Udaipur Ki Rajkumari: उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा, जिसके लिये तनी थीं तलवारें, जिसने अपनी ले ली था जान

Udaipur Queen Krishna Kumari History: मेवाड़ की गौरवमयी राजकुमारी कृष्णा कुमारी का, जिसकी वीरता और बलिदान आज भी राजस्थान के जनमानस में अमर है।;

Update:2025-04-11 18:54 IST

Udaipur Queen Krishna Kumari History 

Udaipur Queen Krishna Kumari History: यह उस दौर की गाथा है जब हिन्दुस्तान के इतिहास में एक नया अध्याय आकार ले रहा था। एक ओर मुगल साम्राज्य की शक्तियाँ पतन की ओर अग्रसर थीं, तो दूसरी ओर देश के विभिन्न राजे-रजवाड़े आपसी वर्चस्व की होड़ में उलझे हुए थे। इसी संघर्ष और अस्थिरता के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी धीरे-धीरे अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को अंजाम देने में जुटी थी। ऐसे ही समय में एक नाज़ुक लेकिन साहसी राजकुमारी का प्रसंग सामने आता है — मेवाड़ की गौरवमयी राजकुमारी कृष्णा कुमारी का, जिसकी वीरता और बलिदान आज भी राजस्थान के जनमानस में अमर है।

राजकुमारी कृष्ण का जन्म

राजकुमारी कृष्णा कुमारी (10 मार्च, 1794 – 21 जुलाई, 1810) उदयपुर रियासत के महाराणा भीम सिंह की सुपुत्री थीं। मेवाड़, जो सदियों से वीरता और आत्मसम्मान की मिसाल रहा है, उसी की कोख से जन्मी कृष्णा ने अपने पिता की प्रतिष्ठा और मातृभूमि की गरिमा की रक्षा के लिए ऐसा बलिदान दिया, जो इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। विष का प्याला पीकर स्वयं को न्योछावर कर देना कोई साधारण निर्णय नहीं था, परंतु राजकुमारी कृष्णा ने इसे भी मुस्कुराते हुए स्वीकार किया।


राजकुमारी कृष्णा न केवल अत्यंत सुंदर थीं, बल्कि उनके शिष्ट आचरण, मधुर वाणी और राजसी गरिमा ने उन्हें राजस्थान का “गौरव-पुष्प” बना दिया था। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी। उनकी यही दुर्लभ सुंदरता और कुलीनता कई राजघरानों की लालसा का कारण बन गई, और अंततः एक बड़े राजनीतिक संकट की जड़ भी।

विवाह सिर्फ पाँच वर्ष की उम्र मे

सन 1799 में, जब कृष्णा मात्र पाँच वर्ष की थीं, तब उनके पिता ने उनका विवाह मारवाड़ के जोधपुर नरेश राव भीम सिंह से तय कर दिया। परंतु दुर्भाग्यवश, विवाह से चार वर्ष बाद ही राव भीम सिंह का निधन हो गया।


इसके बाद कृष्णा के विवाह को लेकर राजपूताना के कई शक्तिशाली शासकों में प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गई। जोधपुर, जयपुर और उदयपुर जैसे बड़े राज्यों के बीच इस राजकुमारी के विवाह को लेकर गहरी राजनीतिक खींचतान शुरू हो गई।

राजकुमारी से विवाह के लिए युद्ध

राजकुमारी का प्रस्ताव प्राप्त करने के लिए जोधपुर और जयपुर के शासकों के बीच ऐसा टकराव हुआ कि उसने युद्ध का रूप ले लिया।


इस विवाद में ग्वालियर के दौलतराव सिंधिया, इंदौर के यशवंतराव होलकर और टोंक के पठान नवाब अमीर खान पिंडारी जैसे दिग्गज भी कूद पड़े। पूरा राजस्थानी भूभाग जैसे इस एक विवाह को लेकर धधक उठा था।

अंग्रेजों का मौके पर चौका

यह घटनाक्रम अंग्रेजों की भी नज़र में था, जो भारत में अपने शासन की नींव मज़बूत करने की फिराक में थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के अकाउंटेंट जनरल हेनरी जॉर्ज टकर ने इस मुद्दे को लेकर कंपनी के चेयरमैन सर जॉर्ज ए. रॉबिन्सन को जो पत्र लिखा, उससे स्पष्ट होता है कि राजकुमारी कृष्णा का मामला अंग्रेजों की निगाह में केवल एक व्यक्तिगत या पारिवारिक विषय नहीं, बल्कि एक रणनीतिक अवसर था।और यही हुआ भी। राजस्थान के शक्तिशाली रजवाड़ों के बीच बढ़ते टकराव और अंतहीन संघर्षों से परेशान होकर मेवाड़ के शासक अंग्रेज़ों की शरण में चले गए। इसके बाद धीरे-धीरे बाकी रजवाड़ों ने भी ब्रिटिश आधिपत्य स्वीकार कर लिया।

