Aadi Shankaracharya Ka Rahasya: एक संत, अनेक रहस्य, शंकराचार्य के जीवन की यात्रा और महासमाधि की रहस्यमयी गाथा
Aadi Shankaracharya Ka Rahasya: आदि शंकराचार्य का जीवन एक रहस्य, एक प्रेरणा और एक मार्गदर्शन है। वे न केवल भारत की आत्मा थे, बल्कि आज भी भारत की चेतना हैं।;
Aadi Shankaracharya Ka Rahasya
Aadi Shankaracharya Ka Rahasya: भारतीय संस्कृति और दर्शन की विशाल परंपरा में यदि किसी एक संत ने अपने तेजस्वी चिंतन, अप्रतिम बुद्धिमत्ता और गूढ़ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समूचे भारतवर्ष को एकसूत्र में पिरोया, तो वह हैं आदिगुरु श्री शंकराचार्य। वे केवल एक संत या दार्शनिक नहीं थे, बल्कि भारतीय चेतना के जागरणकर्ता, धर्म के पुनःस्थापक और अद्वैत वेदांत के अप्रतिम प्रचारक थे। मात्र आठ वर्ष की आयु में संन्यास लेकर, सोलह वर्ष की आयु में समस्त शास्त्रों का अध्ययन पूर्ण कर, और केवल बत्तीस वर्ष की जीवनयात्रा में चारों दिशाओं में धर्म और ज्ञान की मशाल जलाकर उन्होंने एक अलौकिक अध्याय रचा।
उनकी यात्राएँ रहस्यमयी थीं, कभी हिमालय की गुफाओं में साधना, तो कभी दक्षिण भारत के मंदिरों में तत्वचिंतन। वे अकेले ही ज्ञान और भक्ति के उस महान संगम को साकार करने निकले, जो भारतीय समाज को पुनः उसकी जड़ों से जोड़ सके। उनका जीवन किसी चमत्कार से कम नहीं लगता, और उनका दर्शन अद्वैत वेदांत आज भी आत्मबोध और मोक्ष का सबसे प्रामाणिक मार्ग माना जाता है।
इस लेख में हम शंकराचार्य की इन्हीं रहस्यमयी यात्राओं, उनके जीवन के गूढ़ पक्षों और अद्वैत वेदांत के उस दार्शनिक गूढ़ता का विश्लेषण करेंगे।
शंकराचार्य का जीवन परिचय
आदि शंकराचार्य(Adi Shankaracharya) का जन्म 8वीं शताब्दी में केरल(Kerala)के कालड़ी नामक गाँव में हुआ था। उनके जन्म को लेकर कई किंवदंतियाँ हैं, जिनमें यह कहा जाता है कि वे भगवान शंकर के अंशावतार थे। उनकी माता आर्यांबा एक धार्मिक महिला थीं, जिन्होंने कठिन तपस्या के बाद संतान प्राप्त की। कहा जाता है कि शंकराचार्य का जन्म ही एक चमत्कार था – उन्होंने बचपन से ही असाधारण बुद्धिमत्ता और आत्मज्ञान के लक्षण दिखाने शुरू कर दिए थे।
महज आठ वर्ष की आयु में उन्होंने वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण और अन्य शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया था। ऐसा माना जाता है कि वे केवल आठ साल की उम्र में ही सन्यास लेने के लिए निकल पड़े और माँ की अनुमति प्राप्त करने हेतु एक अनोखी युक्ति अपनाई, उन्होंने मगरमच्छ की सहायता से माँ को मना लिया। यह कथा आज भी रहस्य और आस्था का विषय है।
सन्यास और गुरु से मिलन
आदि शंकराचार्य(Adi Shankaracharya) ने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही यह जान लिया था कि संसार क्षणभंगुर है। वे ज्ञान की खोज में निकल पड़े और मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर में गोविंद भगवत्पाद से दीक्षा प्राप्त की। गोविंदपाद ने उनके अद्वितीय ज्ञान से चकित होकर उन्हें वेदांत की शिक्षा दी और भारत भ्रमण कर अद्वैत वेदांत का प्रचार करने का आदेश दिया।
उनका गुरु-शिष्य संवाद भी रहस्य और ज्ञान से भरा हुआ है। कहा जाता है कि गोविंदपाद ने जब शंकर से पूछा, "तुम कौन हो?" तो शंकर ने उत्तर दिया:
"नाहं मनुष्यो न च देवयक्षः
