‘चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवधनरेस। जा पर बिपदा परत है सो आवत यहि देस।’ मुगलों के दरबारी कवि अब्दुल रहीम खानखाना को चित्रकूट और श्रीराम की महिमा में यह भाव आखिर क्यों वयक्त करना चाहिए। और जब व्यक्त ही कर दिया तो मुगलों को उन्हें देश निकाला दे देना चाहिए था क्योंकि रहीम ने हिंदू धर्मस्थल और उनके भगवान का गुणगान किया है। ‘मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन। जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥ पाहन हौं तो वही गिरि को जो कियो हरिछत्र पुरंदर धारन। जौ खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।।’ सैयद इब्राहीम उर्फ रसखान को श्रीकृष्ण की भक्ति में यह भावना क्यों व्यक्त करनी चाहिए। और इधर करीब की बात करें तो मुहम्मद रफी को राम, कृष्ण और शिव के भजन तो बिलकुल नहीं गाने चाहिए थे और नौशाद आदि मुसलमान संगीतकारों को ऐसे ही भजनों को संगीतबद्ध नहीं करना चाहिए था क्योंकि वह अपने संप्रदाय में काफिर कहे जा सकते हैं। ऐसे ही ढेरों सवाल तब रह रहकर उभर रहे हैं जब राजस्थान के डॉ. फिरोज खान को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाने से इसलिए रोका जा रहा है कि वह मुसलमान हैं। और यह सब उस काशी में हो रहा है जहां से ज्ञान का संदेश पूरी दुनिया में जाता है। एक समुदाय के मुट्ठी भर लोग न जाने स्वार्थपूर्ति के लिए काशी और उसकी वैदुष्य परंपरा को बदनाम करने पर उतारू हैं। जिस भारत की संस्कृति वसुधैव कुंटुबकम् की रही हो, वहां भाषा को लेकर ऐसे लिजलिजे सवाल न केवल चिंताजनक वरन असंवेदनशील भी हैं।
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जिस काशी में बैठकर कबीर ने भेदभाव के खिलाफ संदेश दिया। जिस काशी के लिए गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस में लिखते हैं कि ‘मुक्ति जन्म महि जानि ज्ञान खान अघ हानिकर। जहं बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न।।’ यानी काशी ज्ञान की धरा है। ऐसी काशी से आधुनिकता के इस दौर में थोड़े से स्वार्थीतत्व कुतार्तिक बात उठाएं और उसका पुरजोर विरोध न हो, बहुत चिंताजनक है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी काशी में दुनिया के ताकतवर नेताओं को इसलिए नहीं लाते कि एक पुराना गलियों वाला शहर दिखाना है, बल्कि इसलिए लाते रहे हैं कि दुनिया अपनी आंखों से इस प्राचीन नगरी का ज्ञान और वैदुष्य परंपरा देखे व महसूस करे। लेकिन विवेकहीन कुछ लोगों को फिरोज खान को संस्कृत पढ़ाने से रोकने की बात उठाने पर शर्म भी नहीं आती है कि दुनिया भर में इसका संदेश क्या जाएगा। अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने 19वीं शताब्दी में कहा था कि ‘काशी इतिहास से भी प्राचीन, परंपराओं से भी पुरानी और मिथकों से भी पहले की है।’ ऐसे विश्वास और आस्था से ओतप्रोत नगरी पर डॉ. फिरोज खान को संस्कृत पढ़ाने से रोकने वालों की बुद्धि पर तरस खाने के सिवा और क्या कहा जा सकता है।
पूरी दुनिया में किसी भी भाषा, बोली को पढऩे, पढ़ाने, बोलने, व्यवहार करने में कहीं भी प्रतिबंध नहीं है। अगर ऐसा होता तो रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी से लेकर श्रीराम मिश्र तलब जौनपुरी तक अनेक नामचीन शायर जो हिंदू थे, क्या उर्दू, अरबी, फारसी में शायरी लिख पाते? क्या डॉ. किश्वर जबीं नसरीन इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ा पातीं? और क्या संस्कृत भाषा के ऐसे ही विद्वान संस्कृत का अध्ययन अध्यापन कर पाते? जवाब नहीं में ही मिलेगा, लेकिन कुछ टूटे फूटे दकियानूस नियमों का हवाला देने वाले भूल जाते हैं कि भारतीय संविधान में भाषा, भूषा, खान-पान और ऐसी ही अनेक व्यवस्थाओं पर देश के नागरिकों को समानता का अधिकार देता है। तब तो हमारे आप्तग्रंथों यानी वेदों, उपनिषदों, पुराणों और वाल्मीकीय रामायण, रघुवंश महाकाव्यम् जैसे ग्रंथों का दूसरी भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए था।
