Lok sabha election 2019: किसकी नैया पार लगाएंगे ब्राह्मण
लोकसभा चुनाव में ब्राम्हणों को लेकर एक बार फिर मंथन का दौर जारी है कि आखिर मतदाताओं का यह बडा वर्ग किसके पाले में जाएगा ? यह बात सब जानते हैं कि यूपी में यह बडा वोट बैंक किसी भी दल की किस्मत बदल सकता है।
लखनऊ: लोकसभा चुनाव में ब्राम्हणों को लेकर एक बार फिर मंथन का दौर जारी है कि आखिर मतदाताओं का यह बडा वर्ग किसके पाले में जाएगा ? यह बात सब जानते हैं कि यूपी में यह बड़ा वोट बैंक किसी भी दल की किस्मत बदल सकता है। लेकिन दूसरी जातियों की नाराजगी से बचने के लिए फिलहाल सभी दल चुप्पी साधे हुए हैं।
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ब्राम्हण वोट बैंक के सहारे कई सालों तक सत्ता अपने हाथ में रखने वाली कांग्रेस से यह वर्ग 1989 में मंदिर आंदोलन के बाद रूठ कर भाजपा के साथ हो गया लेकिन भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग के चलते 2000 के आसपास जब इस वर्ग को लगा कि उसकी उपेक्षा हो रही है तो ब्राम्हण वर्ग इस पार्टी से छिटक कर अलग हो गया।
भाजपा के प्रदेश तत्कालीन प्रदेश अध्यक्षों ओमप्रकाश सिह और विनय कटियार के रहते ब्राम्हण वर्ग खुद को ठगा महसूस करने लगा था। लेकिन 2012 में जब प्रदेश की कमान डा लक्ष्मीकांत वाजपेयी के हाथों आई तो भाजपा को 2011 के निकाय चुनाव और फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर लाभ मिला।
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आजादी के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस पार्टी मुसलमान और ब्राम्हण वोट बैक के सहारे सत्ता पर काबिज होती रही। प्रदेश में पं गोबिन्द वल्लभ पंत, सुचेता कृपालानी, पं कमलापति त्रिपाठी, नारायण दत्त तिवारी, श्रीपति मिश्र तथा हेमवती नन्दन बहुगुणा मुख्यमंत्री बने। इसमें गोबिन्द वल्लभ पंत दो बार तथा नारायण दत्त तिवारी तीन बार मुख्यमंत्री बने।
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2002 में भाजपा के समर्थन वापसी और प्रदेश की सत्ता गंवाने के बाद बहुजन समाज पार्टी को लगा कि किसी विशेष वर्ग के सहारे पार्टी अपने दम पर न तो उंचाईयां छू सकती है और न ही प्रदेश की सत्ता हासिल कर सकती है तो पार्टी अपने नेता सतीश चन्द्र मिश्र के सहारे सवर्णो खास तौर पर ब्राम्हणों को पार्टी से जोड़ने का काम शुरू किया। पहले तो लोगों को बसपा की यह रणनीति समझ में नहीं आई लेकिन 5 जून 2005 को जब बसपा ने अपना बदलते हुए ब्राम्हण सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया तो अन्य दल हैरान हो गए।
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बसपा ने अपने चुनावी दांव का इस्तेमाल करते हुए 56 ब्राम्हणों को टिकट दे दिए और जब उसके 41 ब्राम्हण चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे तो बसपा की ताकत बढ़ चुकी थी और पहली बार उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बन चुकी थी। इस चुनाव के बाद अन्य दलों को भी ब्राम्हण वोट बैंक की बड़ी ताकत का पहली बार अहसास हुआ।
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इसके बाद दूसरे दल भी चौकन्ने हुए और भाजपा ने डा. रमापति राम त्रिपाठी, कांग्रेस ने डा रीता बहुगुणा जोशी को प्रदेश की कमान सौंप दी। भाजपा को तो इसका लाभ नहीं मिल पाया लेकिन कांग्रेस को इसका भरपूर लाभ जरूर मिला। पार्टी के 10 सांसदों पर अटकी कांग्रेस के 2009 के लोकसभा चुनाव में 22 सांसद हो चुके थें। सपा ने भी कुछ ब्राम्हण नेताओं को आगे करना शुरू कर दिया। इसके बाद 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में भी यह कार्ड चला गया।
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चूंकि समाज का यह वर्ग सबसे ज्यादा शिक्षित वर्ग माना जाता है और समाज में संदेश देने का भी काम करता है इसलिए इसे अपने पक्ष में करने की हर दल में होड़ रहती हैं। राजनीतिक चिंतकों का कहना है कि पिछले लोकसभा चुनाव में यूपी में यदि भाजपा को 71 सीटे मिली तो इसमें इस वर्ग का बड़ा योगदान था। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 17 ब्राह्मणों को टिकट दिए थे। इस बार उसने अपनी 78 सीटों में अन्य दलों के मुकाबलों सबसे ज्यादा 17 सीटों पर ब्राह्मण समाज के उम्मीदवार उतारे हैं। जबकि कांग्रेस ने 10 समाजवादी पार्टी ने एक तथा बसपा ने एक प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारा है।
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जहां तक वोट बैंक की बात है तो इस वर्ग का वोट हर जिले में हैं लेकिन पूर्वांचल में फैजाबाद, वाराणसी, गोरखपुर, गाजीपुर, गोण्डा, बस्ती, महाराजगंज, ,सिद्वार्थनगर, जौनपुर, गोंडा और मध्य यूपी में कानपुर रायबरेली, फर्रुखाबाद, कन्नौज, उन्नाव, लखनऊ, सीतापुर, बाराबंकी, हरदोई, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ, अमेठी आदि गढ़ है।
