क्या यह बैंकों के निजीकरण का उचित समय है?

Bank Privatization India: क्या बैंकों के निजीकरण का यह उचित समय है? क्या वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी बैंकों को निजी हाथों में सौपना ही एकमात्र उपाय बचा है? आइए जानते है इसके बारे में...

Written By :  Vikrant Nirmala Singh
Published By :  Chitra Singh
Update:2021-12-04 12:31 IST

बैंक प्राइवेटाइजेशन (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Bank Privatization India: जॉन रॉबिन्सन (John Robinson) कहते थे कि "अर्थशास्त्र का अध्ययन करने का उद्देश्य यह सीखना है कि कैसे अर्थशास्त्रियों के बहकावे में न आया जाए।" बैंकों के निजीकरण (bank ka nijikaran) की तरफ बढ़ रही भारत सरकार को रॉबिन्सन के इस कथन पर ध्यान देना चाहिए और सलाह दे रहे अर्थशास्त्रियों से पूछना चाहिए कि क्या बैंकों के निजीकरण का यह उचित समय है? क्या वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी बैंकों को निजी हाथों में सौपना ही एकमात्र उपाय बचा है? आखिर भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) में जरूरी वृद्धि दर को बैंकों के निजीकरण से कैसे हासिल किया जा सकता है?

केंद्र की मोदी सरकार (Modi Sarkar) बैंकिंग क़ानून (संशोधन) विधेयक, 2021 (The Banking Laws (Amendment) Bill, 2021) पारित कराने जा रही है। इसके बाद से बैंकों के निजीकरण की राह आसान हो जाएगी। इस कदम का बैंक कर्मचारी भारी विरोध कर रहे हैं और 16 दिसंबर से हड़ताल (bank employees strike) की घोषणा कर चुके हैं। विपक्ष भी सदन में आक्रामकता से विरोध की रणनीति बना रहा है। लेकिन इन सबके बीच ध्यान देने वाली बात यह है कि बैंकों के निजीकरण का यह निर्णय तब लिया जा रहा है जब कोविड-19 की भारी आर्थिक तबाही के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था निकलने का प्रयास कर रही है।

आर्थिक सुधार की एक बड़ी जिम्मेदारी सरकारी बैंकों के कंधों पर है। ऐसा इसलिए क्योंकि कोविड-19 के आर्थिक नुकसान से उबरने के लिए भारत सरकार के 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज का 90 फ़ीसद हिस्सा कर्ज आधारित था, तो इस पैकेज को लागू करने की बड़ी जिम्मेदारी सरकारी बैंकों की बनी। इसी क्रम में सरकारी बैंक अर्थव्यवस्था में वित्तीय तरलता बनाए रखने के लिए सरकार के आदेश पर सामान्य शर्तों पर आसान कर्ज उपलब्ध करा रहे हैं । इसलिए सवाल उठता है कि जब अर्थव्यवस्था को बैंकों की खासी जरूरत है तब निजीकरण जैसे तकनीकी काम में समय क्यों लगाया जा रहा है?

बैंकों के सन्दर्भ में भारत की आर्थिक नीति पूर्व में भी बड़ी दिलचस्प रही है। पहले बैंक निजी क्षेत्र के ही हुआ करते थे । लेकिन इनकी पहुंच सीमित और कुलीन वर्ग तक ही थी। जनसामान्य तक बैंकिंग सुविधा ले जाने के उद्देशय से सन 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। तब निजी बैंकों पर यह सवाल उठता था कि ये अपनी जरूरी जिम्मेदारी नहीं निभाते थे। बाकी 6 अन्य बैंकों का भी राष्ट्रीयकरण (banko ka rashtriyakaran) 1980 में कर दिया गया।

बैंक (फाइल फोटो- सोशल मीडिया)

वर्तमान में एक बार फिर बैंकों के सन्दर्भ में नीति बदली जा रही है। इस वित्तीय वर्ष के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने विनिवेश के जरिए 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने के प्रावधानों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की घोषणा भी की थी। यानी कि हम इतिहास में पुनः लौट रहे है।

