Bastar Ka Bhumkal Vidroh: बस्तर का भूमकाल विद्रोह और गुंडा धुर की खोई हुई विरासत

Bastar Ka Bhumkal Vidroh History: इस ऐतिहासिक संघर्ष का नेतृत्व एक करिश्माई, लेकिन आज लगभग भूले जा चुके नेता गुंडा धुर ने किया था।;

Update:2025-04-11 19:33 IST

Chhattisgarh Bastar Ka Bhumkal Vidroh History

Bastar Ka Bhumkal Vidroh: छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र आज भी राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में कम ही जगह पाता है। जब भी इसका ज़िक्र होता है, तो अधिकतर नक्सलवादी गतिविधियों और माओवादी हिंसा से जुड़ी ख़बरों के रूप में ही होता है। लेकिन बहुत कम लोगों को यह जानकारी है कि यही बस्तर, भारत के उपनिवेशी इतिहास के सबसे बड़े और प्रभावशाली आदिवासी विद्रोहों में से एक का गवाह रहा है. जिसे हम भूमकाल विद्रोह (1910) के नाम से जानते हैं। इस ऐतिहासिक संघर्ष का नेतृत्व एक करिश्माई, लेकिन आज लगभग भूले जा चुके नेता गुंडा धुर ने किया था।

प्राकृतिक वैभव और आदिवासी संस्कृति की भूमि

दक्षिण छत्तीसगढ़ में फैले बस्तर का भूभाग घने जंगलों, पहाड़ियों और नदियों से आच्छादित है। यहाँ की प्रमुख आदिवासी जनजातियों में गोंड, धुरवा, हलबा, भतरा आदि शामिल हैं, जो सदियों से प्रकृति के साथ संतुलित जीवन जीते आए हैं। इनका मुख्य आश्रय इंद्रावती नदी की उपजाऊ घाटी रही है, जो गोदावरी की सहायक नदी है।


बस्तर के आदिवासी समुदाय सदियों तक बाहरी दुनिया से कटे हुए थे। वे वन देवी-देवताओं की पूजा करते थे और जंगलों की उपज पर ही पूरी तरह निर्भर थे। शासन बदलते रहे—दिल्ली सल्तनत, मुग़ल, मराठा—पर उनकी जीवनशैली लगभग अपरिवर्तित रही। वे अपने जंगलों, परंपराओं और आत्मनिर्भर जीवन में ही सुरक्षित थे।

शांति को तोड़ने वाली सत्ता: ब्रिटिश हस्तक्षेप की शुरुआत

14वीं शताब्दी में बस्तर पर काकतीय राजवंश का शासन स्थापित हुआ था, जो कालांतर में दिल्ली, मुग़ल और मराठा सत्ता को कर देता रहा, लेकिन उनके प्रशासनिक मामलों में बाहरी हस्तक्षेप कभी नहीं हुआ। यह स्थिति 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन और फिर ब्रिटिश राज की स्थापना के साथ बदलने लगी।


अंग्रेज़ों ने बस्तर की प्राकृतिक संपदाओं पर अधिकार जमाना शुरू किया। वन संसाधनों का दोहन और आदिवासियों के जीवन में हस्तक्षेप बढ़ता गया। इसी ने विद्रोह की चिंगारी को जन्म दिया।

वन कानून 1878: जीवन में हस्तक्षेप की शुरुआत

भारतीय वन कानून, 1878 ने पूरे देश में जंगलों को तीन श्रेणियों में बाँट दिया:

आरक्षित वन: जिन पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण था, और जिनमें आदिवासियों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया।

संरक्षित वन: जिनमें कुछ सरकारी नियंत्रण था।

ग्राम वन: जिनका उपयोग गांववाले कर सकते थे।

बस्तर के आदिवासियों के लिए यह कानून एक आघात था। उन्हें उनके अपने जंगलों में जाने और जीवनयापन के पारंपरिक साधनों के उपयोग से रोका जाने लगा। नियमों का उल्लंघन करने पर दंड दिया जाता था। यह उनके अस्तित्व पर हमला था, जिसे वे बर्दाश्त नहीं कर सके।

1905 के प्रस्ताव और असंतोष की ज्वाला

1905 में ब्रिटिश सरकार ने बस्तर के दो-तिहाई जंगलों को आरक्षित घोषित करने, झूम खेती (स्थानांतरण खेती) पर प्रतिबंध लगाने और शिकार पर रोक लगाने का निर्णय लिया। आरक्षित जंगलों में प्रवेश का एकमात्र तरीका था—बेरहम बेगारी यानी मुफ़्त श्रम।