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राजस्थान के जयपुर जिले के बागरू गांव के निवासी फिरोज खान ने अपनी शुरुआती पढ़ाई भी संस्कृत स्कूल से की है। उनके पिता रमजान खान ने भी शास्त्री तक संस्कृत पढ़ी है और संगीत में अभिरुचि के चलते वह कृष्ण के भजन हमेशा गाया करते हैं। अपने बेटे के साथ बनारस में हुई घटना सुनकर वह बीमार पड़ गए। रमजान खान का ज्योतिष में भरोसा है। किसी ज्योतिषी के कहने पर उन्होंने अपना नाम तक बदलकर मुन्ना मास्टर कर लिया और संगीत सीखने वाले उन्हें इसी नाम से जानते हैं। मुन्ना मास्टर मंदिरों में जाकर भजन गाया करते हैं। काशी के वह लोग जो फिरोज खान के संस्कृत पढ़ाने का विरोध कर रहे हैं, वह यह क्यों भूल जाते हैं कि उसी नगरी में विश्वनाथ मंदिर और संकटमोचन मंदिर में बिस्मिल्ला खां अपनी शहनाई बजाकर भगवान शिव और हनुमानजी की आराधना करते रहे हैं।
फिरोज खान के संस्कृत पढ़ाने का विरोध करने वाले चक्रपाणि ओझा बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के एक नियम का हवाला देते हैं, जिसके तहत गैरहिंदू वहां धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते और इसी बात को लेकर वह और उनके कुछ अनुयायी धरना प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन उसी विश्वविद्यालय के कुछ प्रोफेसर मानते हैं कि अगर विश्वविद्यालय में कोई ऐसा एक्ट होता तो इस पद के विज्ञापन में यह घोषणा साफ शब्दों में होती, जो इस मामले में नहीं थी। विज्ञापन के बाद आए आवेदनों की स्क्रूटनी में डीन, विभागाध्यक्ष और दो सीनियर प्रोफेसर शामिल होते हैं। उन्हें भी यूनिवर्सिटी एक्ट का ज्ञान होता है। उन्हें लगता कि डॉ फिरोज खान का आवेदन यूनिवर्सिटी एक्ट के खिलाफ है तो वह खारिज कर देते। फिरोज खान को इंटरव्यू के लिए आमंत्रण भेजा गया। मतलब यह कि स्क्रूटनी कमेटी ने मान लिया कि इस पद हेतु उनकी पात्रता है। चयन समिति ने फिरोज खान को योग्य माना और उन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर नियुक्ति दे दी गई। विश्वविद्यालय ने स्पष्ट कर दिया है कि नियुक्ति में पारदर्शिता अपनाते हुए विश्वविद्यालय ने नियमानुसार योग्यतम पाए गए उम्मीदवार का सर्वसम्मति से चयन किया है। प्रदर्शनकारी छात्रों को फिर से बता भी दिया गया है कि इस नियुक्ति में किसी भी नियम का उल्लंघन नहीं हुआ है। ऐसे में प्रदर्शनकारियों को आंदोलन जारी रखने की हवा कहां से मिली, इस पर सवाल भी उठ रहे हैं।
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प्रदर्शनकारियों के नेता ने खुद को सत्ताधारी पार्टी के एक संगठन से जुड़ा बताया था तो सबकी अंगुलियां स्वाभाविक रूप से सत्तापक्ष पर उठेंगी। अपना दामन साफ रखने के लिए सत्तापक्ष को यह कोशिश जरूर करनी चाहिए कि ऐसी बेतुकी राजनीति करने वालों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस नारे ‘सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास’ पर सवाल न उठें, जिसके आधार पर ही वह देश की सत्ता में मजबूती से कदम जमाए हुए हैं। इससे भी आगे की बात यह कि सवाल सिर्फ नारे का ही नहीं, भारत की संस्कृति और परंपरा के प्रति विश्वास और आस्था का भी है जो हजारों वर्षों से अपनी शक्ति से देश को न केवल जोड़े हुए है, वरन आगे भी ले जा रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)