हमेशा से संकटकाल में पब्लिक सेक्टर बैंकों (public sector banks) ने एक मह्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सरकार की कोई भी वित्तीय योजना जो बैंकों के जरिए संचालित होती है उसमें 95 फ़ीसदी से अधिक की हिस्सेदारी सरकारी बैंकों की रही है। उदाहरण के रूप में 'प्रधानमंत्री जन-धन योजना' (Pradhan Mantri Jan-Dhan Yojana) भारत सरकार की एक बेहद सफल और महत्वपूर्ण योजना रही है। इसके अंतर्गत जीरो बैलेंस पर लोगों के बैंक खाते खोले गए। इस पूरी योजना की सबसे बड़ी चुनौती खातों के ऐक्टिव रहने की थी और साथ ही साथ एक खाते को मैनेज करने पर आने वाले ख़र्चे की देख-रेख भी करनी थी।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस योजना के अंतर्गत कुल 43.94 करोड़ बैंक खाते खुले हैं। जिसमें से महज 1.28 करोड़ खाते निजी बैंकों ने खोले, यानी कि कुल खातों का महज 3 फीसदी। ऐसा इसलिए क्योंकि बहुत से निजी बैंक न्यूनतम बैलेंस के नाम पर इस देश के एक बड़े हिस्से का महीने की कुल आमदनी रखते हैं। स्वाभाविक था कि निजी बैंक घाटे पर जाकर मुफ्त खाते नहीं खोलेंगे। लेकिन यहां सरकारी बैंकों ने आगे आकर भारत की एक बड़ी संख्या को बैंकिंग के दायरे में लाने का काम किया। यही हाल अटल पेंशन योजना, मुद्रा योजना, फसल बीमा योजना आदि जैसी ढेरों सरकारी योजनाओं का है जहां सरकारी बैंकों ने निजी बैंकों से बेहतर कार्य किया है। इसलिए सवाल उठता है कि निजीकरण के बाद क्या ये बैंक आमजन की जरूरी योजनाओं के साथ न्याय कर पाएंगे?      

तो क्या सरकारी बैंक सिर्फ लाभ का विषय है ?

जवाब है नहीं। सरकारी बैंकों को ढेरों योजनाओं के भार से गुजरना पड़ता है। जिसमें सबसे ज्यादा कॉर्पोरेट कर्ज माफ़ी जैसी चीज़े प्रभाव की होती हैं। जब सरकारी योजनाओं और एनपीए के बोझ से बैंकों की स्थिति बिगड़ती है तो सरकार इनमें बजट से पैसा लगाकर उबारने का काम करती हैं। लेकिन हाल के वर्षों में ये तरकीब सफल नहीं हुई है। वर्तमान केंद्र सरकार ने ही अपने कार्यकाल के दौरान तकरीबन दो लाख करोड़ रुपए से अधिक पूंजी बैंकों को दी है । लेकिन फिर भी सरकारी बैंक घाटे में चल रहे है।   

बैंकों की स्थिति को सुधारने के लिए केन्द्र की मोदी सरकार "चार का एक" जैसी योजना पर काम कर रही है। इसके अंतर्गत पिछले कुछ सालों में सरकारी बैंकों का एक-दूसरे के साथ विलय कर संख्या को इकाई में लाने का प्रयास किया जा रहा है। आज सरकारी बैंकों की संख्या 28 से घटकर 12 हो चुकी है। सरकार को लगता है कि विलय और निजीकरण के जरिए बड़े बैंक तैयार हो जाने से बैंकिंग कमियाँ दूर हो जाएगी। रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाईवी रेड्डी कहते थे कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय एक राजनीतिक फ़ैसला था, इसीलिए इनके निजीकरण का फ़ैसला भी राजनीति ही करेगी। वर्तमान में मौजूदा राजनीति ने तो मन बना लिया है। बाकी भविष्य पर छोड़ते हैं।

( लेखक फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल के संस्थापक एंव अध्यक्ष हैं।)

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