इसी तरह बुंदेलखण्ड में हमीरपुर, हरदोई, जालौन, झांसी, चित्रकूट, ललितपुर, बांदा आदि ब्राम्हण मतदाताओं का केन्द्र है। राजनीति के जानकारों का कहना है कि ब्राम्हण मतदाताओं की लगभग 30 जिलों में महत्वपूर्ण भूमिका है। यदि हम एक जिले की औसतन पांच विधानसभा मान ले तो इनकी संख्या 150 पहुंचती है।
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जहां तक लोकसभा चुनावों की बात है तो इस बारे में राजनीतिक जानकार बताते है कि 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में 31 फीसदी ब्राह्मणों ने वोट किया था। जबकि 2014 में उसके पक्ष में सिर्फ 11 फीसदी वोट ही पड पाए। इसी तरह भाजपा को ब्राम्हणों के 2009 में 53 वोट मिले जबकि 2014 में उसे वोटों का 72 प्रतिशत समर्थन हासिल हुआ।
इसी बीच ब्राम्हणों के सहारे यूपी की सत्ता हासिल करने वाली बहुजन समाज पार्टी जब अपने मूल कैडर पर लौटी तो ब्राम्हण वोट बैंक फिर उससे छिटक गया और इस वर्ग का 2009 में 9 फीसदी जबकि 2014 में सिर्फ 5 फीसदीही वोट मिल पाया। ब्राम्हण वर्ग अयोध्या आंदोलन के चलते कभी भी समाजवादी पार्टी के साथ नही रहा। यही कारण है कि उसे 2009 और 2014 दोनों लोकसभा चुनाव में पांच-पांच फीसदी ही ब्राह्मण वोट मिल पाए।
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अब अगर विधानसभा के पिछले पांच चुनाव पर आंकडेवार नजर डाले तो 1993 में भाजपा ने 17, 1996 में 14, 2002 में 8, 2007 में 3 तथा 2012 में 6 विधायक थे। जबकि बसपा के 1993 में 0, 1996 में 2, 2002 में 4, 2007 में 41 तथा 2012 में 10 विधायक जीते थे। इसी तरह समाजवादी पार्टी के वर्ष 1993 में 2, 1996 में 3, 2002 में 10, 2007 में 11 तथा 2012 में 21 ब्राम्हण विधायक बने थे। जबकि कांग्रेस के 1993 में 5, 1996 में 4, 2002 में 1, 2007 में 2 तथा 2012 में 3 ब्राम्हण विधायक बनकर विधानसभा पहुंचे ।
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पिछले 5 विधानसभा चुनावों की बात करें तो हर पार्टी ने चुनाव में ब्राह्मण कार्ड खेला। जिससे पार्टियों को अच्छा फायदा भी देखने को मिला।बसपा के टिकट पर 1993 में एक भी ब्राह्मण विधायक चुनकर विधानसभा नहीं पहुंच पाया था। 2017 में भी बसपा ने 66 ब्राह्मणों को टिकट दिया था। अब एक बार फिर से चुनावी संग्राम में हर दल ब्राम्हण कार्ड खेलने के मूड में है।
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भाजपा अपने नेताओं प्रदेश अध्यक्ष डा महेन्द्र नाथ पाण्डेय उपमुख्यमंत्री डा दिनेश शर्मा डा लक्ष्मीकांत वाजपेयी कलराज मिश्र, महेश शर्मा , शिव प्रताप शुक्ल , डा रीता बहुगुणा जोशी , और बृजैश पाठक को आगे कर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश में है। वहीं समाजवादी पार्टी अपने गिने चुने चेहरे माता प्रसाद पाण्डेय, मनोज कुमार पाण्डेय, अशोक त्रिपाठी, प्रो शिवाकांत ओझा ओर अभिषेक मिश्र के सहारे ही ब्राम्हणों को लुभाने की कोशिश में है।
जबकि बहुजन समाज पार्टी अपने गिने चुने नेताओं सतीश चन्द्र मिश्र नकुल दुबे और रामवीर उपाध्याय का चेहरा दिखाकर इस बडे वोट बैंक पर अपनी निगाहे रखे हुए है। अब देखना है कि चुनावी बेला में ब्राम्हण मतदाता किस दल की हवा बनाकर उसको सत्ता की चाभी सौंपते हैं। यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चल सकेगा।
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सवर्ण आरक्षण का कितना लाभ मिलेगा भाजपा को ?
मोदी सरकार ने आम चुनाव से ठीक पहले बड़ा फैसला लेते हुए सामान्य वर्ग के लोगों के लिए 10 फीसदी आरक्षण देकर बडा चुनावी दांव खेला है। यह एक ऐसा राजनीतिक फैसला मोदी सरकार ने लिया जिसमें दूसरे दल भी फंसकर इसका विरोध नहीं कर सके। लोकसभा चुनाव में भाजपा को इसका कितना लाभ मिलेगा वह तो आने वाला वक्त बताएगा पर देश की आजादी के बाद इस फैसले को मोदी सरकार का मील का पत्थर साबित होने वाला फैसला माना जा रहा है।
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भाजपा अपने इस क़दम का राजनीतिक फ़ायदा उठाने की कोशिश करती हुई दिख रही है। हालांकि उसे इसका बहुत अधिक फ़ायदा मिलता हुआ नज़र नहीं आता। इसके पीछे दो अहम कारण हैं। पहला तो देश में सवर्णों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है और दूसरा यह वर्ग पहले से ही भाजपा का वोटर रहा है। फैसले के अनुसार सालाना आठ लाख रुपए से कम आय वाले सवर्णों को भी 10 फीसदी आरक्षण मिलेगा। इसके लिए कई तरह की शर्तें निर्धारित की गई हैं। आरक्षण का उद्देश्य आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को आरक्षण देना है।