है। इस संप्रदाय में संन्यासियों के अलावा ग्रहस्त शाखा भी है, जिसे गोस्वामी समाज के नाम से जाना जाता है। दशनामी संप्रदाय के संन्यासी एकदंडी परंपरा से जुड़े हैं। इस संप्रदाय के संन्यासी, दस नामों में से एक नाम अपनाते हैं। आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म को फिर से स्थापित करने के लिए देश के चारों कोनों में बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवधर्न पीठ की स्थापना की थी।
अखाड़ों की परंपरा को दशनामी नागा संन्यासियों ने और अधिक समृद्ध किया है। दशनामी नागा योद्धा संन्यासी होते हैं। परमहंस संन्यासियों ने धर्म के रास्ते में आने वाली रुकावटों के कारण इनकी जरूरत महसूस की। नागा संन्यासियों पर अध्ययन के दौरान ये बात निकलकर सामने आई है कि भारत में नागा संन्यासियों के कुंभ स्नान की परंपरा अति प्राचीन है। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि भगवान शिव इन तपस्वियों के आराध्य देव हैं।
दशनामी संप्रदाय के संन्यासी, दस नामों में से एक नाम अपनाते हैं, जैसे कि गिरि, पुरी, भारती, वन, आरण्य, सागर, आश्रम, सरस्वती, तीर्थ, और पर्वत।
दशनाम गोस्वामी समाज के लोग शिव के उपासक होते हैं। दशनाम गोस्वामी समाज के हर परिवार में किसी ना किसी पूर्वज ने जीवित समाधि ली हुई है।आज इस समाधि की पूजा शिव मंदिर के रूप में होती है।
दसनाम गुसाईं गोस्वामी समाज किस संन्यास की श्रेणी में आता है?
दसनाम गुसाईं गोस्वामी समाज भारत के हिंदू संत परंपरा का हिस्सा है। यह विशेष रूप से वेदांत और भक्ति परंपराओं से जुड़ा हुआ है। यह समाज मुख्य रूप से उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और कुछ अन्य राज्यों में पाया जाता है।
दसनाम गुसाईं गोस्वामी समाज दसनाम संन्यास परंपरा के अंतर्गत आता है, जिसमें संन्यास की विभिन्न श्रेणियाँ होती हैं। यह परंपरा विशेष रूप से वेदांत और भक्ति पर केंद्रित है, और इसका उद्देश्य आत्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति है।
दसनाम संन्यास परंपरा
दसनाम गुसाईं गोस्वामी समाज दसनाम संन्यास परंपरा का हिस्सा है, जिसे विशेष रूप से शंकराचार्य द्वारा स्थापित किया गया था।
संन्यास की श्रेणियाँ
दसनाम संन्यासियों को दस प्रमुख शाखाओं (श्रेणियों) में बाँटा गया है, जैसे कि गिरी, आरण्यक, परमहंस, सरस्वती, इत्यादि। ये श्रेणियाँ संन्यासियों की विभिन्न भौगोलिक और सांस्कृतिक विशिष्टताओं को दर्शाती हैं।
गुसाईं गोस्वामी
गुसाईं और गोस्वामी विशेष रूप से वैष्णव भक्ति परंपरा से जुड़े हुए हैं। उन्हें भक्ति और साधना के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने के लिए जाना जाता है।
गोस्वामी शब्द आमतौर पर वैष्णव संतों के लिए प्रयुक्त होता है। इनका ध्यान मुख्य रूप से कृष्ण भक्ति पर होता है।
वैदिक और भक्तिपंथ
दसनाम गुसाईं गोस्वामी समाज वैदिक और भक्तिपंथ दोनों को मान्यता देता है और धार्मिक साधना, साधुओं के आचार-व्यवहार, और मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है।
बौद्ध मठों की रक्षा के लिए की गई थी इसकी स्थापना
