Survey में खुलासा: UP के दो तिहाई गांव अब भी छूआछूत के शिकार

Update:2018-01-12 18:08 IST
Survey में खुलासा: UP के दो तिहाई गांव अब भी छूआछूत के शिकार

लखनऊ: दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी और भीम राव अम्बेडकर के अथक प्रयासों और समाज से छुआछूत मिटाने के लिए लंबे वक्त तक जन आंदोलन होने के बावजूद 21वीं सदी के भारत में ये सामाजिक बीमारी अब भी घर किए हुए है। एक ताजा सर्वे में सामने आया है कि उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों की दो तिहाई आबादी अब भी इस सामाजिक पीड़ा को झेलने के लिए मजबूर है।

छुआछूत को लंबे वक्त पहले ही अपराध की श्रेणी में रखा गया है। बावजूद इसके सर्वे में सामने आया कि यूपी के ग्रामीण इलाके अभी भी इससे जकड़े हुए हैं। दलित और गैर दलित हिन्दुओं में अंतरजातीय विवाह का विरोध होता है। अक्सर सम्मान के लिए हत्या जिसे ऑनर किलिंग कहा जाता है आम है। महिलाएं इस कुप्रथा को ढोने के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। ग्रामीण यूपी की 64 प्रतिशत आबादी छुआछूत की जद में हैं। शहरी इलाकों में भी इस कुप्रथा का प्रचलन कम नहीं है। सर्वे के अनुसार, यूपी में 48 प्रतिशत लोग छुआछूत को मानने वाले हैं।

टेक्सास यूनिवर्सिटी, जेएनयू ने कराया था सर्वे

सोशल एटीट्यूड रिसर्च इंडिया (SARI) नाम से साल 2016 में फोन के जरिए सर्वे किया गया था। इसमें दिल्ली, मुंबई, राजस्थान, यूपी के इलाके शामिल थे। इसका मुख्य मकसद दलितों और महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के आंकड़े जुटाना था। सर्वे में कुल 8,065 पुरुष-महिलाओं ने भाग लिया था। इससे संबंधित एक शोधपत्र इस साल 6 जनवरी को प्रकाशित हुआ। टेक्सास यूनिवर्सिटी, जेएनयू और रिसर्च इंस्टीट्यूट कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक ने मिलकर इस सर्वे कराया था।

40% ग्रामीण अंतरजातीय विवाह का विरोध करते हैं

दलित और गैर-दलित हिन्दुओं में अतंरजातीय विवाह के मामलों में सामने आया कि राज्यों की बड़ी आबादी इसके खिलाफ है। सर्वे के मुताबिक यूपी की 40 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ऐसी है जो अंतरजातीय विवाह का विरोध करती है। सर्वे में शामिल लोगों ने ऐसे विवाह को रोकने के लिए एक कानून की मांग भी की है। महिलाओं के सामाजिक स्तर को लेकर किए गए सवाल पर सामने आया कि आधे से ज्यादा लोग महिलाओं के घर से बाहर काम करने पर सहमत नहीं थे, जाहिर है कि महिलाओं का बाहर काम करना अब भी सामाजिक रूप से अच्छा नहीं माना जाता।

गांधी को कहा था- क्यों ना दें 'हरिजन' जैसा सुंदर नाम

छूआछूत के मामले में सन 1932 के अंत में गुजरात के एक दलित ने ही महात्मा गांधी को एक गुजराती भजन का हवाला देकर लिखा था कि दलितों को 'हरिजन' जैसा सुंदर नाम क्यों न दिया जाए। उस भजन में हरिजन ऐसे व्यक्ति को कहा गया है, जिसका सहायक संसार में, सिवाय एक हरि के, कोई दूसरा नहीं है। गांधीजी ने यह नाम पसंद कर लिया और यह प्रचलित हो गया।

वैदिक काल में कोई उल्लेख नहीं

वैदिक काल में अस्पृश्यता का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। परंतु वर्ण व्यवस्था के विकृत हो जाने और जाति-पाति की भेद भावना बढ़ जाने के कारण अस्पृश्यता को जन्म मिला। इसके ऐतिहासिक, राजनीतिक आदि और भी कई कारण बतलाए जाते हैं। किंतु साथ ही साथ, इसे एक सामाजिक बुराई भी बतलाया गया। 'वज्रसूचिक' उपनिषद में तथा महाभारत के कुछ स्थलों में जातिभेद पर आधारित ऊंच-नीचपन की निंदा की गई है। कई ऋषि मुनियों ने, बुद्ध एवं महावीर ने कितने ही साधु-संतों ने तथा राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती प्रभृति समाज सुधारकों ने इस सामाजिक बुराई की ओर हिंदू समाज का ध्यान खींचा।

समय-समय पर अस्पृश्यता मिटाने के हुए प्रयास

समय-समय पर इसे मिटाने के जहां-तहां छिटपुट प्रयत्न भी किए गए। किंतु सबसे जोरदार प्रयत्न तो गांधीजी ने किया। उन्होंने इसे हिंदू धर्म के माथे पर लगा हुआ कलंक माना। कहा, कि 'यदि अस्पृश्यता रहेगी, तो हिंदू धर्म का- उनकी दृष्टि में 'मानव धर्म' का नाश निश्चित है।' देश के आजाद होने के बाद संविधान परिषद् ने जो संविधान बनाया, अस्पृश्यता को 'निषिद्ध' ठहरा दिया। कुछ समय के बाद संसद ने छूआछूत को अपराध भी बना दिया। भारत सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए विशेष आयुक्त नियुक्त करके हरिजनों की शिक्षा तथा विविध कल्याण कार्यों की दिशा में कई उल्लेखनीय प्रयत्न किए।

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