इसके बाद राजा भीम सिंह ने अपनी पुत्री की सगाई जयपुर के राजा जगत सिंह से तय कर दी। यह निर्णय जोधपुर के नये शासक राजा मान सिंह को अत्यंत नागवार गुज़रा। उसका दावा था कि चूँकि कृष्णा की पूर्व सगाई जोधपुर से हो चुकी थी, इसलिए वह "जोधपुर की मांग" थी और उसकी शादी किसी और से होना अस्वीकार्य था।

राजपूत राजनीति में विवाह, संघर्ष और सत्ता की साजिशें

किन्तु महाराजा भीम सिंह को यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं था। तभी जगत सिंह ने उदयपुर की सहायता के लिए अपनी सेना भेज दी, जिससे भीम सिंह का आत्मविश्वास और साहस और अधिक बढ़ गया। परिणामस्वरूप, उन्होंने सिंधिया का प्रस्ताव दृढ़ता से ठुकरा दिया।

इस अस्वीकार से कुपित होकर सिंधिया ने उदयपुर पर हमला कर दिया और भीम सिंह को पराजित कर संधि के लिए विवश कर दिया। सिंधिया ने तो यहां तक प्रस्ताव रख दिया कि वह स्वयं राजकुमारी कृष्णा से विवाह करना चाहता है। यह प्रस्ताव राजपूत सरदारों को गवारा नहीं था और सिंधिया की पत्नी बैजाबाई ने भी इस विचार का कड़ा विरोध किया।


सिंधिया के हटते ही होलकर ने मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए सुझाव दिया कि राजकुमारी कृष्णा का विवाह ना तो मान सिंह से हो और ना ही जगत सिंह से, बल्कि किसी तीसरे व्यक्ति से किया जाए। लेकिन जगत सिंह ने इस प्रस्ताव को सिरे से नकारते हुए कृष्णा से विवाह करने की ज़िद पकड़े रखी। उसने होलकर से समझौता कर लिया कि वह इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा और साथ ही यह वादा भी किया कि यदि सिंधिया जयपुर पर आक्रमण करता है तो वह होलकर को साथ देगा।जगत सिंह ने सिंधिया को भी एक बड़ी रकम देने का वचन देकर उसे अपने पक्ष में कर लिया। साथ ही उसने बीकानेर के राजा सूरत सिंह और टोंक के पिंडारी सरदार अमीर खान को भी अपने साथ कर लिया।

अमीर खान की आक्रामक मंशा और राजकुमारी कृष्णा की हृदयविदारक बलि

अमीर खान, जो न केवल जांबाज़ सैनिकों का नायक था, बल्कि अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक निर्दयी योद्धा भी था, अपनी प्रबल सेना के साथ जब मान सिंह के पक्ष में खड़ा हुआ, तो सबसे पहले उसने मान सिंह की जयपुर की गद्दी पर दावेदारी को सुनिश्चित कर दिया। इसके पश्चात, उसने उदयपुर और जयपुर दोनों से भारी फिरौती की माँग रखी। जब उदयपुर ने यह मांग मानने से इनकार कर दिया, तो अमीर खान ने वहां आक्रमण कर दिया।

उदयपुर उस समय आंतरिक राजनीतिक खींचतान से जूझ रहा था, जिसके चलते उसकी सेना अमीर खान के आगे टिक नहीं सकी। इस मौके का फायदा उठाकर अमीर खान ने उदयपुर को घेर लिया और गांवों-नगरों में भयंकर विध्वंस मचाना शुरू कर दिया।


पठान अमीर खान और जोधपुर के राजा मान सिंह के बीच यह तय हुआ कि किसी भी कीमत पर मान सिंह की शादी राजकुमारी कृष्णा से कराई जाएगी। परंतु अमीर खान जानता था कि सिसोदिया वंश के स्वाभिमानी राजपूत, अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाएंगे। ऐसे में, उसने एक घिनौनी साजिश रच डाली—इस विवाद की जड़, राजकुमारी कृष्णा को ही खत्म कर दिया जाए।

इस कुटिल योजना को अंजाम देने के लिए अमीर खान ने राजा भीम सिंह के दरबार में एक महत्त्वाकांक्षी और स्वार्थी व्यक्ति, अजीत सिंह, को अपना मोहरा बनाया। उसी के माध्यम से अमीर खान ने राजा भीम सिंह को यह संदेश भेजा कि यदि वह उदयपुर की रक्षा करना चाहता है, तो उसे अपनी बेटी की बलि देनी होगी, क्योंकि न मान सिंह पीछे हटने को तैयार है और न जगत सिंह।

यह प्रस्ताव सुनकर राजा भीम सिंह गहरे द्वंद्व में पड़ गया—एक ओर था उसका पिता-हृदय, जो अपनी बेटी को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता था, और दूसरी ओर थी उसकी राजा की ज़िम्मेदारी, जो पूरे राज्य और उसके निवासियों की सुरक्षा की माँग कर रही थी।

