20 सप्ताह बाद भी मिले महिलाओं को गर्भपात की अनुमति, कानून में लाया जाए बदलाव
अनूप भटनागर
देश में असुरक्षित तरीके से गर्भपात की वजह से गर्भवती महिला और उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण की असमय मृत्यु की घटनाओं पर अंकुश लगाने और अपरिहार्य परिस्थितियों में सुरक्षित गर्भपात सुनिश्चित करने के इरादे से देश में करीब 46 साल पहले 1971 में गर्भ का चिकित्सीय समापन कानून बनाया गया था। इस कानून में प्रावधान है कि अधिकतम 20 सप्ताह तक के भ्रूण का ही विशेष परिस्थितियों मे गर्भपात कराया जा जा सकता है।
चूंकि इस कानून में सिर्फ 20 सप्ताह तक के ही गर्भ के गर्भपात की अनुमति है, लेकिन कई बार गर्भावस्था के दौरान अविकसित अथवा गंभीर विकृति से भ्रूण के ग्रस्त होने जैसी परिस्थितियां उत्पन्न होने की स्थिति में इससे अधिक सवधि के गर्भ का समापन कराने के अनुरोध के साथ मामले उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायलाय में पहुंचते हैं।
कानूनी प्रावधान के तहत 20 सप्ताह से अधिक अवधि के भ्रूण का गर्भपात कराना वर्जित है, इसलिए न्यायालय को मानवीय दृष्टि से विचित्र स्थिति से रूबरू होना पड़ रहा है और उसे इससे निबटने के लिये बार-बार चिकित्सा बोर्ड गठित करके उसकी राय के आधार पर ही निर्णय लेने पड़ते हैं।
स्थिति की गंभीरता को देखते हुये अब उच्चतम न्यायालय भी महसूस करने लगा है कि सरकार और संसद को गर्भ के चिकित्सीय समापन कानून में निर्धारित 20 सप्ताह की अवधि में बदलाव करने पर नये सिरे से विचार करना चाहिए ताकि किसी भी महिला के गर्भ में असाध्य बीमारी से ग्रस्त भू्रण का 20 सप्ताह बाद भी गर्भपात कराने की उसे अनुमति दी जा सके। चूंकि इस तरह की परिस्थितियों में गर्भ में पल रहे भ्रूण की वजह से मां और बच्चे दोनों के जीवन को खतरा बना रहता है और भावी मां निरंतर एक अज्ञात भय से जूझ रही होती है।
आगे की स्लाइड में जानिए इस कानून और मुद्दे से जुड़े और भी अहम पहलू
देश की शीर्ष अदालत ने हालांकि पिछले सप्ताह ही कानून के इस प्रावधान में संशोधन पर विचार का सुझाव दिया है, लेकिन इसमें संशोधन का प्रस्ताव पहले से ही विचाराधीन है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने इसी साल मार्च में लोकसभा को सूचित किया था कि बलात्कार पीड़ित, नाबालिग, तलाकशुदा, विधवा और एकल महिला सहित कुछ श्रेणियों की महिलाओं के मामले में गर्भपात कराने की अवधि बढ़ाने के लिये इस कानून में संशोधन का प्रस्ताव है। इस संबंध में राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी सिफारिश की है। कानून में गर्भपात के लिये गर्भ की अवधि 20 सप्ताह को बढ़ाकर 24 सप्ताह तक करने का प्रस्ताव मंत्रिमंडल के पास विचाराधीन है।
महिला आयोग ने 2013 में इस प्रावधान की समीक्षा करके इसमें अधिकतम 24 सप्ताह के गर्भ के समापन की अनुमति देने का प्रावधान करने की सिफारिश की थी। इस सिफारिश के आधार पर सरकार ने अक्टूबर 2014 में गर्भ के चिकित्सीय समापन कानून में संशोधन के लिये एक मसौदा भी तैयार किया था लेकिन ऐसा लगता है कि उस समय यह बात आगे नहीं बढ़ सकी थी।
