...और सैकड़ों महिलाओं की जिंदगी में नई सुबह बन छा गईं उषा चौमार
ये उषा चौमार की कहानी नहीं है ये हर उस महिला के जीवन की कहानी है जो कहीं न कहीं इस तरह के अपमानजनक काम को करते हुए घुट घुट कर जीती है। उनके निरंतर प्रयासों के कारण, उन्हें 53 वर्ष की आयु में सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया गया है।
रामकृष्ण वाजपेयी
शायद आपने उषा चौमार का नाम सुना हो। लेकिन आज कोरोना के दौर में जब हम सफाई और स्वच्छता की बात कर रहे हैं ऐसे समय में उषा चौमार की अहमियत बढ़ गई है। ये महिला समाज के उन निचले तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व करती है जिन्हें मैला उठाने की सबसे खराब कुप्रथा के कारण अछूत कहा जाता रहा है। हालात और मजबूरियों के चलते मात्र सात साल की उम्र में मां की मदद के लिए ये इस काम में लग गईं। दस साल की उम्र में शादी हो गई लेकिन काम नहीं बदला। लेकिन इस बच्ची के हौसले नहीं टूटे। जितनी बार नन्हें हाथों से मैला उठाया हर बार संकल्प मजबूत हुआ कि कैसे एक दिन इस प्रथा को खत्म करना है। महिलाओं को सम्मान की जिंदगी दिलानी है। उषा चौमार एक ऐसी महिला हैं जिनसे आपको अवश्य ही प्रेरणा मिलेगी।
कौन हैं उषा चौमार
राजस्थान के भरतपुर जिले की रहने वाली उषा चौमार एक दलित परिवार में पैदा हुई थीं और उन्होंने बहुत कम उम्र में मैला उठाने का काम शुरू कर दिया क्योंकि उनका परिवार भी यही काम करता था। जब वह चार पांच साल की बच्ची थीं तो मां से झाड़ू लगाने की जिद करती थीं। सात साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते उन्होंने अपने नन्हें हाथों से मैला उठाने का काम शुरू कर दिया।
मात्र दस साल की उम्र में शादी
अब इसे वक्त का सितम कहें या सामाजिक विद्रूपता या पारिवारिक मजबूरी मात्र दस साल की उम्र में उषा की शादी हो गई और वह राजस्थान के अलवर ज़िले में चली गई। हालाँकि, वहां पर भी उनका काम नहीं बदला। लेकिन उस समय वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थीं। लेकिन इस बच्ची के मन में हर दिन यह संकल्प मजबूत होता जा रहा था कि एक दिन इस कुप्रथा का खात्मा जरूर करूंगी। महिलाओं को उनका सम्मान जरूर दिलाऊंगी।
जिंदगी में आया अहम मोड़
ये सिलसिला पता नहीं कब तक चलता। लेकिन तभी उनके जीवन में एक मोड़ आया जब उनके इलाके में डॉ बिंदेश्वर पाठक आये। यहीं से उनके जीवन में बदलाव की शुरुआत हुई। पाठक ने उषा को एक दूसरे काम की पेशकश की। यह काम सम्मानजनक था।
नई दिशा से बही बदलाव की बयार
उन्होंने अलवर में सुलभ इंटरनेशनल का एक सेंटर स्थापित किया, जिसे नई दिशा नाम दिया। उषा इससे जुड़ गईं। उन्होंने अपने समाज की तमाम महिलाओं को इससे जोड़ा। और यह सेंटर अचार, नूडल्स, पापड़ और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन का सेंटर बन गया। इस प्रकार दूसरे रोजगार के जरिये इन महिलाओं के जीवन में बदलाव की बयार बही।
नई दिशा से न सिर्फ उषा का जीवन बदला बल्कि उनके जैसी तमाम महिलाओं का जीवन बदल गया। आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ उनका सोया हुआ आत्मविश्वास भी जागा। उन्होंने २००३ में मैला उठाने का काम छोड़ दिया।
पद्मश्री उषा हैं आशा की किरन
धीरे धीरे उषा चौमार एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक शक्तिशाली वक्ता बन गईं। उन्होंने मैला उठाने की कुप्रथा के खिलाफ आवाज़ भी उठायी। उषा ने सैकड़ों महिलाओं को प्रेरित किया ।
ये उषा चौमार की कहानी नहीं है ये हर उस महिला के जीवन की कहानी है जो कहीं न कहीं इस तरह के अपमानजनक काम को करते हुए घुट घुट कर जीती है। उषा चौमार सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन में प्रेजिडेंट हैं। वह यूएसए, पेरिस और दक्षिण अफ्रीका गई हैं। उन्होंने मेहनत करके अंग्रेजी बोलना भी सीख लिया है। उनके निरंतर प्रयासों के कारण, उन्हें 53 वर्ष की आयु में सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया गया है।