अपनी ही बेटी की बलि

आख़िरकार, राजधर्म की बलिवेदी पर पिता का हृदय पराजित हो गया। राजा भीम सिंह ने राज्य की भलाई के लिए अपनी बेटी की बलि देने का हृदयविदारक निर्णय ले लिया।

दौलत सिंह के इनकार के बाद, कृष्णा के सगे भाई महाराजा जीवनदास को यह कार्य सौंपा गया। उसने साहस करके हाथ में खंजर लिया, पर जब वह अपनी बहन के सामने पहुँचा और उसके मासूम चेहरे को देखा, तो उसका दिल दहल गया। उसका हाथ कांप उठा, खंजर गिर पड़ा, और वह व्याकुल होकर वहाँ से लौट आया।

आख़िरकार, जब कोई पुरुष यह जघन्य कार्य नहीं कर सका, तो यह ज़िम्मेदारी हरम की एक महिला को दी गई। उसे आदेश दिया गया कि वह ज़हर का प्याला तैयार करे और उसे राजकुमारी को यह कहकर दे कि यह उसके पिता की ओर से भेजा गया है।


राजकुमारी कृष्णा ने जब ज़हर से भरा प्याला अपने सामने देखा, तो उसने पहले श्रद्धा से सिर झुकाकर अपने पिता की कुशलता के लिए प्रार्थना की, फिर अपने उदयपुर की सुरक्षा और सम्मान की कामना की। इसके बाद, उसने बिना किसी भय या झिझक के, वह ज़हर अपने गले से नीचे उतार लिया।

दो बार नहीं हुआ जहर का असर

राजकुमारी कृष्णा कुमारी की आँखों के सामने जब मृत्यु का भयावह दृश्य साकार हुआ, तो वहाँ उपस्थित सभी के रोंगटे खड़े हो गए। माँ अपने जिगर के टुकड़े को मौत के सामने खड़ा देख, अपने आप पर नियंत्रण खो बैठी। उसने विलाप करना शुरू किया और उन लोगों को कोसने लगी जिन्होंने उसकी मासूम बेटी को इस अंत तक पहुँचाया। लेकिन आश्चर्य की बात यह रही कि स्वयं कृष्णा की आँखों में आँसुओं की एक भी बूंद नहीं थी।

लेकिन नियति को जैसे कुछ और ही स्वीकार था। जब उसे विषपान कराया गया, तो पहला ज़हर शरीर में गया तो सही, पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ।

जब तैयार किया गया सबसे जहरीला जहर

जब ये समाचार क्रूर पठान अमीर ख़ान तक पहुँचा, तो उसकी बेचैनी और भी बढ़ गई। वहीं, उदयपुर के राजमहल में संकट और भय का साया और गहराने लगा। इस बार कोई गलती न हो, इसके लिए अत्यंत विषैले ‘कुसुम्बा’ ज़हर को तैयार किया गया—जो अफीम और विषैले पौधों के संयोग से निर्मित किया गया था। ‘राजकुमारी कृष्णा ने मुस्कुराते हुए उस ज़हर के प्याले को अपने हाथों में थामकर उदयपुर पर घिरे संकट के बादल के टलने की कामना की। और, उस घातक ज़हर की घूंट को अपने गले के नीचे उतार दिया। इस तरह ज़ालिमों की ख़्वाहिशें तो पूरी हो गईं, लेकिन मासूम-सी कृष्णा एक ऐसी निंद सो गई जिससे कोई दोबारा नहीं उठ सकता।’

इस हृदयविदारक घटनाक्रम का अंतिम निष्कर्ष यह रहा कि किसी को कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। न अमीर ख़ान को, न अजीत सिंह को और न ही मेवाड़ को। इसके उलट, सत्ता के संघर्ष में उलझे मराठा, चुण्डावत, और पठान आपस में टकरा गए। और अंत में, मेवाड़ को जनवरी 1818 में अंग्रेज़ों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। एक दशक के भीतर बाकी शक्तियों का भी यही हश्र हुआ।

राजकुमारी कृष्णा की मृत्यु केवल एक जीवन की समाप्ति नहीं थी, वह एक युग का अंत और साहस की पराकाष्ठा थी। कर्नल टॉड ने उसकी तुलना ग्रीक मिथकों की त्रासद नायिकाओं से की है—ट्रॉय की राजकुमारी हेलेन और टॉरिस की राजकुमारी ईफ़ीजीनिया, जिसे उसके पिता अगामेनोन ने राष्ट्र रक्षा हेतु बलिदान कर दिया था।

राजकुमारी कृष्णा कुमारी की गाथा हमें यह सिखाती है कि नारी केवल सौंदर्य की प्रतिमूर्ति नहीं, अपितु त्याग, साहस और आत्मबल की भी मिसाल होती है। उसका बलिदान इतिहास के पन्नों में नहीं, जनमानस के हृदय में सदा जीवित रहेगा।

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