हालांकि मौजूदा कानूनी प्रावधानों के बावजूद मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के मद्देनजर कई मामलों में न्यायालय ने 20 सप्ताह की अवधि के बाद भी गर्भपात की अनुमति दी है। लेकिन हर बार ऐसा संभव नहीं होता है। कई बार तो स्थिति यह होती है कि बलात्कार की शिकार महिला को अपने इस अनचाहे गर्भ को इस कानूनी प्रावधान की वजह से भी गिराने की अनुमति नहीं मिलती है और अंतत: उसे यौन शोषण अथवा गंभीर अनुवांशिक बीमारी या विकृति से ग्रस्त बच्चे को अनिच्छा से ही जन्म देना पड़ता है।
पिछले दिनों बिहार में मानसिक रूप से विक्षिप्त महिला के गर्भवती होने और उसकी स्थिति की गंभीरता को देखते हुये उसका गर्भपात कराने की अनुमति के लिये मामला शीर्ष अदालत तक पहुंचा था। इस मामले में बलात्कार की शिकार 35 साल की यह महिला एचआईवी से ग्रस्त है और गर्भ के 17वें सप्ताह में उसने सरकार से गर्भपात कराने की अनुमति मांगी थी। यह मामला पटना उच्च न्यायालय से होता हुआ जब उच्चतम न्यायालय पहुंचा तो गर्भ में भ्रूण 24 सप्ताह से भी अधिक अवधि का हो चुका था।
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न्यायालय ने स्थिति की गंभीरता को देखते अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के चिकित्सा बोर्ड गठित किया और उसी की राय के आधार पर न सिर्फ उसे 26 सप्ताह के गर्भ का समापन करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया बल्कि बिहार सरकार को इस पीड़िता को तीन लाख रुपए की आर्थिक मदद देने का भी आदेश दिया। मेडिकल बोर्ड की राय थी कि इस अवस्था में गर्भपात की अनुमति देने से महिला और गर्भ में पल रहे बच्चे की जिंदगी को खतरा हो सकता है।
अभी पिछले सप्ताह ही कोलकाता की एक युवती को जब 21वें सप्ताह में पता चला कि उसके गर्भ में पल रहा भ्रूण गंभीर विकृति से ग्रस्त है तो उसने गर्भपात की अनुमति के लिए पहले उच्च न्यायालय और अब उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। इस महिला के मामले में तो एक चिकित्सक की राय है कि गर्भ में पल रहा बच्चा शायद पहली शल्य क्रिया भी बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। इस मामले में भी न्यायालय ने मेडिकल बोर्ड गठित किया है और उसकी रिपोर्ट की प्रतीक्षा है।
लेकिन सवाल यही है कि आखिर 20 सप्ताह बाद यदि भावी मां का यह पता चलता है कि उसके गर्भ में पल रहे बच्चे में कोई अनुवांशिकी रूग्णता या कोई अन्य विकृति है और वह ऐसे बच्चे की जिंदगी बर्बाद करने की बजाये गर्भपता कराना चाहती है तो आखिर उसके और न्यायालय के पास क्या विकल्प है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि गर्भ में पल रहे बच्चे के किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होने अथवा किसी अन्य विकृति के कारण उसकी या गर्भवती महिला की जान को उत्पन्न जोखिम के मद्देनजर इस कानून में 2014 से ही प्रस्तावित संशोधन को मंत्रिमंडल से मंजूरी दिलाने के बारे में न्यायालय के सुझाव पर सरकार पूरी गंभीरता से विचार करेगी और संसद के मानसून सत्र में ही गर्भ का चिकित्सीय समापन कानून में अपेक्षित संशोधन पारित कराने का प्रयास करेगी ताकि बार-बार न्यायालय को इस तरह की समस्या से रूबरू नहीं होना पड़े।