इसी दौरान ज़मीन का उपकर (भूमि किराया) और पुलिसिया ज़ुल्म एक अलग बोझ बनते जा रहे थे। जनता हालात से समझौता कर ही रही थी कि 1907-08 में भयानक अकाल ने सब कुछ तबाह कर दिया।


यह अकाल 1899-1900 के बाद दूसरा सबसे बड़ा था। इसके बाद सरकार ने आरक्षित जंगलों की लकड़ी का ठेकेदारों द्वारा दोहन की अनुमति दे दी, जिससे आदिवासियों की आजीविका पर अंतिम चोट पड़ी।

शराबबंदी और आत्मनिर्भरता पर हमला

आदिवासी समाज की संस्कृति में देशी शराब की विशेष भूमिका रही है। वे इसे सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में प्रयोग करते थे। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे अवैध घोषित कर दिया, जिससे उनकी सांस्कृतिक परंपराएं भी संकट में आ गईं।

इन सबने मिलकर बस्तर के जनमानस में गहरा आक्रोश पैदा कर दिया। और यही आक्रोश कुछ वर्षों बाद भूमकाल विद्रोह के रूप में फूटा।

भूमकाल की चेतावनी और गुंडा धुर की आवाज़

गुंडा धुर, इस विद्रोह के अग्रणी नेता थे। उन्होंने 1910 में ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ बिगुल बजाया। यह विद्रोह एक जन-आंदोलन था जिसमें हज़ारों आदिवासियों ने जंगल-जंगल घूमकर सत्ता से अपने अधिकारों की वापसी की मांग की।

गुंडा धुर आज एक भूली हुई किंवदंती हैं। उनके नाम पर कहीं स्मारक नहीं, न ही कोई दस्तावेज़ी इतिहास। लेकिन बस्तर के गांव-गांव में उनकी गाथाएं आज भी मौखिक परंपराओं के रूप में जीवित हैं।

भूमकाल विद्रोह सिर्फ़ ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ नहीं था, यह आदिवासी अस्मिता, उनकी संस्कृति, और उनकी आज़ादी की रक्षा का संग्राम था। यह आज भी प्रासंगिक है क्योंकि आदिवासी समुदायों के जल, जंगल और ज़मीन पर संकट आज भी बना हुआ है।


गुंडा धुर और भूमकाल विद्रोह की कहानी भारत के इतिहास में वह अध्याय है जिसे उजागर किया जाना चाहिए। यह हमें यह याद दिलाती है कि आज़ादी की लड़ाई केवल राजधानियों और सेनाओं में नहीं, बल्कि दूर-दराज़ के जंगलों में भी लड़ी गई थी—जहां आवाज़ें थीं, लेकिन उन्हें सुनने वाले नहीं थे।

ब्रिटिश सरकार की कठोर वन नीतियों और लगातार बढ़ते दमन ने बस्तर के आदिवासियों को गहराई से प्रभावित किया। इस परिवर्तन का सबसे पहला और तीखा असर कांकेर क्षेत्र के धुरवा आदिवासियों पर पड़ा, क्योंकि वहीं सबसे पहले जंगलों को "आरक्षित वन" घोषित किया गया था। परंपरागत जीवनशैली और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता के कारण, इस दखलअंदाज़ी ने इन समुदायों की जड़ों को झकझोर कर रख दिया।

जैसे 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में चपाती, कमल और कारतूस प्रतीक बन गए थे, ठीक उसी प्रकार बस्तर के आदिवासियों ने आम की टहनियों, मिट्टी के ढेलों और लाल मिर्चों को अपने विद्रोह के संकेतों के रूप में चुना। अंततः, 2 फरवरी 1910 को, बस्तर के महान वीर गुंडा धुर के नेतृत्व में ऐतिहासिक भूमकाल विद्रोह की शुरुआत हुई।

नेथानार गांव में जन्मा नायक: गुंडा धुर

गुंडा धुर का जन्म नेथानार गांव में हुआ था और वे धुरवा जनजाति से संबंधित थे। उनके जीवन के प्रारंभिक चरणों के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है क्योंकि इस पर कोई विस्तृत ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं हैं। लेकिन परंपरागत लोककथाओं और मौखिक परंपराओं के माध्यम से यह स्पष्ट है कि वे अपने समय के करिश्माई और साहसी नेता थे, जिन्होंने आदिवासी समाज के आंतरिक ताने-बाने को एकजुट कर क्रांति का शंखनाद किया।

