इलाहाबाद: हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि मानवाधिकार आयोग की संस्तुति को सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती है। आयोग की सिफारिश को यदि सिर्फ सलाह माना जाएगा तो इससे आयोग के गठन का उद्देश्य ही असफल हो जाएगा।
कोर्ट ने कहा कि आयोग सिर्फ सलाह देने वाली संस्था ही नहीं है जिसके पास कोई अधिकार न हो, बल्कि आयोग के पास हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जाने का विकल्प भी मौजूद है। सरकार के पास यह विकल्प नहीं है कि वह आयोग की सिफारिश को सिर्फ सलाह मानकर नजरअंदाज कर दे।
यूपी सरकार की याचिका को खारिज करते हुए यह आदेश मुख्य न्यायामूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा की खंडपीठ ने दिया है।
प्रदेश सरकार ने मानवाधिकार आयोग के 28 अप्रैल 2015 के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें आयोग ने जेल में मृत विचाराधीन बंदी के परिजनों को बीस लाख रुपए मुआवजा देने तथा भुगतान की सूचना आयोग को उपलब्ध कराने के लिए कहा था।
क्या कहा था राज्य सरकार ने ?
सरकार का कहना था कि आयोग को सिर्फ संस्तुति करने का अधिकार है, इसे मानना या न मानना सरकार का काम है। सरकार आयोग की सिफारिश मानने को बाध्य नहीं है। सरकार भुगतान की जानकारी आयोग को देने के लिए भी बाध्य नहीं है, न ही आयोग सरकार को इसकी सूचना देने के निर्देश दे सकता है।
हाईकोर्ट ने ख़ारिज की सरकार की दलील
हाईकोर्ट ने सरकार की इस दलील को स्वीकार नहीं किया। कोर्ट का कहना है कि सरकार आयोग के निर्देशों के खिलाफ अदालत जा सकती है। न्यायिक समीक्षा का विकल्प उसके सामने खुला है, मगर आयोग के निर्देशों को सिर्फ सलाह या उसकी राय मानना अनुचित है।
क्या था मामला?
प्रकरण के अनुसार मुजफ्फरनगर जिला कारागार में 21 सितंबर 2014 को विचाराधीन बंदी ओमेन्द्र की मृत्यु हो गयी। आयोग ने इसकी जांच की तो मामला मानवाधिकार हनन का सामने आया। बंदी लंबे समय से अस्थमा की बीमारी से पीड़ित था। जेल में उसका इलाज नहीं कराया गया। तबियत बिगड़ने पर जेल अधिकारियों ने बंदी को 21 मई 2012 को जिला अस्पताल रेफर कर दिया।
आयोग ने अपनी जांच में पाया कि बंदी का कोई इलाज नहीं कराया गया। मानवाधिकार हनन का स्पष्ट मामला पाते हुए आयोग ने मृतक के परिजनों को बीस लाख रुपए मुआवजा देने का निर्देश दिया था।