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ब्राह्मण कौन, ये हैं वह गुण जिनको अपना कर कोई भी ब्राह्मण बन सकता है
ब्राह्मण कौन के सवाल पर लगता है कि मेरे तमाम मित्र सोच में पड़ गए हैं कि यह मैं कैसी बातें कर रहा हूं, क्योंकि ब्राह्मणत्व का जो पैमाना है वह इतना सरल या कठोर है कि इसे स्वीकारना वश के बाहर की बात लगती है। अगर हम कहें कि ब्राह्मण जन्म से नहीं हो सकते।
रामकृष्ण वाजपेयी
ब्राह्मण कौन के सवाल पर लगता है कि मेरे तमाम मित्र सोच में पड़ गए हैं कि यह मैं कैसी बातें कर रहा हूं, क्योंकि ब्राह्मणत्व का जो पैमाना है वह इतना सरल या कठोर है कि इसे स्वीकारना वश के बाहर की बात लगती है। अगर हम कहें कि ब्राह्मण जन्म से नहीं हो सकते। तो तमाम लोग जो ब्राह्मण बन बैठे हैं जिन्हें बनुआ ब्राह्मण कहते हैं को भी मान्यता देनी पड़ जाएगी। या जो पांडे मिश्रा वाजपेयी आदि हैं वह कहेंगे कि क्या हम ब्राह्मण नहीं हैं।
मित्रों, ब्राह्मण की हमारे उपनिषदों या पुराणों में दी गई अवधारणा व्यावहारिक है या नहीं यह अलग विषय है, किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजों व ऋषियों ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी है उसमें काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता है।
वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हो या ना हो, लेकिन ऋषियों की व्याख्या के अनुसार वह ब्राह्मण नहीं है। जन्मना जायतेशूद्र: की अवधारणा के अनुसार जन्म से सभी मनुष्य शूद्र हैं। ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से यज्ञोपवीत संस्कार के बाद शिक्षा लेने वाला मनुष्य द्विज कहलाता है।
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मोटे तौर पर ब्राह्मण वह है जो ज्ञान प्राप्ति करके समाज के उत्थान के लिए अपने जन्म, जाति, देश, अस्तित्व आदि के बन्धनों का त्याग करता है। देखा जाए तो हिन्दुओं में सभी का कोई न कोई गोत्र होता है। गोत्र किसी ऋषि के नाम का होता है। यह गोत्र सभी वर्णों में हो सकता है। यानी एक ही ऋषि की संतान होकर भी कोई क्षत्रिय कोई वैश्य कोई शूद्र हो सकता है। तब फिर ब्राह्मण है कौन?
अगर हम अपनी पौराणिक परंपरा पर ध्यान दें तो ब्राह्मण वह है जिसे आत्मा का बोध हो गया है, जो जन्म और कर्म के बन्धन से मुक्त हो गया हो। ब्राह्मण को छह बन्धनों से मुक्त होना अनिवार्य है-क्षुधा, तृष्णा, शोक, भ्रम, बुढापा, और मृत्यु। यहां बंधनों से मुक्त होने की अवधारणा के पीछे सोच यह है कि ब्राह्मण को इन बातों की चिंता नहीं होनी चाहिए। सुनने में अटपटा जरूर लग सकता है लेकिन क्षुधा से मुक्त कौन हो सकता है।
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आम तौर पर क्षुधा से आशय भूख से होता है। तो क्या इस का आशय हर समय खाने की चिंता से मुक्त रहने के भाव से है। यह अर्थ तो नहीं हो सकता फिर इस बात का तात्पर्य क्या है। मेरे हिसाब से क्षुधा से आशय लिप्सा से है। ब्राह्मण को चीजों को हासिल करने की लिप्सा नहीं होनी चाहिए। ब्राह्मण को संतोष होना चाहिए। संतोष का अर्थ भीख मांगने से नहीं है। कहावत है उत्तम खेती मध्यम बान निशिथ चौकरी भीख निदान। यानी भीख मांगना तो सबसे अधम काम है। ब्राह्मण ब्रह्म ज्ञानी होगा यानी जिसे आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होगा तो निश्चय ही वह क्षुधा से मुक्त हो जाएगा। उसे दूसरे की समृद्धि देखकर जलन दाह या शोक नहीं होगा।
भ्रम से मुक्त हो वह ब्राह्मण है। जो व्यक्ति न तो भ्रम का शिकार हो न ही किसी को भ्रम में डाले वही ब्राह्मण है। और जिस व्यक्ति को ज्ञान हो जाएगा वह न तो बुढ़ापा रोकने का उपाय करेगा न ही मृत्यु से बचने का उपाय करेगा। क्योंकि उसे पता है कि यह सब शाश्वत सत्य हैं। इसी तरह ब्राह्मण को छह परिवर्तनों से भी मुक्त होना चाहिए जिनमें पहला ही जन्म है। अर्थात जन्म के आधार पर भेदभाव करने में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता। ब्राह्मण वह है।
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जिसकी इच्छा शेष नहीं रहती। सत्य के चिर आनंद यानी सच्चिदानन्द की प्राप्ति (या खोज) ही ब्राह्मण की दिशा है। ब्राह्मण समाज के उत्थान के लिये कार्य करता है। ब्राह्मण का एक और कार्य ब्रह्मदान या ज्ञान का प्रसार है। इसी तरह, असंतोष के रहते कोई ब्राह्मण नहीं रह सकता, भले ही उसका जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो। ऐसा लगता है कि "संतोषः परमो धर्मः" ब्राह्मण होने की सबसे अहम शर्त है