विद्रोह की शुरुआत उन्होंने बस्तर के पुष्पाल बाजार के अन्न भंडार को लूटकर की, जिसे गरीबों में वितरित कर दिया गया। यह काम एक प्रतीकात्मक क़दम था, जिससे यह संदेश गया कि यह आंदोलन सिर्फ ब्रिटिशों के खिलाफ नहीं, बल्कि शोषण के हर स्वरूप के खिलाफ था।

जगदलपुर में विद्रोह की ज्वाला

इसके बाद विद्रोहियों ने बस्तर की राजधानी जगदलपुर की ओर कूच किया। वहाँ उन्होंने प्रशासनिक इमारतों, सरकारी अधिकारियों और स्थानीय साहूकारों के घरों पर धावा बोला। थाना और मिशनरी स्कूल तक को लूटा गया। विद्रोह की लपटें इतनी तेज़ थीं कि यह आंदोलन बस्तर के 84 में से 46 परगनों में जंगल की आग की तरह फैल गया।

कुछ दिनों के लिए ऐसा प्रतीत हुआ कि बस्तर से ब्रिटिश शासन का अंत हो गया है। परन्तु, यह स्थिति अधिक समय तक नहीं टिक सकी।

साजिश और विद्रोह का दमन

ब्रिटिश सरकार ने अपनी सैन्य ताकत झोंक दी। उन्होंने विद्रोह को कुचलने के लिए सुदृढ़ योजना बनाई और विद्रोहियों में से ही एक भरोसेमंद व्यक्ति, सोनू मांझी, को रिश्वत देकर अपने पक्ष में मिला लिया। सोनू मांझी को पद और धन का लालच देकर विश्वासघात के लिए तैयार किया गया। उसकी मदद से अंग्रेज़ों ने विद्रोहियों के ठिकानों को घेर लिया।

अलीनरगांव में निर्णायक टकराव हुआ, जिसमें बड़ी संख्या में आदिवासी शहीद हुए। लेकिन इस बीच, गुंडा धुर अंधेरे और जंगल की ओट में बच निकले और फिर कभी किसी को नहीं दिखाई दिए। आज भी उनकी अंतिम स्थिति एक रहस्य बनी हुई है।

भूमकाल की असफलता और उसका असर

हालाँकि गुंडा धुर का नेतृत्व प्रेरणास्पद था, लेकिन यह विद्रोह कई रणनीतिक कारणों से विफल हो गया: कोई सुदृढ़ योजना नहीं थी।

यह आंदोलन एक क्षेत्र तक सीमित रह गया और अन्य क्षेत्रों में फैल नहीं सका।

हथियारों की कमी भी प्रमुख बाधा रही।

विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने बस्तर के गांवों में भारी दमन किया; महिलाओं-बच्चों को भी नहीं बख्शा गया। गाँव खाली हो गए और लोग जंगलों में शरण लेने को मजबूर हो गए।

ब्रिटिश सरकार को पूरी तरह स्थिति पर काबू पाने में 3 से 4 महीने लग गए।

गुंडा धुर: बस्तर की आत्मा और जन-नायक

हालांकि यह विद्रोह पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाया, लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव हुए। वर्ष 1910 में जिन वनों को पूरी तरह आरक्षित घोषित करने की योजना थी, उस नीति को लगभग आधा कर दिया गया। यह गुंडा धुर और उनके साथियों के बलिदान का ही परिणाम था।

गुंडा धुर आज भी बस्तर के जंगलों में लोकगीतों और कहानियों में अमर नायक के रूप में जीवित हैं। बच्चों को उनकी कहानियां सुनाई जाती हैं और हर युवा उन्हें अपना आदर्श मानता है।

आधुनिक भारत में गुंडा धुर की मान्यता

छत्तीसगढ़ सरकार ने उनकी वीरता और संघर्ष को मान्यता देते हुए उनके नाम पर राज्य स्तरीय क्रीड़ा पुरस्कार आरंभ किया।

सन् 2014 के गणतंत्र दिवस समारोह में छत्तीसगढ़ की झांकी में गुंडा धुर और भूमकाल विद्रोह को प्रमुखता से दर्शाया गया।

भूमकाल विद्रोह केवल एक आदिवासी आंदोलन नहीं था, बल्कि यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी चेतना और स्वाभिमान का प्रतीक था। गुंडा धुर उस चेतना के सबसे ज्वलंत और अप्रतिम प्रतीक थे, जिनकी विरासत आज भी आदिवासी समुदायों की आत्मा में जीवित है।गुंडा धुर न सिर्फ बस्तर के जननायक थे, बल्कि वे पूरे भारत के आदिवासी स्वाभिमान की एक जीवंत मूर्ति हैं, जिन्हें इतिहास में वो स्थान मिलना चाहिए जिसके वे सच्चे अधिकारी हैं।

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