आदि शंकराचार्य ने जब धर्म की पुनर्स्थापना की तो उन्होंने नागा एक्ससंन्यासी नाम दिया। पहले इन संन्यासियों को नागा के रूप में पहचान नहीं मिली थी।दशनामी अखाड़ों में से एक पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े के नागा संन्यासी महेशानंद गिरि के अनुसार बौद्ध मठों में कदाचार एवं धर्म पर अत्याचार को रोकने के लिए आदि शंकराचार्य ने साधुओं के जत्थों को संगठित किया और मठों में स्थापित कराया। इस अखाड़े के साधुओं के जत्थे में पीर और तदवीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुगल काल से शुरू हुआ।
ये होते हैं नियम
दशनामी अखाड़ों में नागा संन्यासियों में से अधिकांश आचार्य शंकर द्वारा संगठित सबसे पुराने और सबसे विशाल व प्रभावशाली संघ दशनामी संप्रदाय के अंतर्गत आते हैं। हर दशनामी संन्यासी यह संकल्प करता है कि वह दिन में 1 बार से अधिक भोजन नहीं करेगा। 7 घरों से अधिक से मधुकरी नहीं मांगेगा। भूमि के अलावा किसी अन्य स्थान पर शयन नहीं करेगा। न वह किसी के सामने नतमस्तक होगा और न ही किसी की प्रशंसा करेगा या किसी के खिलाफ गलत शब्दों का प्रयोग करेगा। वह अपने से श्रेष्ठ श्रेणी के संन्यासी को छोड़कर किसी अन्य का अभिवादन भी नहीं करेगा। गेरुआ वस्त्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्त्र से अपने को ढकेगा नहीं।दशनामियों में कुछ गृहस्थ भी होते हैं जिन्हें ‘गोसाई’ कहते हैं। जिन्हें नागा साधुओं से अलग तरह से जीवन यापन की छूट मिलती है। इस सम्प्रदाय की खूबी है कि किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी का ही अभिनंदन करना आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जो दशनामी साधु किसी वैसे मठधारी का चेला बनकर उसका उत्तराधिकारी हो जाता है उसे प्रबंधादि भी करने पड़ते हैं।
दशनामी संन्यासियों का उद्देश्य
दसनाम संन्यासियों का मुख्य उद्देश्य वेदांत और धार्मिक साधना के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करना होता है।धर्मप्रचार के अतिरिक्त धर्मरक्षा ही इनकी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। इस दूसरे उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने अपना संगठन विभिन्न अखाड़ों के साथ भी जोड़ रखा है। जिनमें ‘जूना अखाड़ा’ (काशी) के इष्टदेव कालभैरव अथवा कभी-कभी दत्तात्रेय भी समझे जाते हैं और ‘आवाहन’ जैसे एकाध अन्य अखाड़े भी उसी से संबंधित हैं। इसी प्रकार ‘निरंजनी अखाड़ा’ ( प्रयाग) के इष्टदेव कार्तिकेय प्रसिद्ध हैं और इसकी भी ‘आनंद’ जैसी कई शाखाएँ पाई जाती हैं। ‘महानिर्वाणी अखाड़ा’ ( झारखंड) की विशेष प्रसिद्धि इस कारण है कि इसने ज्ञानवापी युद्ध औरंगजेब के विरुद्ध ठान दिया था। इसके इष्टदेव कपिल मुनि माने जाते हैं तथा इसके साथ अटल जैसे एकाध अन्य अखाड़ों का भी इनके साथ संबंध जोड़ा जाता है। इन अखाड़ों में शस्त्राभ्यास कराने की व्यवस्था रही है। इनमें प्रशिक्षित होकर नागाओं ने अनेक अवसरों पर काम किया है। इनके प्रमुख महंत को ‘मंडलेश्वर’ कहा जाता है, जिसके नेतृत्व में ये विशिष्ट धार्मिक पर्वो के समय एक साथ स्नान भी करते हैं। इस बात के लिए नियम निर्दिष्ट है कि इनकी शोभायात्रा का क्रम क्या और किस रूप में रहा करे।
इन दशनामियों के जैसे अन्य नागाओं के कुछ उदाहरण दादू पंथ आदि के धार्मिक संगठनों में भी देखने को मिलते हैं। जिनके लोगों ने, जयपुर जैसी कतिपय रियासतों का संरक्षण पाकर, उन्हें समय समय शत्रुओं के आक्रमण के समय डटकर सहायता पहुँचाई हैं।