TURKEY में मज़हब महिलाओं के दिल में बसता है पहनावे में नहीं

Update:2016-04-29 16:14 IST

Yogesh Mishra

मस्जिद, मदरसा और हिजाब-नकाब पहने महिला आमतौर पर इस्लाम की पहचान हैं , पर मुस्लिम देश तुर्की जाने का मौका मिले तो ये प्रतीक और मायने बदले हुए दिखते हैं। इस मुस्लिम देश में मस्जिद मदरसा और महिला तीनों की स्थितियां ऐसी हैं जिसे देखकर किसी भी अमन और आजादी पसंद आदमी की बाछें खिल जाएंगी। वहां मस्जिद सिर्फ इबादत का हिस्सा है, धर्म समाज में नहीं उतरा है। मदरसे गायब हैं बावजूद इसके तालीम इतनी है कि 99 फीसदी से अधिक बच्चियां स्कूल जाती हैं।

नहीं कर सकते मुस्लिम एक से ज्यादा शादी

यहां मुसलमान भी दो शादियां नहीं कर सकते। तुर्की सिविल कोड के जरिए 1926 में इस मुस्लिम आबादी वाले देश में बहुविवाह को प्रतिबंधित कर दिया था। न सिर्फ प्रतिबंधित बल्कि इसे अपराध घोषित करते हुए इसके लिए दो साल की सजा का प्रावधान भी कर दिया गया है।

ये भारत में रहने वाले उन मुसलमानों के लिए सबक हैं जो शरीयत कानून का हवाला दे सरकार और अदालत को इसमें दखल नहीं देने की मांग करते रहे हैं ।

बराबरी है इस्लाम

यहां की संसद, जिसे आम तुर्की में टीबीएमएम कहते हैं, में 14.2 फीसदी महिलाएं हैं। तकरीबन 30 फीसदी महिलाएं तुर्की की श्रमशक्ति का मजबूत आधार हैं। सार्वजनिक आफिस, स्कूल, शिक्षा, यूनीवर्सिटी में काम करते समय नकाब प्रतिबंधित है। इस्लाम में कोई बदलाव ना लाने की बात कहकर उसे बदनाम करने वाले कठमुल्लाओं को तुर्की जरुर जाना चाहिए। यह देखने की इस्लाम का असली मतलब क्या है। दकियानूसी इस्लाम का हिस्सा नहीं है। बराबरी इस्लाम का आधार है।

हक हासिल है

इसे महिलाओं की सेहत का नमूना कह सकते हैं कि गर्भवती महिलाओं की मौत की दर एक लाख पर महज बीस है। यहां 1930 में महिलाओं को वोट का अधिकार मिल गया था। यहां तलाक के तीन जुबानी पत्थर मार छुट्टी नहीं पाई जा सकती। अगर तलाक लिया या दिया तो आधी संपत्ति अपनी शरीक ए हयात को देनी होगी। फैशन और प्रगतिशीलता का इस्लाम के साथ किस तरह का ऐसा रिश्ता बन सकता है जो जिंदगी में बाधाएं न खड़ी करें उसकी मिसाल है तुर्की और वहां की महिलाएं।

नहीं होती मस्जिदों से अजान

यहां दूसरे इस्लामी देशों की तरह जुमा यानी शुक्रवार का दिन पब्लिक हालीडे नहीं होता। यहां पर वीकेंड बाकी जगहों की तरह शनिवार और रविवार को ही होता है। मुस्लिम देश होने के बावजूद यहां अजान नही होती। यहां धर्म जीवनशैली का हिस्सा नहीं इबादत का सबब है। तभी तो यहां आलिम फाजिल सब हैं पर मुल्ला मौलवी की दाढी आपको देखने को नहीं मिलेगी। और तो और सिसासत से लेकर इबादत तक का हिस्सा बन चुकी एक खास टोपी भी तुर्की में नहीं दिखती।

प्रेम तासीर है बाजार नहीं

खुद को आधुनिक परिधानों में सजा संवार कर रखने की तुर्की महिलाओँ की आदत उनके जीवन में रंग भरती है। यह रंग उनके चेहरे पर नूर बनकर नज़र आता है। यहां सोना पहनना हराम है इसलिए महिलाएं गहने नहीं पहनती। उनका नूर ही उनका गहना है। यूरोप की तरह तुर्की में प्रेम पसरा नहीं है पर बाजारों में घूमते, आइसक्रीम खाते, काफी पीते युगल यह कह जाते हैं कि प्रेम उनकी तासीर है उनके लिए बाजार नहीं।

यूरोपीय देशों की तरह यहां बाजार में महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधन का खपना यह बताता है कि घिसी पिटी लकीर पर चलना यहां के अवाम खासतौर से महिलाओ को पसंद नहीं है। पुरुष और महिलाओँ के काम बंटे नहीं है। यहां की तीस फीसदी लड़किया दूसरे मुल्क में भी शादी करना पसंद करती हैं। अपनी परंपराओँ में जीना भी यहां की महिलाओं को खूब आता है इसीलिए वे जहां एक ओर राष्ट्रीय गौरव से लबरेज दिखती हैं तो दूसरी ओर उनका अकीदा अपने मज़हब पर किसी भी मुल्क की महिलाओं के बराबर है। क्योंकि उनका मज़हब उनके पहनावे में नहीं उनके दिल में बसता है।

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