न ब्राह्मणो न क्षत्रियो न वैश्यः।
चिदानंदरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।"
जिसका मतलब था, “मैं न तो मनुष्य हूँ, न ही देवता या यक्ष हूँ। मैं न ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय, और न ही वैश्य। मैं केवल चेतना और आनंद स्वरूप शिव हूँ, शिव हूँ”।
अद्वैत वेदांत का रहस्य
शंकराचार्य(Adi Shankaracharya)ने ‘अद्वैत वेदांत’ की स्थापना की, जिसका सार यह है कि ब्रह्म और आत्मा एक ही हैं ‘अहं ब्रह्मास्मि’। वे कहते हैं कि संसार एक माया है और केवल ब्रह्म ही सत्य है। उनका यह दर्शन युगों से न केवल दर्शनशास्त्र को प्रभावित करता रहा है, बल्कि आम जनजीवन में भी गहरी पैठ बना चुका है।
उन्होंने चार महावाक्य दिए, जो आज भी चार प्रमुख मठों के स्तंभ हैं:
प्रज्ञानं ब्रह्म (ऋग्वेद), अहं ब्रह्मास्मि (यजुर्वेद), तत्त्वमसि (सामवेद), अयमात्मा ब्रह्म (अथर्ववेद)
चार पीठों की स्थापना
शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की आयु में सम्पूर्ण भारत की यात्रा की और भिन्न-भिन्न संप्रदायों के विद्वानों से शास्त्रार्थ किया। उनके जीवन का यह भाग अत्यंत रहस्यमयी है क्योंकि उन्होंने जितनी कम आयु में, जितने कम वर्षों में भारत के कोने-कोने में जाकर अद्वैत वेदांत का प्रचार किया, वह किसी चमत्कार से कम नहीं।
उन्होंने भारत के चार कोनों में चार मठों की स्थापना की:
उत्तर में - ज्योतिर्मठ, बद्रीनाथ (उत्तराखंड)
दक्षिण में - श्रृंगेरी मठ (कर्नाटक)
पूर्व में - गोवर्धन मठ, पुरी (ओडिशा)
पश्चिम में - शारदा मठ, द्वारका (गुजरात)
इन मठों से आज भी भारत की आध्यात्मिक चेतना का संचालन होता है। ये मठ केवल धार्मिक केंद्र ही नहीं, बल्कि ज्ञान और तपस्या के प्रतीक हैं।
रहस्यमयी यात्राएँ, योगबल या साधना की शक्ति?
शंकराचार्य की यात्राओं को लेकर कई रहस्यमयी घटनाएं प्रचलित हैं। यह कहा जाता है कि उन्होंने कुछ ही वर्षों में हिमालय से कन्याकुमारी तक की यात्रा की, वो भी ऐसे समय में जब आवागमन के साधन नगण्य थे। वे कठिन से कठिन स्थलों पर पहुँचे, दुष्कर परिस्थितियों में भी डटे रहे।
कुछ कथाएँ यह भी कहती हैं कि उन्होंने शरीर का त्याग कर किसी अन्य शरीर में प्रवेश किया था ताकि वे विद्वानों से शास्त्रार्थ कर सकें। इस घटना को 'परकाय प्रवेश' कहा जाता है, जिसे आज भी रहस्य और योगशक्ति का अद्वितीय उदाहरण माना जाता है।
अद्वैत वेदांत, केवल दर्शन नहीं, जीवन का गूढ़ रहस्य
शंकराचार्य(Adi Shankaracharya)का सबसे महत्वपूर्ण योगदान अद्वैत वेदांत की पुनःस्थापना है। 'अद्वैत' का अर्थ है 'अ+द्वैत' अर्थात् 'द्वैत का अभाव'। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि ब्रह्म और जीव में कोई भेद नहीं है; आत्मा और परमात्मा एक ही हैं।
शंकराचार्य ने 'ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः' इस महावाक्य को अपनी विचारधारा का केंद्र बनाया। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह सारा संसार माया है, जो केवल एक भ्रम है, और इस भ्रम को केवल ज्ञान के माध्यम से ही दूर किया जा सकता है।
उनकी व्याख्या इस बात पर जोर देती है कि आत्मा न तो जन्म लेती है, न मरती है। वह केवल एक ही है, अविनाशी, अजन्मा और शाश्वत। अद्वैत वेदांत का यह सिद्धांत केवल एक दार्शनिक विचार नहीं, बल्कि आत्मानुभूति पर आधारित है।
विद्वानों से शास्त्रार्थ और चेतना की क्रांति
शंकराचार्य(Adi Shankaracharya)जहाँ भी गए, उन्होंने वहाँ के प्रमुख विद्वानों से शास्त्रार्थ किया। उनका उद्देश्य केवल वाद-विवाद नहीं था, बल्कि भ्रमित मन और बंटे हुए विचारों को एकीकृत करना था। उनका शास्त्रार्थ केवल तर्क के लिए नहीं था, बल्कि सत्य की खोज का एक माध्यम था।
काशी में एक चांडाल से हुई उनकी मुलाकात इस बात का प्रमाण है कि वे केवल जाति-पांति या सामाजिक भेदभाव में विश्वास नहीं करते थे। जब चांडाल ने उनसे पूछा "यदि ब्रह्म सर्वत्र है, तो तुम किसे तुच्छ मान रहे हो?"तो शंकराचार्य ने उसे प्रणाम करते हुए उत्तर दिया, "तू वास्तव में ब्रह्म है, मैं तुझे नमन करता हूँ।"
यह संवाद अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांत को दर्शाता है सभी में वही एक चेतना है।
शंकराचार्य की मृत्यु या महासमाधि का रहस्य
आदि शंकराचार्य(Adi Shankaracharya) का जीवन जितना रहस्यपूर्ण था, उनका अंत भी उतना ही रहस्य और आध्यात्मिकता से परिपूर्ण है। ऐसा माना जाता है कि मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया। परंतु इस विषय में विभिन्न मत हैं, और उनके महासमाधि स्थल को लेकर आज भी रहस्य बना हुआ है।
कुछ परंपराएं मानती हैं कि शंकराचार्य ने केदारनाथ में समाधि ली, जबकि अन्य मान्यताओं के अनुसार वे हिमालय की ओर प्रस्थान कर अंतर्धान हो गए। वहीं कुछ विद्वानों का मत है कि उन्होंने बद्रीनाथ, कांचीपुरम या फिर कश्मीर के श्रीनगर में देहत्याग किया।
अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि शंकराचार्य ने साधारण मृत्यु नहीं पाई, बल्कि योगबल से अपने स्थूल शरीर को त्यागकर दिव्य चेतना में विलीन हो गए। कहा जाता है कि वे आज भी सूक्ष्म रूप में इस जगत में विद्यमान हैं और साधकों को मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। उनकी मृत्यु या महासमाधि की यह रहस्यमयी गाथा आज भी उनके जीवन को एक अलौकिक आभा प्रदान करती है।
आज भी प्रासंगिक, शंकराचार्य की शिक्षाएँ
आज के समय में जब व्यक्ति बाहरी सुख-सुविधाओं में लिप्त होकर मानसिक शांति से दूर हो गया है, शंकराचार्य की शिक्षाएँ और अद्वैत वेदांत का दर्शन हमें आत्मचिंतन की ओर प्रेरित करता है। वे कहते हैं
"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।" अर्थात्-मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है।
यदि मन को नियंत्रित किया जाए, तो संसार का कोई भी दुख व्यक्ति को नहीं छू सकता। उनकी शिक्षाएँ केवल साधुओं के लिए नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए हैं जो आत्म-ज्ञान की खोज में है।
मानव रूप में दिव्यता शंकराचार्य
शंकराचार्य की रहस्यमयी यात्राएँ और अद्वैत वेदांत का दर्शन भारतीय अध्यात्म की गहराइयों को उजागर करता है। उनका जीवन एक जीवंत संदेश है कि जब किसी व्यक्ति में आत्मज्ञान और ईश्वर के प्रति समर्पण होता है, तब वह असंभव को भी संभव बना सकता है।
उनकी शिक्षाएँ केवल ग्रंथों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि जीवन जीने की कला हैं, जहाँ अहंकार का स्थान आत्मा लेती है, और भेदभाव का स्थान एकता। शंकराचार्य न केवल एक संत थे, वे चेतना की क्रांति के अग्रदूत थे। उनका दर्शन और जीवन आज भी हर उस व्यक्ति के लिए प्रकाश स्तंभ है, जो सत्य, ज्ञान और मुक्ति की खोज में है।